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Crime Show क्यों हैं पॉपुलर? लोगों के लिए कितने खतरनाक, क्या कहते हैं एक्सपर्ट

फिट ने सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम शो के दर्शकों पर असर के बारे में मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट से बात की.

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फिट
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(चेतावनी: इस लेख में हिंसा के विवरण हैं. दर्शकों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है.)

ये शो खून-खराबे से भरे हैं, ये विवादास्पद हैं. इनमें से लगभग सभी की सेक्स असाल्ट के मुजरिमों और हत्यारों का महिमामंडन (glorification) करने के लिए आलोचना की जाती है. फिर भी सच्ची घटनाओं पर बने क्राइम शो दर्शकों को पसंद आ रहे हैं.

हाल ही में नेटफ्लिक्स (Netflix) पर मॉन्स्टर: द जेफरी डामर स्टोरी (Monster: The Jeffrey Dahmer Story) में मुजरिम की कहानी दिखाने और इसके लिए पीड़ितों के परिवारों की रजामंदी लिए बिना इस तरह के शो को लेकर फिर से तीखी आलोचना हुई.

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डामर को 1978 से 1991 के बीच 17 लोगों की हत्या करने के लिए जाना जाता है और उसकी कहानी ने इस साल नेटफ्लिक्स के सबसे लोकप्रिय शो में जगह बनाई है, जिसे 30 करोड़ घंटे से ज्यादा देखा गया है.

लेकिन दीवानगी सिर्फ डामर के लिए नहीं है; टेड बंडी फाइल्स (Ted Bundy Files) से लेकर हाउस ऑफ सीक्रेट्स (House Of Secrets:): द बुराड़ी डेथ्स (The Burari Deaths) बजफीड’स अनसॉल्व्ड (Buzzfeed’s Unsolved): ऐसे “बेहद विस्तार वाले, बेहद हिंसक” जुर्म की सच्ची कहानियों के शो की गिनती बढ़ रही है.

तो, कौन सी बात दर्शकों को जुर्म की सच्ची कहानियों पर बने क्राइम शो से बांधें रखती है? खून-खराबे के दृश्य दर्शकों की मेंटल हेल्थ पर कैसा असर डाल रहे हैं?

बहुत से लोगों के लिए, सच्ची घटनाओं पर बने क्राइम शो जुर्म से मुकाबला करने के लिए सावधान करते हैं

23 वर्षीय मीडिया प्रोफेशनल वर्षा सिंह ने अपने स्कूल के दिनों में ट्रू क्राइम शो देखना शुरू कर दिया था. वह इन्हें स्ट्रेस बस्टर मानती हैं, जिससे उन्हें अपनी परीक्षाओं के दौरान गहरे दबाव से निजात पाने में मदद मिलती थी.

दूसरी तरफ 24 वर्षीय रुजुता थेटे जो कि एक फैक्ट-चेकर हैं ने 2018 में सच्ची घटनाओं पर बने क्राइम शो देखना शुरू किया, जब ट्रुथ एंड लाइज: द फैमिली मैंसन (Truth and Lies: The Family Manson) नाम की एक डॉक्यूमेंट्री सीरीज देखने के बाद, नेटफ्लिक्स के एल्गोरिथ्म ने उन्हें ज्यादा से ज्यादा ऐसे शो का सजेशन देना शुरू कर दिया.

लेकिन उनका रुझान धीरे-धीरे बढ़ता गया जब उन्होंने महसूस किया कि इससे उन्हें “दुनिया के खतरों” के बारे में ज्यादा जागरूक होने में मदद मिलती है. केस को किस तरह हल किया जाएगा, इसकी उत्सुकता ने उन्हें इसकी तरफ खींचा, लेकिन इससे भी खास बात यह है कि इन शो से उन्हें मुजरिमों के दिमाग में झांकने का मौका मिला.

“मेरे लिए सबसे दिलचस्प बात यह है कि जब मुजरिम अपने जुर्म को कबूल कर रहे होते हैं, तो उन्हें कोई पछतावा नहीं होता. इससे आपको समझ में आता है कि उनके दिमाग कितने अजीब तरीके से अलग हैं.”
रुजुता थेटे, फैक्ट-चेकर
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गाजियाबाद में रहने वाली शिरीन खान को लगता है कि केस का कैसे पर्दाफाश कैसे किया जा रहा है, यह जानने की दिलचस्पी से ज्यादा, उन्हें सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम ड्रामा देखने से अनजाने डर का सामना करने में मदद मिलती है.

वह कहती हैं, “मुझे इन शो को देखने के लिए लुभाने वाली बात यह भी है कि मैं उस घटना के बारे में जानती हूं. मैं लोगों को उस डरावनी घटना के बारे में विस्तार से बताता सुनने/देखने के लिए उत्सुक होती हूं.” 

भले ही वह मुजरिमों की हरकतों से नफरत करती हैं, मगर वह ये जानने के लिए भी उत्सुक हैं कि सीरियल किलर के दिमाग कैसे काम करते हैं. वह कहती हैं, “यह मेरी इस सोच को पक्का करता है कि आप किसी पर यकीन नहीं कर सकते.”

