Modi Gov. Foreign Policy: विदेश नीति के मामले में “निरंतरता” नई नरेंद्र मोदी सरकार का सिद्धांत लगता है, जिसमें विदेश मंत्रालय अनुभवी राजनयिक एस. जयशंकर (S Jaishankar) के पास बरकरार रखा गया है. शपथ ग्रहण करने के सिर्फ चार दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी गुरुवार, 13 जून को इटली के पुगलिया में तीन दिवसीय G7 शिखर सम्मेलन के लिए रवाना हो गए. इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी (Giorgia Meloni) ने इसी साल अप्रैल में भारत को इसके लिए निमंत्रण दिया था.
मोदी 3.0 की शुरुआत G7 से: क्या गठबंधन की राजनीति भारत की विदेश नीति को प्रभावित करेगी?
1. G7 से SCO तक: मोदी की व्यस्त विदेश यात्राएं
इटली में 13-15 जून के G7 शिखर सम्मेलन के अलावा, 15-16 जून को स्विट्जरलैंड में विश्व शांति शिखर सम्मेलन होना है, जिसमें रूस-यूक्रेन युद्ध से जुड़े सुरक्षा मुद्दों पर चर्चा की जाएगी. विदेश मंत्रालय (MEA) ने कहा कि उसे मेजबान देश से निमंत्रण मिला है, लेकिन अभी यह तय नहीं हुआ है कि क्या वह इसमें हिस्सा लेगा.
इसके अलावा अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन 17 जून को सरकारी यात्रा पर भारत आने वाले हैं, जिसके दौरान वह भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल के साथ बैठक करेंगे और प्रधानमंत्री से भी मुलाकात कर सकते हैं. सुलिवन और डोभाल के बीच बातचीत अमेरिका से GE-414 इंजन, स्ट्राइकर बख्तरबंद वाहनों और MQ-9 ड्रोन की टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के इर्द-गिर्द केंद्रित रहने की उम्मीद है.
अगले महीने कजाकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन भी होने वाला है, जहां मोदी की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और चीनी प्रधानमंत्री शी जिनपिंग से मुलाकात की उम्मीद है.
Expand2. क्या गठबंधन की राजनीति भारत की विदेश नीति को प्रभावित करेगी?
नई सरकार ने जबकि अभी-अभी कामकाज संभाला ही है, ऐसे में अभी यह तय नहीं है कि बीजेपी के गठबंधन सहयोगी सरकार के विदेश नीति लक्ष्यों को प्रभावित करेंगे या नहीं– और अगर करेंगे, तो किस हद तक.
दलील दी जाती है कि गठबंधन सरकार एकजुट होकर विदेश नीति के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हो सकती है, जैसा कि पिछले 10 सालों में रहा था जब मोदी सरकार को अकेले पूर्ण बहुमत मिला था. ऐसा इसलिए है क्योंकि गठबंधन सहयोगियों के बीजेपी के साथ निहित स्वार्थ और नीतिगत मतभेद का टकराव हो सकता है.
इसे खारिज करने की दलील यह है कि विदेश नीति तमाम दलों की प्राथमिकताओं में बहुत मायने नहीं रखती है. बीजेपी के गठबंधन सहयोगी– जो कि सभी क्षेत्रीय दल हैं– विदेश नीति तय के बजाय क्षेत्रीय मुद्दों में ज्यादा रुचि रखने वाले हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हिमांशु रॉय ने द क्विंट से कहा, “भारत की विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा.”
वह कहते हैं, “बेशक, मंत्रिमंडल में कई गठबंधन सहयोगी हैं और उन्हें निश्चित रूप से इस बारे में जानकारी दी जाएगी. लेकिन जहां तक विदेश नीति की प्राथमिकताओं का सवाल है, मुझे मोदी 2.0 से कोई बड़ा बदलाव होता नहीं दिखता है.”
बीजेपी के दो गठबंधन सहयोगी– चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगु देशम पार्टी और नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड)– खासतौर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि गठबंधन में उनके क्रमशः 16 और 12 सांसद हैं. इन दोनों दलों के समर्थन वापस लेने का मतलब होगा कि NDA 272 की जरूरी संख्या यानी बहुमत से नीचे आ जाएगा.
