केरल (Kerala) के राज्यपाल बनाम विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर्स विवाद में नई खबर यह है कि सत्तारूढ़ एलडीएफ (वाम लोकतांत्रिक मोर्चा) राज्य भर में विरोध मार्च निकालने की तैयारी में है. चूंकि राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद राज्य के नौ विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर्स को अपने पद से इस्तीफा देने का आदेश दिया था. फिलहाल ये इस्तीफे रुक गए हैं क्योंकि केरल हाई कोर्ट ने कहा है कि जब तक कुलाधिपति, यानी राज्यपाल कारण बताओ नोटिस के बाद अंतिम आदेश जारी नहीं करते, सभी आठ वीसी अपने पद पर बने रह सकते हैं.
इस बीच यह सवाल उठना लाजमी है कि सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की क्या भूमिका होती है, और किस हद तक वह अपनी इस भूमिका का इस्तेमाल कर सकता है. क्या केरल के अलावा दूसरे राज्यों में भी राज्यपाल और उच्च शिक्षण संस्थानों के बीच ऐसी तनातनी देखने को मिलती है.
केरल वीसी विवाद- विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की भूमिका इतनी वजनदार क्यों है?
1. चांसलर के तौर पर राज्यपाल की ताकत
यहां सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि ज्यादातर राज्यों में राज्यपाल ही सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में चांसलर की भूमिका में होते हैं. सभी राज्य कानूनों के जरिए सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना करते हैं. ज्यादातर कानूनों में राज्यपाल को ही इन विश्वविद्यालयों का चांसलर बनाया जाता है. चांसलर सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के प्रमुख के तौर पर काम करते हैं और वाइस चांसलर्स की भी नियुक्ति करते हैं.
चांसलर विश्वविद्यालय के कोर्ट या सीनेट की बैठकों के अध्यक्ष होते हैं. यही कोर्ट या सीनेट विश्वविद्यालयों में नए विभाग बनाती है, डिग्री और टाइटिल देती है और फेलोशिप्स की शुरुआत करती है. इसके अलावा, अगर विश्वविद्यालय की कोई कार्रवाई कानून का उल्लंघन करती है तो चांसलर उसे रद्द कर सकता है. बिहार, गुजरात और झारखंड जैसे राज्यों में चांसलर के पास विश्वविद्यालय का निरीक्षण करने का भी अधिकार है. यानी किसी सार्वजनिक विश्वविद्यालय में राज्यपाल की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
Expand2. केरल ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी राज्यपाल की भूमिका कम करने की कोशिश
इसी अहम भूमिका के चलते राज्य सरकार से राज्यपाल की अनबन मुमकिन है. जैसा कि केरल के मामले में हुआ. वहां विधानसभा में पारित एक बिल राज्यपाल के पास दस्तखत के लिए लंबित है जिसमें बतौर चांसलर राज्यपाल की शक्तियों को कम किया गया है. राज्यपाल से तनातनी के बाद राज्य सरकार अध्यादेश के जरिए चांसलर की भूमिका में कतरब्यौंत की तैयारी में है.
इससे पहले इसी साल जून में पश्चिम बंगाल सरकार ने एक बिल पारित किया था जिसमें राज्य के 31 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को चांसलर बनाया गया था.
इसी साल अप्रैल में तमिलनाडु विधानसभा ने भी दो बिल पारित किए थे- तमिलनाडु विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 और चेन्नई विश्विद्यालय (संशोधन) बिल, 2022. इन दोनों बिल्स में यह प्रावधान था कि राज्यपाल नहीं, राज्य सरकार वाइस चांसलर्स को नियुक्त करेगी.
इसी तरह 2021 में महाराष्ट्र ने भी महाराष्ट्र सार्वजनिक विश्वविद्यालय (तीसरा संशोधन) बिल, 2021 पारित किया गया था जिसमें वाइस चांसलर्स की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव किए गए थे, और राज्य सरकार की भूमिका को व्यापक बनाया गया था. 2013 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार भी गुजरात विश्वविद्यालय कानून संशोधन बिल लाई थी जिसमें चांसलर के तौर पर राज्यपाल की सभी शक्तियों को खत्म किया गया था. इस बिल को 2015 में राज्यपाल ने अपनी मंजूरी दी थी.
अब जिन राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की सरकारें हैं, वहां सारी प्रक्रिया आसानी से चलती रहती है. लेकिन जिस राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें होती हैं (जैसे इस मामले में केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्य), वहां राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच कहासुनी हो सकती है.
