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सृजन घोटाला: कैसे पनपा, कितना बड़ा है ये स्‍कैम? विस्‍तार से समझिए

एक महिला के आत्मनिर्भर बनने और हजारों महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने की कहानी घोटाले की कहानी बन गई.

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बिहार में 700 करोड़ के सृजन घोटाले की जांच में हर रोज नए मोड़ आ रहे हैं. इस घोटाले के तार कई बड़े अधिकारियों से जुड़ने के संकेत मिल रहे हैं. एक नजर डालते हैं बिहार के इस पूरे घोटाले के बैकग्राउंड पर, जो लगभग 10 सालों से चल रहा था.

सोमवार को घोटाले के एक आरोपी नाजिर महेश मंडल की रहस्यमयी तरीके से जेल में मौत हो गई. इस पर आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने ट्वीट कर सृजन घोटाले की तुलना मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले से की है.

साथ ही ये भी आशंका जताई है कि सृजन घोटाला व्यापम से भी ज्यादा बड़ा घोटाला हो सकता है. तेजस्वी ने ट्वीट किया, 'सृजन घोटाले में गिरफ्तार आरोपी जेडीयू नेता के पिता और आरोपी नाजिर महेश मंडल की देर रात जेल में विषम परिस्थितियों मे मौत. व्यापम से भी व्यापक है सृजन.'

महेश की गिरफ्तारी पिछले रविवार को भागलपुर से हुई थी.

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सृजन घोटाले की खुलती परत

एक महिला के आत्मनिर्भर बनने और हजारों महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने की कहानी घोटाले की कहानी बन गई. बिहार का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला चारा घोटाला माना जाता था. लेकिन सृजन घोटाला उससे भी बड़ा घोटाला हो सकता है.

घोटाला जुड़ा है भागलपुर में सृजन नाम के एक एनजीओ से. संस्था का पूरा नाम सृजन महिला विकास सहयोग समिति. इसकी शुरुआत मनोरमा देवी ने साल 1993-94 में की थी, जिनकी मौत इस साल फरवरी में हुई. मनोरमा देवी की बहू प्रिया कुमार ने इस साल सृजन का काम संभाला. उनके पति और मनोरमा देवी के बेटे अमित कुमार भागलपुर में एक फाइनेंस कोचिंग सेंटर के मालिक हैं.

ये संस्था अब सरकारी अधिकारियों और बैंक कर्मचारियों के साथ कथित तौर पर घोटाले में शामिल है. आरोप है कि पिछले 10 सालों से सरकारी वेलफेयर फंड के रिकॉर्डों से छेड़छाड़ कर 700 करोड़ रुपये का घोटाला किया गया.

सृजन की शुरुआत

दो सिलाई मशीन, 1 कमरे से शुरू हुए काम ने 20 साल में 6000 मेंबर और 60 स्टाफ वाले को-आॅपरेटिव सोसायटी का रूप ले लिया. 24,000 स्क्वायर फीट के सरकारी जमीन पर ये सृजन संस्था चलाई जा रही है.

सृजन महिला विकास सहयोग समिति की शुरुआत के बाद मनोरमा देवी ने गरीब, पिछड़ी और महादलित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अपनी संस्था से जोड़ना शुरू किया. कई स्वयं सहायता समूह बनाए और इन महिलाओं को स्वरोजगार के जरिये अपनी संस्था सृजन से जोड़ने लगीं.

साल 1996 में सहकारिता विभाग में को-ऑपरेटिव सोसायटी के रूप में संस्था को मान्यता मिल गई. साथ ही मनोरमा देवी संस्था में सचिव के रूप काम करने लगीं. को-ऑपरेटिव सोसायटी के रूप में संस्था में काम करने वाली महिलाएं पैसा जमा कराती थीं, जिस पर उन्हें इंट्रेस्ट भी मिलता था. महिलाओं को संस्था लोन भी देने लगी.

आगे चलकर जिलाधिकारी ने एनजीओ को सरकार की जमीन मात्र 200 रुपया महीने पर 35 साल की लीज पर दे दी.

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क्या है घोटाला?