हिमांशु रॉय का कहना है, “जब तक केंद्र सरकार अलग-अलग योजनाओं के तहत आंध्र प्रदेश और बिहार को धन मुहैया कराती रहेगी, तब तक गठबंधन में कोई समस्या नहीं होगी.” वह आगे कहते हैं, “इन गठबंधन सहयोगियों को खुश रखने के लिए तयशुदा स्कीम्स के तहत ज्यादा धन आवंटित किया जा सकता है."
इस तरह, JD(U) और TDP जैसे गठबंधन सहयोगियों के विदेश नीति के बजाय घरेलू राजनीति को मिल-जुलकर चलाने की संभावना है.
वैसे, दूसरे लोगों का कहना है कि मोदी सरकार विदेश नीति के मामले में गठबंधन सहयोगियों से बहुत ज्यादा सलाह नहीं करेगी, लेकिन कुछ हद तक “बारीकियों” पर चर्चा की जा सकती है.
वाशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन ने द क्विंट को बताया:
“मोदी की हिंदू राष्ट्रवाद को सॉफ्ट पावर के लिए एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने की इच्छा जैसे कुछ मुद्दों– जो उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान शुरू किए थे– के मामले में बीजेपी के गठबंधन सहयोगियों से कुछ विरोध का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर, खासकर JD(U) और TDP हिंदुत्ववादी पार्टी से वैचारिक रूप से अलग हैं. इन मायनों में कि उनका नजरिया धर्मनिरपेक्ष है और शायद भारत द्वारा अपनी विदेश नीति को आगे बढ़ाने में मदद के लिए धर्म के इस्तेमाल का विचार उन्हें पसंद न आए.”
Expand3. मजबूत विपक्ष की मौजूदगी में विदेश नीति के लिए इसका क्या मतलब है
एक और फैक्टर जो भारत की विदेश नीति निर्माण पर असर डाल सकता है, वह है 18वीं लोकसभा में पहले के मुकाबले मजबूत विपक्ष.
INDIA गठबंधन ने 2024 के आम चुनावों में 234 सीटों का शानदार जीत हासिल की है. गठबंधन में खुद कांग्रेस के 99 सांसद शामिल हैं– 2019 में यह गिनती सिर्फ 52 थी. इसका मतलब यह है कि NDA संसद के दोनों सदनों में एकतरफा तौर पर कानून पारित नहीं कर पाएगा या विपक्ष को साथ लिए बिना विदेश नीति के महत्वपूर्ण फैसले नहीं ले पाएगा.
हिमांशु रॉय कहते हैं, “इस बार विपक्ष के मजबूत होने के मद्देनजर सरकार की विदेश नीति, तालमेल और बहस में कुछ मामूली बदलाव हो सकते हैं.”
विदेश नीति के मुद्दों पर परंपरागत रूप से संसद में शायद ही कभी, युद्ध के समय को छोड़कर– बहस होती रही है. जब भी उन पर बहस होती, तो चर्चा के लिए बहुत कम समय दिया जाता था क्योंकि घरेलू मुद्दे विदेश नीति के मामलों से कहीं ज्यादा होते थे.
मगर 2020 में गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़पों के बाद यह पैटर्न बदलना शुरू हो गया. झड़पों के बाद खासतौर से कांग्रेस जोश में आ गई और उसने मोदी सरकार पर बीजिंग को “क्लीन चिट” देने का आरोप लगाया. संसद में इस मुद्दे पर बहस करने की कांग्रेस की लगातार मांगों को भी बार-बार खारिज कर दिया गया.
अब 99 सांसदों के साथ कांग्रेस एक बार फिर चीन के मुद्दे को उठा सकती है. अगर INDIA गठबंधन– जिसमें लोकसभा का 44 फीसद हिस्सा शामिल है– ऐसा करता है, तो सरकार के लिए बहस की मांग को नजरअंदाज कर पाना बहुत मुश्किल होगा.
कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने मेनिफेस्टो में कहा था कि अगर वह सत्ता में आते हैं, तो वे चीन के साथ सीमा पर यथास्थिति बहाल करने और अतीत में दोनों सेनाओं की गश्त वाले इलाकों को फिर से भारतीय सैनिकों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में काम करेंगे.
माइकल कुगेलमैन ने क्विंट से कहा..