Expand3. राज्यपाल खुद उतर गए राजनीति के मैदान में
इस पूरे मसले पर यह सवाल भी किया जा सकता है कि विश्वविद्यालयों में राज्यपाल का क्या काम? राज्य स्तरीय सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की फंडिंग राज्य सरकार की तरफ से की जाती है. इसीलिए उनका, उन पर नियंत्रण होता है. ऐसे में राज्यपाल की भूमिका इतनी वजनदार क्यों है? क्या चांसलर के तौर पर राज्यपाल के पास अपने विवेक का इस्तेमाल करने का अधिकार है?
चूंकि कई बार राज्यपाल ही चांसलर के तौर पर पक्षपातपूर्ण राजनीति का शिकार हो जाते हैं. 1986 में इंडियन लॉ इस्टीट्यूट के एक जरनल में लीगल एकैडमिक प्रोफेसर आर के रायजादा का एक पीस छपा था- गवर्नर-चांसलर: द राउंड पेग इन द स्क्वेयर होल. इसमें उन्होंने कई ऐसे मामलों के बारे में बताया था, जब राज्यपाल ने चांसलर्स के तौर पर अपनी शक्तियों का गंभीर दुरुपयोग किया. इसी के चलते कई अदालतों ने समय समय पर राज्यपाल की सीमाओं को स्पष्ट किया है.
1974 में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की एक संवैधानिक पीठ ने शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य फैसले में कहा था कि राज्यपाल के सभी कार्य मंत्रीपरिषद की सलाह पर आधारित होंगे. इसी तरह 1980 में जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर ने मारू राम बनाम भारत संघ मामले में ‘’फंक्शनल यूफेमिस्म” का जिक्र किया था, यानी राष्ट्रपति और राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही फंक्शनल होने चाहिए. हालांकि 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के पदेन अध्यक्ष के रूप में राज्यपाल की शक्तियों से जुड़े एक मामले में कहा था कि राज्यपाल अलग वैधानिक काम करने के दौरान मंत्रिपरिषद की सलाह मनाने को मजबूर नहीं है. यानी कुल मिलाकर एक संवैधानिक पद किसी भी विवाद का कारण तो बन ही सकता है.
केंद्र और राज्यों के बीच संतुलित संबंधों पर सुझाव देने के लिए कई आयोगों का गठन किया गया है. 2007 में ऐसे ही एक पुंछी आयोग ने शिक्षण संस्थानों में राज्यपाल की भूमिका पर भी सुझाव दिए थे. आयोग ने कहा था कि अगर राज्यपाल विश्वविद्यालय के चांसलर होंगे तो इस पद के विवाद में पड़ने या आलोचना के शिकार होने की पूरी उम्मीद होगी. इसलिए राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित होनी चाहिए. पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 में पुंछी आयोग के इस सुझाव का भी हवाला दिया गया था.
Expand4. सरकार खुद यूजीसी को बंद करने पर अमादा है
दिक्कत यह है कि राज्यपाल और राज्य सरकार की इस रस्साकशी मे आखिर नुकसान विश्वविद्यालयों और उनमें पढ़ने वाले स्टूडेंट्स का ही होता है. इसीलिए उच्च शिक्षण संस्थानों को डीपॉलिटिसाइज यानी राजनीति से दूर किए जाने की हिमायत की जाती रही है. 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता देने की बात कही गई है. यह बात और है कि जिस यूजीसी के नियमों का हवाला देकर केरल के राज्यपाल ने वाइस चांसलर्स के इस्तीफे का आदेश दिया, उसे खुद केंद्र सरकार खत्म करने पर अमादा है. 2018 में वह उच्च शिक्षा आयोग (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का निरसन) मसौदा बिल लेकर आई थी जो यूजीसी का स्थान लेता है और उच्च शिक्षा आयोग का गठन करता है. इस मसौदा बिल में केंद्र सरकार को अधिक मजबूत किया गया था. इसका एक प्रावधान यह भी था कि अगर कोई संस्थान न्यूनतम मानदंडों का पालन नहीं करता, तो आयोग उसे बंद करने का आदेश दे सकता है. यह शक्ति यूजीसी के पास नहीं है. ऐसे में स्वायत्तता का सवाल ही कहां पैदा होता है.
भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 2016-17 में 26% था. यानी विश्वविद्यालयों में जिन लोगों का दाखिला होना चाहिए, उनमें से सिर्फ 26% लोगों ने ही दाखिला लिया है. अमेरिका में यह 87%, रूस में 79% और यूके में 57% है. इसके अलावा भारत में उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले 85% स्टूडेंट्स राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं लेकिन राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क में इनमें से बहुत कम संस्थान टॉप 100 में शुमार हैं. यानी नए विश्वविद्यालयों के बनने के बाद भी हाल बुरा है. चूंकि राज्य विश्वविद्यालयों को केंद्रीय बजट से बहुत कम मात्रा में अनुदान मिलते हैं. यूजीसी के लगभग 65% अनुदान केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों को मिलते हैं, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों के हिस्से बाकी 35% आता है. ऐसे में राज्यों का प्रभुत्व उन विश्वविद्यालयों पर अधिक होना स्वाभाविक है. हां, आसान रास्ता यह है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति का मैदान न बनाया जाए और उन्हें स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करने दिया जाए.
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चांसलर के तौर पर राज्यपाल की ताकत
यहां सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि ज्यादातर राज्यों में राज्यपाल ही सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में चांसलर की भूमिका में होते हैं. सभी राज्य कानूनों के जरिए सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना करते हैं. ज्यादातर कानूनों में राज्यपाल को ही इन विश्वविद्यालयों का चांसलर बनाया जाता है. चांसलर सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के प्रमुख के तौर पर काम करते हैं और वाइस चांसलर्स की भी नियुक्ति करते हैं.
चांसलर विश्वविद्यालय के कोर्ट या सीनेट की बैठकों के अध्यक्ष होते हैं. यही कोर्ट या सीनेट विश्वविद्यालयों में नए विभाग बनाती है, डिग्री और टाइटिल देती है और फेलोशिप्स की शुरुआत करती है. इसके अलावा, अगर विश्वविद्यालय की कोई कार्रवाई कानून का उल्लंघन करती है तो चांसलर उसे रद्द कर सकता है. बिहार, गुजरात और झारखंड जैसे राज्यों में चांसलर के पास विश्वविद्यालय का निरीक्षण करने का भी अधिकार है. यानी किसी सार्वजनिक विश्वविद्यालय में राज्यपाल की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
केरल ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी राज्यपाल की भूमिका कम करने की कोशिश
इसी अहम भूमिका के चलते राज्य सरकार से राज्यपाल की अनबन मुमकिन है. जैसा कि केरल के मामले में हुआ. वहां विधानसभा में पारित एक बिल राज्यपाल के पास दस्तखत के लिए लंबित है जिसमें बतौर चांसलर राज्यपाल की शक्तियों को कम किया गया है. राज्यपाल से तनातनी के बाद राज्य सरकार अध्यादेश के जरिए चांसलर की भूमिका में कतरब्यौंत की तैयारी में है.
इससे पहले इसी साल जून में पश्चिम बंगाल सरकार ने एक बिल पारित किया था जिसमें राज्य के 31 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को चांसलर बनाया गया था.
इसी साल अप्रैल में तमिलनाडु विधानसभा ने भी दो बिल पारित किए थे- तमिलनाडु विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 और चेन्नई विश्विद्यालय (संशोधन) बिल, 2022. इन दोनों बिल्स में यह प्रावधान था कि राज्यपाल नहीं, राज्य सरकार वाइस चांसलर्स को नियुक्त करेगी.
इसी तरह 2021 में महाराष्ट्र ने भी महाराष्ट्र सार्वजनिक विश्वविद्यालय (तीसरा संशोधन) बिल, 2021 पारित किया गया था जिसमें वाइस चांसलर्स की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव किए गए थे, और राज्य सरकार की भूमिका को व्यापक बनाया गया था. 2013 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार भी गुजरात विश्वविद्यालय कानून संशोधन बिल लाई थी जिसमें चांसलर के तौर पर राज्यपाल की सभी शक्तियों को खत्म किया गया था. इस बिल को 2015 में राज्यपाल ने अपनी मंजूरी दी थी.
अब जिन राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की सरकारें हैं, वहां सारी प्रक्रिया आसानी से चलती रहती है. लेकिन जिस राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें होती हैं (जैसे इस मामले में केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्य), वहां राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच कहासुनी हो सकती है.
राज्यपाल खुद उतर गए राजनीति के मैदान में
इस पूरे मसले पर यह सवाल भी किया जा सकता है कि विश्वविद्यालयों में राज्यपाल का क्या काम? राज्य स्तरीय सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की फंडिंग राज्य सरकार की तरफ से की जाती है. इसीलिए उनका, उन पर नियंत्रण होता है. ऐसे में राज्यपाल की भूमिका इतनी वजनदार क्यों है? क्या चांसलर के तौर पर राज्यपाल के पास अपने विवेक का इस्तेमाल करने का अधिकार है?