मगर लोगों को कौन सी बात ऐसे शो की ओर लुभाती है? क्या कहना है एक्सपर्ट का

दिल्ली में कंसलटेंट मनोचिकित्सक डॉ. उमंग कोचर का कहना है कि लोगों का सच्ची घटनाओँ पर आधारित शो की तरफ आकर्षित होना असामान्य नहीं है, क्योंकि ये हमारे बुनियादी स्वभाव– रोमांच, डर, आतंक, वासना और सेक्स से दूर से भी जुड़ी चीजों से जोड़ते हैं, और हमें देते हैं एड्रेनेलीन रश (एड्रेनल ग्लैंड से एड्रेनेलीन रिलीज होने पर एक्साइटमेंट का अहसास).

ये शो हमारी संवेदनाओं में खून-खराबे का अहसास भर देते हैं. वह कहते हैं, “नाटकीयता, नकारात्मकता एक ऐसी चीज है, जो लोगों को इससे बांधे रखती है. यह लगभग वैसा ही है जैसा कि नियंत्रित हालात में बिना किसी खतरनाक अंजाम के असल चीज तक पहुंचना हो सकता है.” 

मगर वह शिरीन खान की बात से सहमत हैं.

बहुत से लोग आने वाले समय में खतरों के लिए खुद को तैयार करने के लिए ये शो देखते हैं. इसके अलावा इस बात से भी सुकून मिलता है कि केस सुलझ गया और मुजरिम कानून के शिकंजे में आ गया. इससे कानून-व्यवस्था पर भरोसा पक्का होता है.

मनोवैज्ञानिक डॉ. भावना, डॉ. उमंग कोचर की इस बात से सहमत हैं कि एपिसोड/सीरीज के अंत में बुराई पर अच्छाई की जीत देखना लोगों के लिए राहत देने वाला हो सकता है. लेकिन वह कहती हैं कि उत्सुकता की भावना और रहस्य का एलिमेंट ही लोगों को बांधे रखता है. इसके अलावा यह समझने की कोशिश करना रोमांचकारी है कि वो लोग कौन थे और उन्होंने जो कुछ भी किया, ऐसा क्यों किया.
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दिल्ली में थेरेपिस्ट मनाली अरोड़ा कहती हैं कि ये शो आपको अपने बारे में अच्छा महसूस करा सकते हैं क्योंकि आप “इतना डरावना देखते हैं कि ज्यादातर लोग इसे देख भी नहीं सकते.”

कहां सीमा तय करनी है?

यह वर्षा सिंह का बहुत पसंदीदा जोनर है, मगर वह तब स्क्रीन पर देखने की हिम्मत नहीं कर पातीं जब किसी की हत्या की जा रही है, चाहे वह इंसान हो या जानवर या जब बहुत ज्यादा खून-खराबा हो.

डेल्ही क्राइम का पहला एपिसोड उनके लिए खासतौर से परेशान करने वाला था, क्योंकि असल घटना उनके घर के पास ही हुई थी.

वह बताती हैं, “इसे देखने के बाद सुबह 3 बजे मैं सभी दरवाजे और खिड़कियां बंदकर रही थी. बस खुद को ठीक, खुद को महफूज महसूस करने के लिए.” 

दूसरी ओर रुजुता थेटे एक अलग तरह की सीमा-रेखा खींचती हैं. वह बताती हैं कि इन शो में दिखाए गए ज्यादातर मुजरिमों का अतीत तकलीफ भरा रहा है और उन्हें इस तरह से दिखाया जाता है कि लगता है डायरेक्टर चाहता है कि आप उनके साथ सहानुभूति रखें.

लेकिन एक दर्शक के तौर पर आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि वे न सिर्फ मुजरिम हैं, बल्कि अगर आप उनके साथ सहानुभूति रखते हैं, तो उनके शिकारों का अपमान भी करेंगे.

रुजुता थेटे बताती हैं कि समय बीतने के साथ वह स्क्रीन पर मारधाड़ या खून-खराबा देखने की आदी हो गई हैं. वह आगे कहती हैं, “मैं एक तरह से संवेदनहीन हो चुकी हूं.” 

डॉ. कोचर का कहना है आपका शरीर और आपका दिमाग सबसे अच्छे गाइड हैं, जो आपको बताएंगे कि कब और कहां सीमा रेखा खींचनी है. वह बताते हैं कि कुछ शारीरिक और मनोवैज्ञानिक निशानियां हैं, जो इशारा देती हैं कि शायद अब आपको एक कदम पीछे हटना चाहिए:

  • अगर आपकी धड़कन तेज होती है, हथेलियों में पसीना आता है, पेट में ऐंठन होती है, कंपकंपी होती है, सांस लेने में तकलीफ होती है या मुंह सूखता है

  • अगर आपको पैनिक अटैक आने लगे हैं या बेचैनी महसूस हो रही है

  • अगर आप लोगों पर भरोसा करना बंद कर देते हैं, शक्की हो जाते हैं या लोगों से चौकन्ना रहने लगते हैं

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डॉ. भावना कहती हैं कि लोग एन्जाइटी (anxiety) ही नहीं बल्कि पैरानोइया (paranoia) का शिकार हो सकते हैं. वह कहती हैं, “केस हल हो जाने के बावजूद, लाचारी और निराशा की भावना पैदा हो सकती है."