“मुझे लगता है कि जोश से भरा विपक्ष सीमा पर- कुछ ऐसे हालात जिससे भारत जूझ रहा है- चीन को रोकने को और ज्यादा प्राथमिकता देगा. विपक्ष इस कदर उत्साहित है, जैसा एक दशक में कभी नहीं था, और चीन के मुद्दे सहित सभी मोर्चों पर सरकार पर दबाव बनाकर इन हालात का फायदा उठाने की कोशिश करेगा. मोदी के घटे हुए जनादेश और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए, वह कुछ फौरी बढ़त हासिल करने के मौके की तलाश में हैं. और यह न केवल घरेलू बल्कि विदेशी मोर्चे पर भी लागू होता है. मुझे लगता है कि बढ़त हासिल करने का एक तरीका यह दिखाना है कि भारत चीन को जवाब देने की स्थिति में है.”
चीन और कुछ दूसरे मुद्दों के अलावा केंद्र सरकार और विपक्ष के बीच प्रमुख विदेश नीति के दृष्टिकोण पर मोटे तौर पर द्विदलीय सहमति है, जैसे कि पाकिस्तान के प्रति प्रतिक्रिया, ‘एक्ट ईस्ट’ नीति या ‘नेबरहुड फर्स्ट’– जिसे बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, भूटान और नेपाल के नेताओं के मोदी मंत्रिमंडल के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद और बढ़ावा मिला.
Expand4. क्या अतीत में संसद के दबाव में विदेश नीति में बदलाव किया गया है?
ऐसी कई मिसालें हैं जो बताती हैं कि गठबंधन सरकारों को विपक्ष के दबाव या गठबंधन में फूट के चलते अपनी विदेश नीति के नजरिये में बदलाव करना पड़ा, या कम से कम उसमें आंशिक रूप से बदलाव करना पड़ा है.
इसकी एक मिसाल दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार की है. जब 2003 में अमेरिका के नेतृत्व में 42 देशों के गठबंधन ने इराक पर हमला किया, जिससे एक युद्ध शुरू हुआ जिसे दूसरे खाड़ी युद्ध के नाम से जाना जाता है, तो वाजपेयी सरकार अमेरिका के खिलाफ सख्त रुख न अपनाकर ‘मध्य मार्ग’ अपनाने चाहती थी ताकि अमेरिकी सरकार को नाराज न किया जाए.
मगर संसद ने इराक में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की निंदा करने वाले प्रस्ताव पर जोर दिया. 269 सांसदों वाले NDA के पास इसे मानने के अलावा कोई चारा नहीं था.
एक और मिसाल है जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार ने 2008 में एक महत्वपूर्ण परमाणु सौदे के लिए अमेरिका के साथ बातचीत के वास्ते इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) से संपर्क करने का फैसला किया.
लेफ्ट फ्रंट के सभी 59 सांसदों– जिन्होंने सौदे का पुरजोर विरोध किया– ने UPA से अपना समर्थन वापस ले लिया. इससे 22 जुलाई, 2008 को अविश्वास प्रस्ताव आया, जिस पर मनमोहन सरकार क्षेत्रीय दलों के समर्थन से सिर्फ 19 वोटों से बच पाने में सफल रही.
सिर्फ गठबंधन सरकारों को ही मजबूत विपक्ष और गठबंधन के सहयोगियों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है, बल्कि पूर्ण बहुमत वाली सरकारों को भी इसका सामना करना पड़ा है.
उदाहरण के लिए 1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन के हाथों अपमानजनक हार का सामना करने के बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार को विपक्ष की ओर से काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था. उस समय 508 सदस्यीय लोकसभा में 361 सदस्यों के विशाल बहुमत के बावजूद नेहरू को अपने रक्षा मंत्री और करीबी साथी वीके कृष्ण मेनन को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
वैसे इसका मतलब यह नहीं है कि विदेश नीति में गठबंधन बाधा ही बनता है. अतीत में कई गठबंधन सरकारों के तहत ही भारत अपने कुछ सबसे साहसिक फैसले लेने में सक्षम रहा है.
इसके कुछ उदाहरणों में शामिल हैं- 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली अल्पमत कांग्रेस सरकार द्वारा LPG (लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) सुधारों को लागू किया गया; 1998 में वाजपेयी के नेतृत्व में पोखरण में न्यूक्लियर टेस्ट, जिसने भारत को परमाणु संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित किया; और 1990 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करना– यह ऐसा फैसला था जिसने भारत में जातिगत राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
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एक तरफ जानकारों के एक समूह का कहना है कि भारत सरकार की विदेश नीति की दिशा में कोई बदलाव नहीं होगा, लेकिन दूसरों का कहना है कि मोदी को अब बड़े फैसले लेने से पहले अपने सभी महत्वपूर्ण गठबंधन के सभी सहयोगियों से– जिन पर बीजेपी निर्भर है, “परामर्श” करना होगा.