चूंकि कई बार राज्यपाल ही चांसलर के तौर पर पक्षपातपूर्ण राजनीति का शिकार हो जाते हैं. 1986 में इंडियन लॉ इस्टीट्यूट के एक जरनल में लीगल एकैडमिक प्रोफेसर आर के रायजादा का एक पीस छपा था- गवर्नर-चांसलर: द राउंड पेग इन द स्क्वेयर होल. इसमें उन्होंने कई ऐसे मामलों के बारे में बताया था, जब राज्यपाल ने चांसलर्स के तौर पर अपनी शक्तियों का गंभीर दुरुपयोग किया. इसी के चलते कई अदालतों ने समय समय पर राज्यपाल की सीमाओं को स्पष्ट किया है.
1974 में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की एक संवैधानिक पीठ ने शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य फैसले में कहा था कि राज्यपाल के सभी कार्य मंत्रीपरिषद की सलाह पर आधारित होंगे. इसी तरह 1980 में जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर ने मारू राम बनाम भारत संघ मामले में ‘’फंक्शनल यूफेमिस्म” का जिक्र किया था, यानी राष्ट्रपति और राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही फंक्शनल होने चाहिए. हालांकि 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के पदेन अध्यक्ष के रूप में राज्यपाल की शक्तियों से जुड़े एक मामले में कहा था कि राज्यपाल अलग वैधानिक काम करने के दौरान मंत्रिपरिषद की सलाह मनाने को मजबूर नहीं है. यानी कुल मिलाकर एक संवैधानिक पद किसी भी विवाद का कारण तो बन ही सकता है.
केंद्र और राज्यों के बीच संतुलित संबंधों पर सुझाव देने के लिए कई आयोगों का गठन किया गया है. 2007 में ऐसे ही एक पुंछी आयोग ने शिक्षण संस्थानों में राज्यपाल की भूमिका पर भी सुझाव दिए थे. आयोग ने कहा था कि अगर राज्यपाल विश्वविद्यालय के चांसलर होंगे तो इस पद के विवाद में पड़ने या आलोचना के शिकार होने की पूरी उम्मीद होगी. इसलिए राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित होनी चाहिए. पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 में पुंछी आयोग के इस सुझाव का भी हवाला दिया गया था.
सरकार खुद यूजीसी को बंद करने पर अमादा है
दिक्कत यह है कि राज्यपाल और राज्य सरकार की इस रस्साकशी मे आखिर नुकसान विश्वविद्यालयों और उनमें पढ़ने वाले स्टूडेंट्स का ही होता है. इसीलिए उच्च शिक्षण संस्थानों को डीपॉलिटिसाइज यानी राजनीति से दूर किए जाने की हिमायत की जाती रही है. 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी शैक्षणिक संस्थानों को स्वायत्तता देने की बात कही गई है. यह बात और है कि जिस यूजीसी के नियमों का हवाला देकर केरल के राज्यपाल ने वाइस चांसलर्स के इस्तीफे का आदेश दिया, उसे खुद केंद्र सरकार खत्म करने पर अमादा है. 2018 में वह उच्च शिक्षा आयोग (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का निरसन) मसौदा बिल लेकर आई थी जो यूजीसी का स्थान लेता है और उच्च शिक्षा आयोग का गठन करता है. इस मसौदा बिल में केंद्र सरकार को अधिक मजबूत किया गया था. इसका एक प्रावधान यह भी था कि अगर कोई संस्थान न्यूनतम मानदंडों का पालन नहीं करता, तो आयोग उसे बंद करने का आदेश दे सकता है. यह शक्ति यूजीसी के पास नहीं है. ऐसे में स्वायत्तता का सवाल ही कहां पैदा होता है.
भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) 2016-17 में 26% था. यानी विश्वविद्यालयों में जिन लोगों का दाखिला होना चाहिए, उनमें से सिर्फ 26% लोगों ने ही दाखिला लिया है. अमेरिका में यह 87%, रूस में 79% और यूके में 57% है. इसके अलावा भारत में उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले 85% स्टूडेंट्स राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं लेकिन राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क में इनमें से बहुत कम संस्थान टॉप 100 में शुमार हैं. यानी नए विश्वविद्यालयों के बनने के बाद भी हाल बुरा है. चूंकि राज्य विश्वविद्यालयों को केंद्रीय बजट से बहुत कम मात्रा में अनुदान मिलते हैं. यूजीसी के लगभग 65% अनुदान केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों को मिलते हैं, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों के हिस्से बाकी 35% आता है. ऐसे में राज्यों का प्रभुत्व उन विश्वविद्यालयों पर अधिक होना स्वाभाविक है. हां, आसान रास्ता यह है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति का मैदान न बनाया जाए और उन्हें स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करने दिया जाए.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)