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खामोश नगाड़ों का शोर बहुत है,आज की राजनीति और नौकरशाही की सच्चाई दिखाता नाटक

वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर सटीक बैठता ये नाटक

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18 दिसम्बर को नैनीताल में रंगमंच 'युगमंच' द्वारा गिरीश तिवारी गिर्दा द्वारा लिखे गए नाटक 'नगाड़े खामोश हैं' का मंचन किया गया. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) और एफटीआईआई पुणे जैसे प्रतिष्ठित संस्थान तक पहुंचने के लिए उत्तराखंड के कलाकारों की सीढ़ी 'युगमंच' द्वारा दिखाए गए किसी नाटक को देखने का मेरा यह पहला अनुभव रहा. शैलहॉल के दरवाजे को खोलते ही उसके अंदर अंधेरे में कुर्सियों और जमीन पर बैठकर, नाटक शुरू होने का इंतजार करते 200 के आसपास दर्शकों की संख्या मेरे लिए चौंकाने वाली थी.

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मोबाइल मनोरंजन केंद्र के इस दौर में नाटक के प्रति इतने रोमांच का अनुभव देखते ही बन रहा है था, खास बात ये था कि दर्शकों में बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक हर उम्र के लोग शामिल थे. नाटक की शुरुआत होते ही हेमन्त बिष्ट नाटक के बारे में परिचय देने के लिए खड़े होते हैं, किसी नाटक की खास बात ये होती है कि उसमें दर्शकों और कलाकारों के बीच किसी स्क्रीन की दीवार नहीं होती और दर्शक सीधे कलाकारों से मुखातिब होते हैं.

वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर सटीक बैठता ये नाटक

गिर्दा के इस नाटक को समकालीन बनाने के लिए हिंदी के नामी लेखक शैलेश मटियानी की रचना 'मुख सरोवर के हंस' का प्रयोग किया गया था और विस्तृत नाट्य आलेख प्रदीप पाण्डे ने तैयार किए थे. नाटक की कहानी काली कुमाऊं पर आधारित है तो इसके मंच में पहाड़ सा माहौल बनाने के लिए एक काले पर्दे पर कपड़ों से पहाड़ बना दिए गए, जो नाटक होते आपको काली कुमाऊं के पहाड़ों के बीच बैठे होने का अहसास देते हैं. इसकी तेज कहानी बड़ी रोचक है और एक दृश्य के बाद अंधेरा, फिर दूसरा दृश्य, यह देखकर दर्शकों का ध्यान नाटक से हटता ही नहीं. इस नाटक में एक राजा अपनी रानी पर अंधा विश्वास करता है और उसकी बातों में आकर अपने भरोसेमंद रक्षकों को उनके महल में जलाकर मार देता है. फिर वो रानी पर इतना मोहित हो जाता है कि राज्य के सारे निर्णय रानी पर ही छोड़ देता है. रानी हमेशा अपनी झूठी तारीफ करने वाले लोगों से घिरे रहती है और राजा उसके पास मूक बनकर बैठा रहता है. इन सबके बीच राज्य की जनता अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों से त्रस्त हो जाती है और राज्य डोटी (नेपाल) पर निर्भर हो जाता है, लेकिन जनता को अपने बेहतर भविष्य के लिए एक मसीहा से उम्मीद बाकी है.

ये नाटक आज की राजनीतिक परिस्थितियों पर सटीक बैठता है. ये नौकरशाही की सच्चाई दिखाता है और संयुक्त परिवारों की अहमियत पर भी प्रकाश डालता है. इस नाटक में युवाओं के अंदर नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के कारणों का डीएनए भी किया गया है. नाटकों की खास बात ये होती है कि कलाकारों द्वारा सैंकड़ों बार अभ्यास के बाद जब इसे मंच पर दर्शकों के सामने दिखाया जाता है, तब इसके निर्देशक के पास किसी दृश्य को कट और रीटेक करने का वक्त नहीं होता. इस नाटक में निर्देशक जहूर आलम ने अपने कलाकारों को इस तरह तैयार किया है कि वह मंच पर आते ही छा जाते हैं. संकेतों का प्रयोग बखूबी किया गया है, कलाकारों के हाथ में कमंडल नहीं है पर वो हाथ में कमंडल होने का नाटक करते हैं. यही प्रयोग शीशे की जगह अपने हाथ देखकर भी किया गया है.

नाटक में पहाड़ के गीत, मुहावरे, व्यंग्य, जागर का प्रयोग इसे प्रभावशाली बनाता है और पहाड़ से जोड़े रखता है.