किस पक्ष का तर्क ज्यादा वजनदार है? हम एक्सपर्ट की मदद से इसका पता लगाएंगे. लेकिन पहले, पीएम मोदी की आगामी विदेश यात्राओं पर एक नजर डालते हैं.
मोदी 3.0 की शुरुआत G7 से: क्या गठबंधन की राजनीति भारत की विदेश नीति को प्रभावित करेगी?
G7 से SCO तक: मोदी की व्यस्त विदेश यात्राएं
इटली में 13-15 जून के G7 शिखर सम्मेलन के अलावा, 15-16 जून को स्विट्जरलैंड में विश्व शांति शिखर सम्मेलन होना है, जिसमें रूस-यूक्रेन युद्ध से जुड़े सुरक्षा मुद्दों पर चर्चा की जाएगी. विदेश मंत्रालय (MEA) ने कहा कि उसे मेजबान देश से निमंत्रण मिला है, लेकिन अभी यह तय नहीं हुआ है कि क्या वह इसमें हिस्सा लेगा.
इसके अलावा अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन 17 जून को सरकारी यात्रा पर भारत आने वाले हैं, जिसके दौरान वह भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल के साथ बैठक करेंगे और प्रधानमंत्री से भी मुलाकात कर सकते हैं. सुलिवन और डोभाल के बीच बातचीत अमेरिका से GE-414 इंजन, स्ट्राइकर बख्तरबंद वाहनों और MQ-9 ड्रोन की टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के इर्द-गिर्द केंद्रित रहने की उम्मीद है.
अगले महीने कजाकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन भी होने वाला है, जहां मोदी की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और चीनी प्रधानमंत्री शी जिनपिंग से मुलाकात की उम्मीद है.
क्या गठबंधन की राजनीति भारत की विदेश नीति को प्रभावित करेगी?
नई सरकार ने जबकि अभी-अभी कामकाज संभाला ही है, ऐसे में अभी यह तय नहीं है कि बीजेपी के गठबंधन सहयोगी सरकार के विदेश नीति लक्ष्यों को प्रभावित करेंगे या नहीं– और अगर करेंगे, तो किस हद तक.
दलील दी जाती है कि गठबंधन सरकार एकजुट होकर विदेश नीति के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हो सकती है, जैसा कि पिछले 10 सालों में रहा था जब मोदी सरकार को अकेले पूर्ण बहुमत मिला था. ऐसा इसलिए है क्योंकि गठबंधन सहयोगियों के बीजेपी के साथ निहित स्वार्थ और नीतिगत मतभेद का टकराव हो सकता है.
इसे खारिज करने की दलील यह है कि विदेश नीति तमाम दलों की प्राथमिकताओं में बहुत मायने नहीं रखती है. बीजेपी के गठबंधन सहयोगी– जो कि सभी क्षेत्रीय दल हैं– विदेश नीति तय के बजाय क्षेत्रीय मुद्दों में ज्यादा रुचि रखने वाले हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हिमांशु रॉय ने द क्विंट से कहा, “भारत की विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा.”
वह कहते हैं, “बेशक, मंत्रिमंडल में कई गठबंधन सहयोगी हैं और उन्हें निश्चित रूप से इस बारे में जानकारी दी जाएगी. लेकिन जहां तक विदेश नीति की प्राथमिकताओं का सवाल है, मुझे मोदी 2.0 से कोई बड़ा बदलाव होता नहीं दिखता है.”
बीजेपी के दो गठबंधन सहयोगी– चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगु देशम पार्टी और नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड)– खासतौर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि गठबंधन में उनके क्रमशः 16 और 12 सांसद हैं. इन दोनों दलों के समर्थन वापस लेने का मतलब होगा कि NDA 272 की जरूरी संख्या यानी बहुमत से नीचे आ जाएगा.
हिमांशु रॉय का कहना है, “जब तक केंद्र सरकार अलग-अलग योजनाओं के तहत आंध्र प्रदेश और बिहार को धन मुहैया कराती रहेगी, तब तक गठबंधन में कोई समस्या नहीं होगी.” वह आगे कहते हैं, “इन गठबंधन सहयोगियों को खुश रखने के लिए तयशुदा स्कीम्स के तहत ज्यादा धन आवंटित किया जा सकता है."
