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देशभर में बंपर पैदावार के बाद भी किसान इन वजहों से हैं परेशान

ये तीन ऐसे कारण हैं जिन्होंने देश के किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर किया है.

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  • 2016 में भरपूर मात्रा में पैदावार हुई, लेकिन आयात के कारण कुछ फसलों के दामों में 63% तक की कमी आ गई.
  • नोटबंदी के कारण किसानों को कैश की कमी से जूझना पड़ा.
  • अब तक 3.51 लाख करोड़ खर्च करने के बाद भी देश के आधे से ज्यादा किसान खेती के लिए बारिश पर निर्भर रहते हैं.

ये तीन ऐसे कारण हैं जिन्होंने देश के किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर किया है. बता दें कि देश में 9 करोड़ किसान परिवार हैं जो देश की कुल आबादी 54.6 % हिस्सा हैं.

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मध्य प्रदेश में 5 किसानों की मौत के बाद आंदोलन हिंसक हो चुका है. पुलिस की फायरिंग में इन किसानों की मौत हुई थी. किसान अपने फसलों के वाजिब दाम की मांग कर रहे हैं. पहले से ही बोझ में दबे राज्यों के किसान कर्जमाफी की भी गुहार लगा रहे हैं. ऐसे में इंडिया स्पेंड की ये रिपोर्ट बताती हैं कि आखिर क्यों गुस्से में हैं किसान:



ये तीन ऐसे कारण हैं जिन्होंने देश के किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर किया है.
(फोटो: PTI)

कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश में किसानों की जमीन सिकुड़ती जा रही हैं. जहां दुनिया में जमीन जोतने के लिए के लिए प्रतिव्यक्ति 5.5 हेक्टेयर का औसत है भारत में ये बेहद कम है.

साल 1951 से अब तक भूमि जोत की उपलब्धता में 70 फीसदी की गिरावट आई है. 0.5 हेक्टेयर से ये आंकड़ा गिरकर साल 2011 में 0.15 हेक्टयेर तक पहुंच गया है. अनुमान है कि आने वाले दिनों में इसमें और गिरावट आएगी.

ऐसे में कम जमीन होने के नाते और आर्थिक हालात सही न होने के कारण किसान खेती के लिए आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल नहीं कर पाते. श्रमिकों से काम कराने में लागत बढ़ जाती हैं, क्योंकि श्रम की आपूर्ति कम हो रही है. मजदूर शहरों का रूख कर रहे हैं. वहीं कर्ज की समस्या से तो ज्यादातर किसान परेशान हैं. इंडिया स्पेंड ने ये पाया-

1. पैदावर बढ़ी, लेकिन आय कम हुई

2017 मॉनसून के लिहाज से किसानों के लिए बेहतर दिख रहा है. 2014 और 2015 में सूखे के बाद साल 2016 में किसानों को फायदा देखने को मिला था.

बार-बार सूखे के कारण 2014-15 में देश की कृषि विकास दर 0.2% और 2015-16 में 1.2% रही, लेकिन 2016-17 में इस दर में 4.1% की वृद्धि हुई.

महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में अरहर की दाल की खूब पैदावार हुई. लेकिन किसानों को इसकी सही कीमत नहीं मिल सकी है. बता दें कि अरहर की दाल देश के अधिकांश लोगों के लिए प्रोटीन का अहम स्त्रोत है.

अरहर दाल की कीमतें 11 हजार प्रति क्विंटल (दिसंबर,2015) से 63 फीसदी घटकर 3800-4000 क्विंटल पर पहुंच गई. जो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी 20 फीसदी कम है.

मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली एक समिति ने सितंबर 2016 में सिफारिश की थी कि साल 2017 में अरहर की दाल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को 6,000 रुपये प्रति क्विंटल और 2018 में 7,000 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया जाना चाहिए. लेकिन मार्च 2017, तक न्यूनतम समर्थन मूल्य 5050 रुपये प्रति क्विंटल ही रहा जो कमेटी के सिफारिशों से करीब 20 फीसदी कम रहा.