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नाटक की जान सामने बजता ढोलक, बांसुरी, हुड़का, थाली, दमुआ

वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर सटीक बैठता ये नाटक

गीत गाते नाटक के कलाकार

फोटोःअमित साह

नाटक के संगीत का निर्देंशन नवीन बेगाना द्वारा किया गया है. इसकी शुरुआत से ही लगातार बजते अलग-अलग वाद्य यंत्र ढोलक, बांसुरी, हुड़का, थाली, दमुआ, हारमोनियम, शंख, घण्टी शानदार अभिनय के साथ चल रहे नाटक में जान डाल देते हैं. इनकी आवाजों से शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है.ढोलक की आवाज के साथ नैनीताल में यह नाटक देखना अद्भुत है, नैनीताल की ठंड और पहाड़ में होने के अहसास के साथ ये अनुभव जीवन पर्यंत नहीं भुलाया जा सकता. इस अनुभव को किसी भी संचार यंत्र से प्राप्त नहीं किया जा सकता. नाटक के गीत प्रदीप पांडे द्वारा लिखे गए हैं, इसका मुख्य गीत 'समय बदलता है, वक्त का पहिया रुकता नहीं, सदा वो चलता है,' सीधे दिल पर लगता है.

कई कलाकारों में दिखता है सुनहरा भविष्य

युगमंच से प्रशिक्षित होकर कई बड़े कलाकार निकले हैं तो भविष्य में भी इसकी उम्मीद दिखाई देती है. इस नाटक में कुछ कलाकारों ने एक साथ दो तीन किरदारों को निभाते कमाल का अभिनय किया है. लता त्रिपाठी, महिला देव और आम आदमी के रूप में दिखी. उनकी आवाज में भावों के अनुसार कमाल का उतार चढ़ाव है.

रानी रुपाली बनी ज्योति धामी मंच पर चलने के तरीके से किसी रानी के रौब को हूबहू दिखाने में कामयाब रही. रानी रुपाली और राजा कालीचन्द के बीच जितने भी दृश्य हुए, सभी प्रभावित करते हैं. जब रानी राजा को उनके भाइयों के प्रति भड़काती है और कुटिल हंसी हंसती है, वह दृश्य नाटक का सबसे अच्छा दृश्य लगता है.रानी रुपाली की गुस्से में निकली चींख सामने बैठे दर्शकों को सन्न कर देती है.दासी और न्योली बनी अवन्तिका नेगी शर्माने भर से ही दर्शकों की वाहवाही लूट लेती हैं. रानी के राजकवि बने भास्कर बिष्ट संक्षिप्त किरदार में भी अपनी छाप छोड़ गए.

डंगरिया, बफौल और अजवा बफौल बने दीपक टम्टा ने अपने अभिनय से काफी प्रभावित किया, वो अपनी आंखो से ही दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेते हैं.

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संवाद लिखने में हुई मेहनत साफ दिखती और वेशभूषा में पहाड़ दिखता

नाटक के दमदार संवादों की वजह से ही कलाकार खुद को दर्शकों के सामने साबित करने में कामयाब हुए हैं.

रानी रुपाली द्वारा बोला गया संवाद 'इनका सत्कार करेगा मेरा अंगूठा' इसका उदाहरण है. मनुष्य के बारे में लिखा संवाद 'जागता है तो ब्रह्मांड हिला देता है' भी दमदार है.
वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों पर सटीक बैठता ये नाटक

नगाड़े खामोश हैं नाटक की टीम

(फोटोः अमित साह)

नाटक में कलाकारों ने पारम्परिक पहाड़ी वस्त्र पहनें हैं, इन वस्त्रों में हर कलाकार बहुत ही सुंदर लग रहे हैं. लाइट्स में तो ये परिधान और भी चमक उठते हैं. नाटक का सम्पादन बहुत बढ़िया किया गया है,  इसमें कोई भी ऐसा दृश्य नहीं दिखता जिसका होना नाटक में अनावश्यक लगता हो. इस नाटक को इतने सारे पात्रों, घटनाओं के साथ सफलता पूर्वक पूरा करना बहुत ही मुश्किल कार्य है लेकिन इसकी पूरी टीम ने इस मुश्किल कार्य को सम्भव कर दिखाया. इसका होना, इससे मिलने वाले संदेशों को पूरा करने में सहायता देगा और बड़े जोर शोर के साथ देगा.

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