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मंटो को नवाजुद्दीन ने ऐसा जिया जैसे खुद मंटो, फिल्म ऐसी जैसे उस दुनिया का झरोखा

saadat Hasan Manto: नवाजुद्दीन, नंदिता की फिल्म वाकई में मंटो को श्रद्धांजलि थी

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सआदत हसन मंटो वो तरक्कीपसंद लेखक थे जो समाज के लिए गरीबी में रहे, समाज के लिए कोर्ट में मुकदमा लड़ अपनी रचनाओं को हम तक लाए. हमारा भी फर्ज बनता है कि उन्हें पढ़ें और उनके विचारों पर चलें. जिन युवाओं में समाज के लिए कुछ कर गुजरने की लौ जल रही है, उनके लिए साल 2018 में कगार, बवंडर और फॉयर जैसी मशहूर फिल्मों में अभिनय कर चुकी अभिनेत्री नंदिता दास अपने निर्देशन में फ़िल्म 'मंटो' लेकर आई थी. इस फ़िल्म के जबरदस्त छायांकन, संवादों के साथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी और रसिका दुग्गल के अभिनय में इतना दम है कि लोग इसे देख मंटो की सारी रचनाओं को पढ़ डालें.

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मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को पंजाब के समराला में हुआ था और 18 जनवरी,1955 को पाकिस्तान के लाहौर में मात्र 42 वर्ष की आयु में वह इस दुनिया से चले गए. उन्होंने अपने छोटे से जीवनकाल में बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए. मंटों पर उनकी रचनाओं को लेकर पांच मुकदमे चले जो काफी चर्चित हुए.

मंटो के किरदार में कमाल नवाज

नंदिता ने फिल्म का कलर डार्क ही रखा है, फिल्म के सेट और किरदारों के कपड़ों को बिल्कुल ब्रितानी राज के समय की तरह दिखाया गया है. अपने शहर मुंबई छूटने के गम में शराब और सिगरेट को गले लगाए, जबरदस्त संवादों को बोलते मंटो का किरदार नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बखूबी निभाया है.

हर कदम में मंटो का साथ देती उनकी पत्नी सोफिया का किरदार निभाती रसिका दुग्गल ने खुद को सोफिया के रूप में अमर कर दिया. फिल्म में राजश्री देशपाण्डे, परेश रावल, ऋषि कपूर, ईला अरुण, शशांक अरोड़ा और ताहिर भसीन भी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं.

फिल्म में मंटो की कहानी देश की आजादी से शुरू होती है.

देश का बंटवारा हुआ तो मंटो ने हिंदुस्तान में रहना ही चुना, इस बीच उनके स्टूडियो को जलाने की धमकियां भी लगातार मिल रही थी.

उन्हीं दिनों मंटो मुंबई में अपने घर में अपनी पत्नी से कहते हैं 'इसलिए खरीदनी पड़ती है टोपियां. एक हिन्दू टोपी एक मुसलमान टोपी. क्या करें जब मजहब दिलों से निकल सर पर चढ़ जाए तो पहननी पड़ती हैं.'

मंटो के चले जाने के इतने सालों बाद भी आज देश हिन्दू-मुस्लिम तनाव से गुजर रहा है, यह देख बड़ा दुख होता है पर धर्मांधता में डूबे लोगों के लिए मंटो की यह पंक्तियां आंख खोलने वाली हैं. फिल्म में मंटो का किरदार जीते नवाजुद्दीन को देखते समय कब निकल रहा है, दर्शकों को इसका पता भी नहीं चलेगा.

मंटो और उनकी पत्नी को अफसाना बुनते देखना बताता है कि एक लेखक की रचनाओं के लिए उसकी साथी भी महत्व रखती है. यहां ये भी पता चलता है कि मंटो अपने पिता की जगह अपनी मां से ज्यादा प्यार करते थे.
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फिल्म के संगीत पर बिल्कुल ध्यान नहीं जाता क्योंकि मंटो के लिखे हर शब्दों को नवाजुद्दीन ने इस तरह कहा है कि दर्शक बस उन्हें ही ध्यान से सुनते रहेंगे. एक दृश्य में मंटो अपने मरने की बात कहते अपनी पत्नी से कहते हैं-

वो अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफसाना निगार है या खुदा.

भारत छोड़ने और विस्थापितों पर मंटो कहते हैं

वो हड्डियां कहां जलाई या दफनाई जाएंगी, जिन पर से मजहब का गोश्त चीलें नोच-नोच कर खा गई.

मंटो ने जो देखा वही लिखा

मुंबई छोड़ने से पहले मंटो अपने दोस्त अभिनेता श्याम से मुंबई के लिए कहते हैं ' मैं चाहता हूं कि मैं जिंदगी भर इस शहर का कर्जदार रहूं'. इसी समय रेलवे स्टेशन में देश छोड़ रहे लोगों का दृश्य दिखता है और श्याम-मंटो एक दूसरे से बिछड़ते पाकिस्तान जिंदाबाद, हिंदुस्तान जिंदाबाद कहते हैं. यह दृश्य ह्र्दय विदारक है. निर्देशक ने दृश्यों और नवाजुद्दीन की नजरों से ही स्क्रीन पर कमाल का प्रभाव छोड़ा है. लाहौर में जले हुए घर, उनसे सामान समेटते बुजुर्ग. दुकानों का नाम बदलना और विस्थापितों के टैंट, इन सब को देखते मंटो से दर्शकों को यह अहसास हो जाता है कि मंटो जो देखते थे वही लिख देते थे. फिल्म में एक जगह मंटो का संवाद भी है 'मैं वही लिखता हूं जो जानता हूं जो देखता हूं'. कहानी में मंटो और इस्मत चुगताई की दोस्ती को भी बड़ी करीबी से दिखाया गया है.

ठंडा गोश्त

फिल्म में मंटो की ठंडा गोश्त कहानी को बड़े बेहतरीन अंदाज में दिखाया है. रणवीर शौरी और दिव्या दत्ता ने इस लघुकथा के किरदारों को जीवंत कर दिया है.

ठंडा गोश्त कहानी को मंटो ने ऐसे लिखा है जैसे सब कुछ पाठकों की आंखों के सामने चल रहा है.

इस कहानी में एक औरत है जो अपने साथी की जिंदगी में किसी दूसरी औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकती, वह औरत अपने पति पर विश्वास नहीं करती. इस कहानी का मर्द अपने रिश्ते के प्रति जिम्मेदार नहीं है, मंटो ने अपनी इस लघु कथा को कई रंगों से रंगा है और शायद यही इसकी खूबी है.

मंटो को जब इस कहानी को लेकर मुकदमे का सामना करना पड़ा तब उन्हें अपने मुकदमे से ज्यादा इस बात की चिंता थी कि फैज द्वारा उनके अफसाने को लिटरेचर के पैमाने पर पूरा नहीं माना गया है.

टोबा टेक सिंह

फिल्म में मंटो की टोबा टेक सिंह की कहानी भी दिखाई गई है.

टोबा टेक सिंह कहानी में मंटो ने पागलों को एक जरिया बना कर हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के कई पहलुओं को छुआ है. यह वो विचार हैं जो एक आम भारतीय के मन में इस कहानी को पढ़ने से पहले कभी नहीं आए होंगे.

मंटो की सारी रचनाएं इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध हैं, जिन्हें पढ़ युवाओं द्वारा तरक्की के रास्ते को अपने तरीके से खोजा जा सकता है.

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