ऐसे में वाजिब दाम नहीं मिलने के कारण और नोटबंदी की मार ने किसानों को अपने पैदावर को अगले सीजन के लिए स्टोर करने और सीजन की तैयारी करने का समय नहीं दिया. नतीजा सामने है.

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2. किसानों को कैश की किल्लत अभी भी दर्द दे रही

नोटबंदी के बाद किसानों को अपने फसलों को बेचने में दिक्कतों को सामना करना पड़ा. किसान अपनी पैदावर को सरकारी केंद्रों पर बेचने से डर रहे हैं, और कम दाम पर ही बाजार में बेच दे रहे हैं.

महाराष्ट्र के कुछ किसानों के मुताबिक अरहर की दाल की बात करें तो सरकारी मंडियों पर इन्हें बेचने में करीब 1 महीना का समय लग जाता है. किसानों का पैसा भी काफी समय तक फंसा रहता है. ऐसे में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए ये तो नहीं कह सकते कि नोटबंदी का पूरा असर जा चुका है.

नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन,2013 के आंकड़ों के मुताबिक, 57% किसान परिवार महाराष्ट्र में कर्ज में है, देश में ये आंकड़ा 52 % का है. इसी कर्ज का असर है कि देश में लगातार किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं. महाराष्ट्र में साल 2015 में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों ने खुदकुशी की, ये आंकड़ा साल 2014 से 7 फीसदी ज्यादा है. इसके बाद कर्नाटक (1,569), तमिलनाडु (1,400) का नंबर आता है.



ये तीन ऐसे कारण हैं जिन्होंने देश के किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर किया है.
(फोटो: AP)

अब जब यूपी सरकार ने 30792 करोड़ का किसानों का कर्ज माफ किया है. मध्यप्रदेश, महराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों पर भी कर्जमाफी का दबाव बन रहा है.

हालांकि, रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कर्जमाफी के निर्णय को सरकारी कर्ज में भार बढ़ाने वाला बताया था. और आशंका जताई है कि कर्जमाफी से राष्ट्रीय बैलेंस शीट पर असर होगा.

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3. 52% किसानों के पास पर्याप्त सिंचाई की सुविधा नहीं

देश के 52 फीसदी किसानों को अब भी सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है. मौसम के लगातार अनिश्चित होते जाने से किसानों पर बुरा असर पड़ा है. जहां सिंचाई के लिए ग्राउंड वाटर का इस्तेमाल होता था अब ग्राउंड वाटर का लेवल भी साल दर साल नीचे ही जा रहा है.

पहले पंचवर्षीय योजना से 11वें पंचवर्षीय योजना के बीच सरकार ने सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर 3.51 लाख खर्च किए. लेकिन किसान अब भी इन्हीं दिक्कतों से जूझ रहा है.

1 जुलाई, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) का शुभारंभ किया. 2015-16 से 2019 तक इसके लिए 50 हजार करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया. नारा दिया गया-

हर खेत को पानी, मोर क्रॉप पर ड्रॉप

लेकिन हालत क्या है इस पर नजर डाले तो पता चलता है कि 2015-16 में सूक्ष्म सिंचाई के लिए एक हजार करोड़ रुपये के एक तिहाई (312 करोड़ रुपये) से भी कम की राशि जारी की गई.

अब बात करें इसके खर्च की तो, 2015-16 में सूक्ष्म सिंचाई के लिए एक हजार करोड़ रुपये के एक तिहाई (312 करोड़ रुपये) से कम की राशि जारी की गई. रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल 2016 तक, 48.3 करोड़ रुपये या 5% से कम, वास्तव में खर्च किया गया था.

(indiaspend.org/ indiaspendhindi.com आंकड़ों पर आधारित, जन हितकारी और गैर लाभदायी संस्था है.)

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