इस तरह, JD(U) और TDP जैसे गठबंधन सहयोगियों के विदेश नीति के बजाय घरेलू राजनीति को मिल-जुलकर चलाने की संभावना है.
वैसे, दूसरे लोगों का कहना है कि मोदी सरकार विदेश नीति के मामले में गठबंधन सहयोगियों से बहुत ज्यादा सलाह नहीं करेगी, लेकिन कुछ हद तक “बारीकियों” पर चर्चा की जा सकती है.
वाशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन ने द क्विंट को बताया:
“मोदी की हिंदू राष्ट्रवाद को सॉफ्ट पावर के लिए एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने की इच्छा जैसे कुछ मुद्दों– जो उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान शुरू किए थे– के मामले में बीजेपी के गठबंधन सहयोगियों से कुछ विरोध का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर, खासकर JD(U) और TDP हिंदुत्ववादी पार्टी से वैचारिक रूप से अलग हैं. इन मायनों में कि उनका नजरिया धर्मनिरपेक्ष है और शायद भारत द्वारा अपनी विदेश नीति को आगे बढ़ाने में मदद के लिए धर्म के इस्तेमाल का विचार उन्हें पसंद न आए.”
मजबूत विपक्ष की मौजूदगी में विदेश नीति के लिए इसका क्या मतलब है
एक और फैक्टर जो भारत की विदेश नीति निर्माण पर असर डाल सकता है, वह है 18वीं लोकसभा में पहले के मुकाबले मजबूत विपक्ष.
INDIA गठबंधन ने 2024 के आम चुनावों में 234 सीटों का शानदार जीत हासिल की है. गठबंधन में खुद कांग्रेस के 99 सांसद शामिल हैं– 2019 में यह गिनती सिर्फ 52 थी. इसका मतलब यह है कि NDA संसद के दोनों सदनों में एकतरफा तौर पर कानून पारित नहीं कर पाएगा या विपक्ष को साथ लिए बिना विदेश नीति के महत्वपूर्ण फैसले नहीं ले पाएगा.
हिमांशु रॉय कहते हैं, “इस बार विपक्ष के मजबूत होने के मद्देनजर सरकार की विदेश नीति, तालमेल और बहस में कुछ मामूली बदलाव हो सकते हैं.”
विदेश नीति के मुद्दों पर परंपरागत रूप से संसद में शायद ही कभी, युद्ध के समय को छोड़कर– बहस होती रही है. जब भी उन पर बहस होती, तो चर्चा के लिए बहुत कम समय दिया जाता था क्योंकि घरेलू मुद्दे विदेश नीति के मामलों से कहीं ज्यादा होते थे.
मगर 2020 में गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़पों के बाद यह पैटर्न बदलना शुरू हो गया. झड़पों के बाद खासतौर से कांग्रेस जोश में आ गई और उसने मोदी सरकार पर बीजिंग को “क्लीन चिट” देने का आरोप लगाया. संसद में इस मुद्दे पर बहस करने की कांग्रेस की लगातार मांगों को भी बार-बार खारिज कर दिया गया.
अब 99 सांसदों के साथ कांग्रेस एक बार फिर चीन के मुद्दे को उठा सकती है. अगर INDIA गठबंधन– जिसमें लोकसभा का 44 फीसद हिस्सा शामिल है– ऐसा करता है, तो सरकार के लिए बहस की मांग को नजरअंदाज कर पाना बहुत मुश्किल होगा.
कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने मेनिफेस्टो में कहा था कि अगर वह सत्ता में आते हैं, तो वे चीन के साथ सीमा पर यथास्थिति बहाल करने और अतीत में दोनों सेनाओं की गश्त वाले इलाकों को फिर से भारतीय सैनिकों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में काम करेंगे.
माइकल कुगेलमैन ने क्विंट से कहा..
