World Breastfeeding Week: हर साल 1 से 7 अगस्त तक दुनिया भर में ब्रेस्ट फीडिंग वीक मनाया जाता है. इस लेख में हम जानते हैं ब्रेस्ट फीडिंग से जुड़े हुए कुछ सामाजिक और पारिवारिक दवाबों और उससे जुड़ी मानसिक स्थिति के बारे में.
30 वर्षीय अनिंदिता रॉय (बदला हुआ नाम) को यह जानकर गुस्सा आया कि वह अपने बच्चे के लिए पर्याप्त स्तन का दूध नहीं बना पा रही थीं. "मैं बहुत कोशिश कर रही थी. मैं गैलेक्टागॉग ले रही थी, मेरा आहार बहुत नियंत्रित था, बच्चा जब मांगे तब दूध पिला रही थी और साथ ही पंप भी कर रही थी. लेकिन कुछ भी पर्याप्त नहीं लग रहा था," वह याद करती हैं.
रॉय ने अपने पीडिअट्रिशन से बात की, जिन्होंने सलाह दी कि बच्चे की जरूरत पूरी करने के लिए फार्मूला का दूध भी दिया जाए. यह सुनकर रॉय का दिल टूट गया.
"मुझे लगा जैसे कि मैं एक बुरी मां थी."
हालांकि, उनका परिवार सपोर्ट कर रहा था, थोड़ा निराश भी था. वह कहती हैं, "ऐसा लगता था जैसे शिशुओं को फार्मूला दूध पिलाना बहुत बुरी बात है. ऐसा करने से उनका विकास ठीक से नहीं होगा या उन्हें वह पोषण नहीं मिल पाएगा, जिसकी उन्हें आवश्यकता है." रॉय कहती हैं कि उनके आस-पास के दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी उन्हें ऐसा ही महसूस कराया.
रॉय को अपने प्रति गुस्सा महसूस हुआ जिसके साथ वह डील नहीं कर पा रही थीं. एक थेरेपिस्ट से बात करने के बाद ही वह अपने गुस्से से उभर पायीं.
रॉय की कहानी कई माताओं की हो सकती है, जिनमें से कुछ सामाजिक और पारिवारिक दबावों के आगे झुक जाती हैं और अन्य जो इन मानदंडों के खिलाफ लड़ने का विकल्प चुनती हैं. मानदंड कई स्तरों पर हैं लेकिन उन सब का मतलब एक है - स्तनपान मां की जिम्मेदारी है और उसे बिना सवाल पूछे यह करना है.
हालांकि स्तनपान महत्वपूर्ण है और एक नई मां की एक बड़ी जिम्मेदारी है, इस समय जो बाकी सब कुछ चल रहा होता है, उन सबके साथ स्तनपान के दबाव से बहुत ऐंजाइयटी हो सकती है, जो क्रोध में बदल सकती है.
सामाजिक ड्रामा
दिल्ली की रहने वाली शिखा शाह (बदला हुआ नाम) अपनी बेटी को दूध पिलाने के कठिन समय के बारे में बताती हैं, जिसे डिलवरी के कुछ सप्ताह बाद ही टाइफाइड हो गया था, “मेरे पास दूध पहले ही कम था और ऊपर से मेरी बेटी एक सप्ताह तक NICU में थी. जिसके कारण जब वह बाहर आयी तो उसे दूध पिलाने में और समस्याएं हुईं.
दूध बढ़ाने के लिए मैंने पहले रात में पंप करना शुरू किया और बाद में पूरे समय पंप करती थी. यह महीनों तक चला और मुझे जब भी मौका मिलता था, अगर हम बाहर भी निकले थे, तो मैं पंप कर रही होती थी.” शिखा ने अंत में फीडिंग और पंपिंग के बारे में अपनी चिंता से निपटने के लिए डॉक्टर से बात की.
दिल्ली स्थित मनोचिकित्सक दीप्ति दिव्या, जो पोस्टपार्टम सपोर्ट इंटरनेशनल की को-कोऑर्डिनेटर भी हैं, बताती हैं, “परिवार से समर्थन और मदद मिल सकती है, लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि बच्चे के लिए मां प्राथमिक देखभाल करने वाली और आराम का स्रोत है.
इस कारण मां खुद पर ध्यान देना छोड़ देती है और हर समय केवल बच्चे पर ध्यान देती है, जो उस पर निर्भर है. सार्वजनिक स्थान पर दूध पिलाने में बहुत कम महिलाएं कम्फर्टेबल होती हैं - समाज अभी भी इसे हीन भावना से देखता है और लोग अक्सर दूध पिलाती मां को घूरते हैं.