बिहार में जेडीयू-बीजेपी की सरकार में साल 2007-2008 में भागलपुर के सबौर में सृजन को-ऑपरेटिव बैंक खुल जाने के बाद घोटाले का खेल शुरू हुआ. भागलपुर ट्रेजरी के पैसे को सृजन को-ऑपरेटिव बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करने और फिर वहां से सरकारी पैसे को बाजार में लगाया जाने लगा.

2007 में संस्था ने 16 पर्सेंट के इंट्रेस्ट रेट पर बड़ी रकम लोन में देनी शुरू कर दी.

सृजन संस्था के पास बैंक चलाने का अधिकार नहीं था, क्योंकि ऐसा करने के लिए आरबीआई की ओर से लाइसेंस और इजाजत नहीं दी गई थी. को आॅपरेटिव सोसायटी कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि इनके जरिए अधिकतम 50,000 रुपये का लेन-देन किया जा सकता है. 

सवाल यहीं उठता है- बैंक के तौर पर आॅथोराइज्ड नहीं होने के बावजूद ये संस्था इस काम को किसकी इजाजत से कर रही थी?

इस मामले में राशि का गबन न करके संगठित तरीके से सरकारी रकम एक एनजीओ अकाउंट में भेजी गई और फिर इस पैसे का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए किया गया.

2008 में भागलपुर के डीएम की ओर से सिर्फ नेशनलाइज्ड बैंक में गवर्नमेंट फंड जमा कराने आॅर्डर निकाला गया, पर तब तक सृजन के पास काफी पैसा आ चुका था.

ब्लैकमनी का खेल

कई सरकारी विभागों की रकम सीधे विभागीय अकाउंट्स में न जाकर या वहां से निकालकर सृजन के अकाउंट्स में ट्रांसफर कर दी जाती थी. फिर इस एनजीओ के कर्ता-धर्ता, जिला प्रशासन और बैंक आॅफिसर्स की मिलीभगत से सरकारी पैसे की हेरा-फेरी करते थे.

सृजन में स्वयं सहायता समूह के नाम पर कई फर्जी ग्रुप बनाकर उनके अकाउंट्स खोले गए. इन अकाउंट्स को जरिया बनाकर नेताओं और नौकरशाहों का कालाधन सफेद किया जाने लगा. संस्था के जरिए पब्लिक फंड को प्राइवेट अकाउंट में ट्रांसफर करने का खेल चल रहा था.

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कितना बड़ा घोटाला?

अब तक की जांच में ये घोटाला लगभग 700 करोड़ रुपए का बताया जा रहा है. घोटाले की जांच में आए लोग अकूत संपत्ति के मालिक हैं. इसकी एक बानगी मामले में गिरफ्तार महेश मंडल खुद था, जिसकी मौत हो गई. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, गवर्नमेंट वेलफेयर डिपार्टमेंट में क्लर्क के पद पर काम करने वाले महेश के पास अपने गांव जगदीशपुर में 26 कमरे का मकान था. मंडल ने अपने घर की कीमत 1.25 करोड़ रुपये बताई थी.

मंडल बैंक, सरकार और सृजन के बीच एक कड़ी के रूप में काम करता था. उसका काम मनोरमा देवी को ओरिजनल बैंक स्टेटमेंट मुहैया कराना होता था.

मंडल के बेटे शिव मंडल जिला परिषद के सदस्य हैं और जेडीयू के भागलपुर जिला युवा दल के अध्यक्ष हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, मंडल के नाम पर चार ट्रक, चार कार, एक ट्रैक्टर, सात बीघा खेती की जमीन और भागलपुर में जमीन है. पुलिस के अनुसार, मंडल ने पिछले 15 सालों में सृजन से कमिशन के तौर पर 3 करोड़ रुपये कमाए थे.

कैसे चल रहा था घोटाले का खेल?

घोटाले के लिए दो तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा था-

  • फर्जी थर्ड पार्टी डिपॉजिट के जरिए गवर्नमेंट फंड सीधे सृजन के अकाउंट में जमा कराए जाते थे.
  • या फर्जी सिग्नेचर के जरिए डुप्लीकेट चेक जमा कराए जाते थे.

