रियो ओलंपिक में पीवी सिंधु, साक्षी मलिक और दीपा करमाकर के शानदार प्रदर्शन और उनके जज्बे को देश में सभी लोग सलाम कर रहे हैं.
सभी इस बात से अपना सीना चौड़ा कर रहे हैं कि देश की बेटियों ने उनका नाम ऊंचा कर दिया. लेकिन नाम ऊंचा करने वाली और गर्व का एहसास कराने वाली इन बेटियों को अक्सर सिर्फ इसलिए कम आंका जाता रहा, क्योंकि वे महिलाए हैं. इस नजरिए ने उनके सफर को और भी ज्यादा टफ बनाया.
हमारा समाज अगर यह न सोचता कि ये लड़कियां हैं और ये घर से बाहर निकलेंगी, तो दुनिया क्या कहेगी, तो शायद उनका यह सफर थोड़ा आसान होता.
मशहूर लेखक प्रसून जोशी ने समाज के इस पूरे रवैये पर अपनी कविता के जरिए तीखी टिप्पणी की है, जिसे उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया. यह कविता अब वायरल हो चुकी है. आप भी देखिए.
ये रही कविता...
शर्म आ रही है ना, उस समाज को जिसने उसके जन्म पर खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना, उस पिता को उसके होने पर जिसने एक दीया कम जलाया
शर्म आ रही है ना, उन रस्मों को उन रिवाजों को उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को
शर्म आ रही है ना, उन बुज़ुर्गों को जिन्होंने उसके अस्तित्व को सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना, उन दुपट्टों को उन लिबासों को जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना, स्कूलों को दफ़्तरों को रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना, उन शब्दों को उन गीतों को जिन्होंने उसे कभी शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना, राजनीति को धर्म को जहां बार-बार अपमानित हुए उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना, ख़बरों को मिसालों को दीवारों को भालों को
शर्म आनी चाहिए, हर ऐसे विचार को जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए, ऐसे हर ख्याल को जिसने उसे रोका था, आसमान की तरफ देखने से
शर्म आनी चाहिए, शायद हम सबको...
क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए नन्ही सी बिटिया सामने खड़ी थी, तब हम उसकी उंगलियों से छलकती रोशनी नहीं, उसका लड़की होना देख रहे थे
उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल. और सब देख रहे थे मटमैला आज.
पर सूरज को तो धूप खिलाना था, बेटी को तो सवेरा लाना था...
...और सुबह हो कर रही.
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