“मुझे लगता है कि जोश से भरा विपक्ष सीमा पर- कुछ ऐसे हालात जिससे भारत जूझ रहा है- चीन को रोकने को और ज्यादा प्राथमिकता देगा. विपक्ष इस कदर उत्साहित है, जैसा एक दशक में कभी नहीं था, और चीन के मुद्दे सहित सभी मोर्चों पर सरकार पर दबाव बनाकर इन हालात का फायदा उठाने की कोशिश करेगा. मोदी के घटे हुए जनादेश और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए, वह कुछ फौरी बढ़त हासिल करने के मौके की तलाश में हैं. और यह न केवल घरेलू बल्कि विदेशी मोर्चे पर भी लागू होता है. मुझे लगता है कि बढ़त हासिल करने का एक तरीका यह दिखाना है कि भारत चीन को जवाब देने की स्थिति में है.”
चीन और कुछ दूसरे मुद्दों के अलावा केंद्र सरकार और विपक्ष के बीच प्रमुख विदेश नीति के दृष्टिकोण पर मोटे तौर पर द्विदलीय सहमति है, जैसे कि पाकिस्तान के प्रति प्रतिक्रिया, ‘एक्ट ईस्ट’ नीति या ‘नेबरहुड फर्स्ट’– जिसे बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, भूटान और नेपाल के नेताओं के मोदी मंत्रिमंडल के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद और बढ़ावा मिला.
क्या अतीत में संसद के दबाव में विदेश नीति में बदलाव किया गया है?
ऐसी कई मिसालें हैं जो बताती हैं कि गठबंधन सरकारों को विपक्ष के दबाव या गठबंधन में फूट के चलते अपनी विदेश नीति के नजरिये में बदलाव करना पड़ा, या कम से कम उसमें आंशिक रूप से बदलाव करना पड़ा है.
इसकी एक मिसाल दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार की है. जब 2003 में अमेरिका के नेतृत्व में 42 देशों के गठबंधन ने इराक पर हमला किया, जिससे एक युद्ध शुरू हुआ जिसे दूसरे खाड़ी युद्ध के नाम से जाना जाता है, तो वाजपेयी सरकार अमेरिका के खिलाफ सख्त रुख न अपनाकर ‘मध्य मार्ग’ अपनाने चाहती थी ताकि अमेरिकी सरकार को नाराज न किया जाए.
मगर संसद ने इराक में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की निंदा करने वाले प्रस्ताव पर जोर दिया. 269 सांसदों वाले NDA के पास इसे मानने के अलावा कोई चारा नहीं था.
एक और मिसाल है जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार ने 2008 में एक महत्वपूर्ण परमाणु सौदे के लिए अमेरिका के साथ बातचीत के वास्ते इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) से संपर्क करने का फैसला किया.
लेफ्ट फ्रंट के सभी 59 सांसदों– जिन्होंने सौदे का पुरजोर विरोध किया– ने UPA से अपना समर्थन वापस ले लिया. इससे 22 जुलाई, 2008 को अविश्वास प्रस्ताव आया, जिस पर मनमोहन सरकार क्षेत्रीय दलों के समर्थन से सिर्फ 19 वोटों से बच पाने में सफल रही.
सिर्फ गठबंधन सरकारों को ही मजबूत विपक्ष और गठबंधन के सहयोगियों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है, बल्कि पूर्ण बहुमत वाली सरकारों को भी इसका सामना करना पड़ा है.
उदाहरण के लिए 1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन के हाथों अपमानजनक हार का सामना करने के बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार को विपक्ष की ओर से काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था. उस समय 508 सदस्यीय लोकसभा में 361 सदस्यों के विशाल बहुमत के बावजूद नेहरू को अपने रक्षा मंत्री और करीबी साथी वीके कृष्ण मेनन को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.
वैसे इसका मतलब यह नहीं है कि विदेश नीति में गठबंधन बाधा ही बनता है. अतीत में कई गठबंधन सरकारों के तहत ही भारत अपने कुछ सबसे साहसिक फैसले लेने में सक्षम रहा है.
इसके कुछ उदाहरणों में शामिल हैं- 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली अल्पमत कांग्रेस सरकार द्वारा LPG (लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) सुधारों को लागू किया गया; 1998 में वाजपेयी के नेतृत्व में पोखरण में न्यूक्लियर टेस्ट, जिसने भारत को परमाणु संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित किया; और 1990 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करना– यह ऐसा फैसला था जिसने भारत में जातिगत राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
(द क्विंट में, हम सिर्फ अपने पाठकों के प्रति जवाबदेह हैं. सदस्य बनकर हमारी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाएं. क्योंकि सच का कोई विकल्प नहीं है.)
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