उत्तराखंड की स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी अभाव को देखते हुए देहरादून निवासी सामाजिक कार्यकर्ता अभिनव थापर की जनहित याचिका पर नैनीताल हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. कोर्ट ने सरकार को छह हफ्ते में अपना पक्ष रखने का आदेश दिया.
इससे पहले भी नैनीताल हाईकोर्ट ने जुलाई 2021 में जनहित याचिका पर सरकार से एक हफ्ते के भीतर जवाब मांगा था. एक साल बीतने के बाद भी सरकार ने इस पर कोई जवाब नहीं दिया.
प्रदेश की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था
मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र चम्पावत में जिला अस्पताल से 45 किलोमीटर दूर पार्टी ब्लॉक से आई महिलाओं को बीते मंगलवार अल्ट्रासाउंड तक की सुविधा नहीं मिली. वहीं रीठा साहिब में भी पिछले कुछ दिनों से आपात चिकित्सा सेवा 108 की एंबुलेंस खराब है.
उत्तराखंड में पहाड़ों से मैदानी क्षेत्रों या मैदानी क्षेत्रों से दूसरे राज्यों की तरफ पलायन के प्रमुख कारणों में से एक यहां की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था भी है. इन्हीं लचर स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की वजह से हम उत्तराखंड में अक्सर गर्भवती महिलाओं की मृत्यु की खबर पढ़ते रहते हैं. इस जुलाई मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के क्षेत्र खटीमा से 75 किलोमीटर दूर हल्द्वानी रेफर की गई महिला को सरकारी अस्पताल में भर्ती नहीं किया गया था और उसने अस्पताल के गेट पर ही मोबाइल की रोशनी में बच्चे को जन्म दिया था.
कुमाऊं क्षेत्र में हल्द्वानी तो गढ़वाल में देहरादून, ऋषिकेश के अस्पताल ही उत्तराखंड की जनता के लिए मुश्किल हालातों में सहारा होते हैं पर ये अस्पताल भी कई बार उनका साथ नहीं देते. कई बार मरीज इन अस्पतालों में ज्यादा मरीजों की वजह से भर्ती नहीं हो पाते तो कभी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी इन मरीजों को निराश कर देती है.
उत्तराखंड के डॉक्टर भी प्रदेश की व्यवस्था से परेशान हैं और आंदोलन कर रहे हैं.
आंकड़ों में स्वास्थ्य व्यवस्था की कहानी
युवा शोधार्थियों का पिथौरागढ़ में रहने वाला 'उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप' नाम का स्वतंत्र समूह, पिछले 8 महीने से उत्तराखंड की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के वर्तमान हालातों पर शोध कर रहा है. उन्होंने उत्तराखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था पर शोध करते हुए पिछले कुछ महीनों में तीन सौ से अधिक ‘सूचना का अधिकार’ आवेदन पत्रों के माध्यम से अस्पतालों से जुड़ी विभिन्न जानकारी एकत्र की है. साथ ही, उत्तराखंड की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर आयी नीति आयोग, कैग रिपोर्ट एवं अन्य सरकारी-गैर सरकारी रिपोर्ट्स का भी संज्ञान लिया है.
पद रहेंगे खाली तो इलाज कौन करेगा?
उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप द्वारा लिए गए एक आरटीआई से राज्य के सभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसूति/स्त्री रोग विशेषज्ञों की तैनाती के बारे में यह जानकारी मिलती है कि राज्य में प्रसूति/स्त्री रोग विशेषज्ञों के 171 पद हैं, जिनमें से वर्तमान में 78 पद रिक्त हैं.
सबसे ज्यादा रिक्त पदों के संख्या नैनीताल जिले में है. इन रिक्त पदों का असर सीधे तौर पर माताओं और शिशुओं पर दिखना लाजमी है.
3295 शिशुओं की मौत का जिम्मेदार कौन!
उत्तराखंड में बढ़ रहे असुरक्षित प्रसवों पर इस ग्रुप की रिपोर्ट चौंकाने वाले खुलासे करती है. रिपोर्ट के अनुसार मई 2019 से जनवरी 2022 तक उत्तराखंड की 272 एम्बुलेंस वाहनों (108 एम्बुलेंस) में ही 1625 प्रसव हुए.
राष्ट्रीय ट्रेंड्स के विपरीत उत्तराखंड में मातृ मृत्यु और नवजात मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी देखने को मिली है. वर्ष 2016-17 से वर्ष 2020-21 के बीच उत्तराखंड में मातृ मृत्यु की संख्या 798 रही और इसी दौरान 3295 शिशुओं को भी लचर स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की वजह सेइस दुनिया में सांस लेने से वंचित होना पड़ा.