सरकारी डिपार्टमेंट के चेक के पीछे 'सृजन समिति' की मुहर लग जाती थी. इस तरह उस चेक का भुगतान सृजन के उसी बैंक में खुले अकाउंट में हो जाता था. जब भी कभी संबंधित डिपार्टमेंट को अपने अकाउंट स्‍टेटमेंट की जरूरत होती थी, तो फर्जी प्रिंटर से प्रिंट करा कर दे दिया जाता था. इस तरह डिपार्टमेंटल ऑडिट में भी अवैध निकासी पकड़ में नहीं आ पाती थी.

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जांच की शुरुआत

सृजन में घोटाला साल 2008 से ही हो रहा था. 25 जुलाई, 2013 को भारतीय रिजर्व बैंक ने बिहार सरकार से कहा था कि इस को-ऑपरेटिव बैंक की गतिविधियों की जांच करें. साल 2013 में भागलपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी प्रेम सिंह मीणा ने सृजन के बैंकिंग सिस्टम पर सवाल खड़े करते हुए जांच टीम भी गठित की थी.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें पहला मामला 27 सितंबर 2014 का है, जब भागलपुर की ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स ने 12.20 करोड़ रुपये का एक चेक जारी किया. इस चेक को मुख्यमंत्री नगर विकास योजना के तहत पटेल बाबू रोड पर स्थित इंडियन बैंक में जमा किया जाना था, लेकिन बैंक ने इस चेक को सृजन एनजीओ के अकाउंट में जमा किया.

आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि चेक जारी होने के तीन दिन बाद ही सृजन एक को-आॅपरेटिव सोसायटी के रूप में रजिस्टर्ड हुआ था. साल 2008 में इस अमाउंट को थर्ड पार्टी डिपॉजिट के रूप में पेश किया गया, लेकिन बाद में मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के लिए आरबीआई ने इसे अवैध घोषित कर दिया.

वहीं दूसरे केस में भागलपुर प्रशासन ने 1, 3 और 6 सितंबर 2016 को 5.5 करोड़ की कीमत का चेक मुख्यमंत्री नगर विकास योजना के तहत इंडियन बैंक में जमा करने के लिए किया गया. हालांकि उस समय यह फंड सही अकाउंट में जमा हुआ, लेकिन बाद में इसे सृजन एनजीओ के अकाउंट में कथित तौर पर डीएम के फर्जी हस्ताक्षर से चेक के जरिए ट्रांसफर कर दिया गया.

तीसरा केस 10 नवंबर 2016 का है, जब भागलपुर के चीफ मेडिकल ऑफिसर ने 43.52 लाख रुपए के तीन चेक घंटा घर पर स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा के नाम से जारी किए, जिन्हें सरकारी अकाउंट में जमा करना था. यह चेक रिजेक्ट होकर 22 दिसंबर 2016 को वापस हो गया. लेकिन आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि इससे पहले ही उस चेक की राशि सृजन एनजीओ के अकाउंट में ट्रांसफर हो गई थी.

एक के बाद एक ऐसे मामले सामने आने के बाद यह घोटाला चर्चा में आ गया.

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घोटाले ने खड़े किए कई सवाल

  • को- आॅपरेटिव सोसायटी आरबीआई के परमिशन के बगैर बैंकिंग कर सकती है?
  • क्या राज्य सरकार से जुड़ा अधिकारी इसका मेंबर बन सकता है?
  • क्या सृजन बैंक थर्ड पार्टी ट्रांसफर का जरिया बन सकती है?
  • चेक को क्लीयर करने वाले बैंक ने इन ट्रांजैक्शन पर सवाल क्यों नहीं उठाए?
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अब तक की कार्रवाई

अब तक इस सिलसिले में दस एफआईआर हुई हैं, जिनमें से नौ एफआईआर बिहार के भागलपुर में और एक सहरसा जिले में दर्ज हुई है. 12 लोगों की गिरफ्तारी हुई है और उनके अकाउंट्स से लेन-देन पर रोक लगा दी गई है.

राज्य सरकार ने 18 अगस्त को इसकी सीबीआई जांच कराने का फैसला ले लिया.

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