कोई बंद जगह भी नहीं होती है, जहां वह अपने बच्चे को शांति से दूध पिला सके. साथ ही, दूध की मात्रा कम होने से मां पर दबाव बढ़ता जाता है और बच्चा अक्सर भूखा रह जाता है. ये सारे विचार मां के मन में होते हैं और अगर मां इसके साथ सही तरह से डील न करे, तो उसके मन में निराशा, डिप्रेशन और क्रोध पैदा हो सकता है.”
भरी हुई हैं गलतफहमियां
सुनीता लाड (बदला हुआ नाम) को दूध पिलाने और दूध की आपूर्ति में भी कठिनाई होती थी और उन्होंने इससे डील करने के लिए डिजिटल मीडिया की मदद लेने की कोशिश की. वह याद करती हैं कि जब उन्होंने अपनी समस्याओं के बारे में एक फेसबुक ग्रुप पर पोस्ट किया और पूछा कि क्या उन्हें पंप करना चाहिए या फॉर्मूला दूध का सहारा लेना चाहिए, तो समूह के प्रतिभागियों ने इस तरह से जवाब देना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें स्तनपान जारी रखने के लिए दबाव महसूस हुआ.
"मैं समूह पर जवाब देखकर रोने के कगार पर आ गई थी. ग्रुप के एडमिन और सदस्यों ने ऐसे बात की जैसे पंपिंग या फॉर्मूला बच्चे के लिए हानिकारक हो सकता है और जैसे कि मैं एक मां के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही हूं.”
लाड कहती हैं, “मैं ग्रूप से बाहर हो गयी क्योंकि उसमें बहुत अधिक टॉक्सिसिटी थी. उस समूह के सभी लोगों ने एक आम धारणा साझा की कि स्तनपान सबसे प्रामाणिक तरीके से होना चाहिए, और तब तक किया जाना चाहिए जब तक बच्चा इसकी मांग करता है, चाहे वह एक वर्ष से भी अधिक समय तक क्यों न हो.
वे उन महिलाओं को सेलिब्रेट करते थे, जिन्होंने अपने बच्चों को दो या तीन साल तक दूध पिलाया. कुछ ने तो अपने बच्चों को सात या आठ साल की उम्र तक दूध पिलाया. यह सब सुन कर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने बच्चे से उतना प्यार नहीं करती."
निरूला ने इस पर अपना दृष्टिकोण साझा करते हुए कहा कि माताओं से ‘परफेक्ट होने’ और 'बलिदान करने' की अपेक्षा की जाती है, जो अक्सर समस्या का कारण बन जाता है.
"मां को अपने बारे में बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए. उसे अपने बच्चे की खातिर किसी भी तरह के दर्द या परेशानी को सहन करना चाहिए. अगर मां रोती है या शिकायत करती है तो, लोग उसे जज करते हैं. इन सब से मां स्ट्रेस्ड और डिप्रेस्ट हो जाती हैं, और इससे उनका दूध भी कम हो जाता है.”
तुलना करना
डिमांड फीडिंग भारत में आम परंपरा है, जो दूध की मात्रा को नई माताओं के लिए अप्रूवल का स्रोत बनाती है. परिवार भी इसे बहुत महत्व देता है और मां को गैलेक्टगॉग का सेवन करने के लिए मजबूर करता है.
"कई बार सास या रिश्तेदार नई मां के स्तनपान के अनुभव की तुलना अपने खुद के अनुभव से करती हैं और अनचाही सलाह या टिप्पणी देते हैं, जिससे मां फ्रस्ट्रेट हो सकती है," डॉ निरूला कहती हैं.
उनका मानना है कि भारतीय परिवारों में ब्रेस्टफीडिंग को लेकर काफी ड्रामा होता है. “बच्चे को दूध पिलाने पर सबका ध्यान केंद्रित रहता है, जिससे मां में इरिटेशन बढ़ जाती है क्योंकि उसके पास और कुछ करने के लिए समय नहीं होता है. स्तनपान एक ऐसी गतिविधि है, जो मां को बच्चे से बांधती है और अगर परिवार वाले हमेशा मां की दूध की आपूर्ति की तुलना दूसरों से करते रहेंगे, तो यह निश्चित रूप से स्ट्रेस का कारण बनता है.” निरूला कहती हैं कि दूध पिलाने का पोजीशन, पीठ दर्द आदि सभी चीजें मां का तनाव बढ़ाती हैं.