एक पक्ष यह भी
ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के जिला अस्पतालों में वर्ष 2016-17 से वर्ष 2020-21 के बीच सिजेरियन प्रसव की दर चिंताजनक रूप से बढ़ी है. अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य समुदाय ने सिजेरियन प्रसव के लिए आदर्श दर 10-15 प्रतिशत के बीच मानी है, लेकिन जिला महिला चिकित्सालय पिथौरागढ़ में वर्ष 2016-17 से वर्ष 2020-21 के बीच राज्य में सबसे अधिक 25 % से अधिक सिजेरियन प्रसव हुए हैं. पहाड़ों में सिजेरियन प्रसव होने का एक बड़ा कारण वहां अनुभवी डॉक्टरों का न होना भी है.
अपनी एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद उत्तराखंड के अधिकतर डॉक्टर पहाड़ में ड्यूटी नहीं करना चाहते हैं और उनको एमबीबीएस के बाद पहाड़ चढ़ाने के लिए एक बॉन्ड भराया जाता है, जिसमें उन्हें कम फीस के बदले पढ़ाई के बाद कुछ सालों के किए पहाड़ में सेवा देनी अनिवार्य होती है. कुछ डॉक्टर यह बॉन्ड भरने के बावजूद पहाड़ नहीं जाते और जो जाते हैं वह अनुभव के मामले में पुराने डॉक्टरों से कम ही रहते हैं. जिस वजह से थोड़े से भी मुश्किल प्रसव मामलों में यह सिजेरियन या रेफर करने का विकल्प ही चुनते हैं.
एक आपबीती
डीडीहाट निवासी रमेश कहते हैं कि वह अपनी गर्भवती पत्नी को प्रसव पीड़ा होने के बाद सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र डीडीहाट ले गए. जहां शाम पांच बजे पहुंचने के बाद डॉक्टर न होने की वजह से, उसे रात आठ बजे 70 किलोमीटर दूर 108 एम्बुलेंस से जिला महिला चिकित्सालय पिथौरागढ़ रेफर किया गया. प्रसव पीड़ा के बावजूद उनकी पत्नी को कनालीछीना के आसपास बीच रास्ते में ही दूसरी 108 एम्बुलेंस में जाने के लिए मजबूर किया गया.
पिथौरागढ़ पहुंचने पर अस्पताल प्रशासन की तरफ से रमेश को सिजेरियन प्रसव की स्वीकृति के लिए हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. रमेश अस्पताल की इस आदत से परिचित थे और उनका पहला शिशु, पत्नी की नॉर्मल डिलीवरी से ही हुआ था इसलिए रमेश ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. बाद में उनका दूसरा शिशु भी पत्नी की नॉर्मल डिलीवरी से ही हुआ.
आशा कार्यकर्ताओं के ऊपर गर्भवती महिलाओं की देखरेख की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है लेकिन प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं से पांच-छह हजार के मामूली वेतन में बहुत काम की उम्मीद रखी जाती है.
होना तो यह था कि इन लचर स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के ढांचे को मजबूती देने के लिए प्रदेश के अस्पतालों को मिलने वाले अनुदान को बढ़ाया जाना था पर इसके उलट यह लगातार घटाया जा रहा है.
बिगड़ते स्वास्थ्य ढांचे के बीच अनुदान में भी भारी कमी
दिसम्बर 2021 में उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप द्वारा महानिदेशक, चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण से आरटीआई आवेदन के जरिए प्रदेश में स्वास्थ्य निदेशालय से जिला अस्पताल को प्राप्त अनुदान के बारे में जानकारी जुटाई गई. इससे यह मालूम चला कि चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग उत्तराखंड की ओर से जिला अस्पतालों एवं जिला महिला अस्पतालों को दी जाने वाली अनुदान राशि में वर्ष 2015-16 के बाद से लगातार कमी दर्ज की गई है.
साल 2015-16 में इन अस्पतालों को स्वास्थ्य विभाग की तरफ से 29 करोड़ 1 लाख 25 हजार की धनराशि आवंटित की गई थी, यह राशि साल 2018-19 तक घटाते घटाते मात्र 6 करोड़ 49 लाख कर दी गई.
कोरोना से प्रभावित साल 2020-21 में अनुदान की इस राशि को बढ़ाकर 14 करोड़ 72 लाख 50 हजार किया , बावजूद इसके यह राशि साल 2015-16 की अनुदान राशि की लगभग आधी थी.
उत्तराखंड की जनता सालों से स्वास्थ्य व्यवस्था पर सिर्फ वादे ही सुनते आई है और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद लगा रही उत्तराखंड की जनता को इस लचर व्यवस्था में उम्मीद की कोई छोटी चिंगारी मिलना भी मुश्किल पड़ रहा है.
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