मनाली अरोड़ा का कहना है कि अगर आपकी सुरक्षा की भावना बिखर जाती है और आपको हर समय बहुत ज्यादा सतर्क रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है, तो शायद आपको एक कदम पीछे हटना चाहिए.

“लोग यह भरोसा रखना चाहते हैं कि वे सुरक्षित हैं. जब आप इन शो को देखते हैं तो सुरक्षा की भावना कमजोर हो जाती है. वे आपको शिक्षा, ज्ञान, समुदाय और बहुत सी चीजों पर सवाल उठाने पर मजबूर करते हैं, जो आपको इत्मीनान दिलाने वाली हैं. वे आपके बुनियादी यकीन, जैसे कि शिक्षा आपको हर बुरी चीज से बचा सकती है, को हिला देते हैं.”
मनाली अरोड़ा, थेरेपिस्ट

पुरुषों से ज्यादा महिलाएं सच्ची घटनाओं के क्राइम ड्रामा देखती हैं

ढेरों अध्ययन बताते हैं कि पुरुषों की तुलना में ज्यादा महिलाएं सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम ड्रामा देखती हैं. इन्हीं में से एक डर्बी यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन, जिसका शीर्षक ट्रू क्राइम को लेकर हम में दीवानगी क्यों है? कहता है कि ज्यादातर मामलों में इन घटनाओं का महिलाओं का शिकार होना इसकी वजहों में से एक है. लेकिन दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि वे पीड़ितों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती हैं और उनके दर्द से जुड़ाव महसूस करती हैं.

अरोड़ा का कहना है कि आमतौर पर ‘औचित्य’ यह दिया जाता है कि महिलाएं इन शो को देखकर खुद को सुरक्षित करना चाहती हैं, मगर यह आमतौर पर “सबका सामान्यीकरण” है.

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सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम ड्रामा आपराधिक व्यवहार को उभारता है: ऐसा बहुत कम होता है

हम भूल जाते हैं कि हम एक मनोरंजक या रोमांचकारी शो के रूप में जो देख रहे हैं वह किसी पर बीती हकीकत है. डामर के शिकारों में से एक के परिवार के सदस्यों ने एक इंटरव्यू में कहा कि किस तरह “एंटरटेनमेंट मीडिया उनके दर्द को बार-बार कुरेद” रहा है.

वर्षा सिंह का मानना है कि कुछ सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम शो जुर्म और मुजरिम का महिमामंडन करते हैं. वह कहती हैं, “बहुत से लोगों ने टेड बंडी को पसंद किया जो कि डरावना है. उसके बारे में इतने सारे शो क्यों हैं? हम पहले से ही काफी जानते हैं."

लेकिन शिरीन खान का कहना है कि आज सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम शो को जबरदस्त लोकप्रियता मिलने के पहले से ही टेड बंडी मशहूर था, जब लोग अदालत में उसे देखने आते थे और उसे खत लिखते थे. लेकिन वह इस बात से सहमत हैं कि सिर्फ इसलिए कि कुछ मुजरिमों को लोगों ने महिमामंडित किया है, इसका मतलब यह नहीं है कि प्रोडक्शन हाउस भी, पीड़ितों या उनके परिवारों के लिए किसी तरह का सम्मान नहीं रखे.

डॉ. उमंग कोचर का कहना है कि अगर आप लगातार ऐसे शो देखते हैं, तो ये आपको संवेदनहीन बना सकते हैं या आपको जुर्म के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील बना सकते हैं. लेकिन सिर्फ इतना नहीं है. वह आगे कहते हैं:

“अगर आपके व्यक्तित्व में पहले से ही समाज-विरोधी रुझान है, तो सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम शो देखने से आपको आयडिया मिल सकता है और आपकी आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सकता है. लेकिन ऐसा बहुत कम होता है. आमतौर पर ऐसा कभी नहीं होता है.”

सच्ची घटनाओं पर आधारित क्राइम शो स्क्रीन पर लगातार हिंसा दिखाकर इन्हें देखने वाले बच्चों और नौजवानों के लिए इसे सामान्य बना सकते हैं. लेकिन ऐसा कहना कि यह आपराधिक प्रवृत्ति को आगे बढ़ाता है, कल्पना से आगे निकल जाना है.

मनाली अरोड़ा कहती हैं, “ऐसा कहना बात को बढ़ा-चढ़ाकर कहना होगा कि इन शो को देखने से किसी का व्यक्तित्व एक खास झुकाव ले सकता है. यह ऐसा होगा तो वैसा होगा वाला मामला नहीं है.” वह आगे कहती हैं, “एक शख्स में मनोरोगी रुझान(psychopathic tendencies) हो सकती है, लेकिन हो सकता है कि वह मनोरोगी (psychopath) न हो. मुजरिमों के मामले में भी ऐसा ही है.” 

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