दिव्या कहती हैं कि परिवार द्वारा मां के दूध की आपूर्ति या उसके द्वारा लिए गए निर्णयों की तुलना दूसरों से करना अवास्तविक है क्योंकि जब एक मां बच्चे को जन्म देती है तो उसके शरीर में बहुत सारे हार्मोनल परिवर्तन होते हैं. और हलांकि बायोलॉजिकल परिवर्तनों को मैनेज किया जा सकता है, स्तनपान को लेकर होने वाला ड्रामा मानसिक तनाव को बढ़ाता है, जिसका मुकाबला करना महिला के लिए मुश्किल हो जाता है.
"तुलना और अनचाही सलाह मां का गिल्ट बढ़ाती हैं, जो महिलाओं में असहायता की भावना पैदा करता है और आगे चलकर क्रोध या डिप्रेशन बन जाता है,” वह कहती हैं.
वह आगे कहती हैं कि मां को बहुत चिंता होती है क्योंकि उसके जीवन में कई बदलाव हो रहे होते हैं - गर्भावस्था के दौरान उसके ऊपर सबका ध्यान होता है, जो अचानक चला जाता है और वह इस कारण दबाव अनुभव करती है.
"शरीर की छवि के मुद्दे, समय प्रबंधन के मुद्दे और सेक्स की कमी पति के साथ उसके रिश्ते को प्रभावित करती है - मां इस बारे में कोई बात नहीं करती है और सतह पर, वह प्रोजेक्ट करती कि सब कुछ ठीक है. परिवार का सहयोग हो सकता है और हो सकता है कि वह कोई शिकायत न करे, लेकिन वह खुद को परफेक्ट होने के लिए पुश करती है. स्तनपान को लेकर बहुत अनप्रेडिक्टबिलिटी भी हो सकती है, जिससे तनाव होता है क्योंकि मां आराम या ‘माई टाइम’ की योजना नहीं बना पाती.”
मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता
डॉ. देबमिता दत्ता, एक बेंगलुरु की पेरेंटिंग कंसल्टेंट, व्यक्तिगत स्तर पर स्तनपान को अच्छी तरह से मैनेज करने के लिए कुछ सुझाव देती हैं:
बच्चे की देखभाल के पहले कुछ महीनों के लिए माता-पिता दोनों को सही उम्मीदें निर्धारित करने के लिए प्रीनेटल क्लास में भाग लेना चाहिए. मैं आपको आश्वस्त कर सकती हूं कि सामान्य क्या है इसके बारे में सीखना और उसमें आपकी भूमिका क्या होगी, यह समझना आगे चलकर चिंता को काफी कम कर सकता है. क्लास में कठिन महीनों के दौरान थकावट को कम करने के तरीकों के बारे में भी पता चलता है.
पर्याप्त शारीरिक, लोजिस्टिकल, भावनात्मक और सामाजिक समर्थन होना महत्वपूर्ण है. यदि संभव हो तो नई मां को इस दौरान केवल बच्चे को स्तनपान कराने और उसके साथ बॉन्ड करने पर ध्यान देना चाहिए. बच्चे के रोने के बारे में उससे सवाल नहीं किया जाना चाहिए. यह सामान्य है. उसे जज नहीं किया जाना चाहिए. उससे अच्छे दिखने और मेहमानों का स्वागत करने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए.
मां को उन शारीरिक समस्याओं के लिए सहायता मिलनी चाहिए जिनसे वह पीड़ित हैं - जैसे कब्ज, असंयम, पीठ दर्द और भी कई बातें.
इसके अलावा, डॉ मेघना सिंघल, एक क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित सकारात्मक पेरेंटिंग कोच सलाह देती हैं:
पति और बाकी परिवार वाले कई तरीकों से सहायता दे सकते हैं: मां को उसके पालन-पोषण के विकल्पों (जैसे, स्तनपान बनाम बोतल का दूध) के लिए जज नहीं करना, उसकी नई भूमिका को संभालने में मां का समर्थन करना (जैसे, सप्ताह के कुछ दिनों में रात में बच्चे की देखभाल करने की पेशकश करना), और उसे अपनी भावनाओं को साझा करने में मदद करना (उदाहरण के लिए, उसे बताना कि उसका गुस्सा और आक्रोश सामान्य है और खारिज करने के बजाय उसकी भावनाओं को स्वीकार करना).
इसके अलावा, जब वह क्रोध या हताशा दिखाए, तो परिवार के सदस्य उस पर जवाबी हमले करने या उसे यह महसूस कराने के बजाय कि वह 'ओवररिएक्ट' कर रही है, मां को शांत करने में मदद करके अंडरस्टैंडिंग प्रदर्शित करने में मदद कर सकते हैं.
पति और परिवार बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जीवनशैली में बदलाव करने और बनाए रखने में भी मां की मदद कर सकते हैं, जैसे कि एक संतुलित आहार खाना, आराम करना, व्यायाम करना और खुद के लिए समय निकालना.
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