एक लड़की थी. एक लड़का था. एक शहर था. 80 के दशक का एक बरस था. एक अंगड़ाई थी. कुछ सपने थे. कुछ अपने थे. कुछ जंग थीं जो लड़ी जानी थीं. कुछ जंग थीं जो लड़ी गईं, जीती गईं. लड़की ने लड़के को खुद के कमाए 10 हजार रुपये दिए और चंद दोस्तों के साथ मिलकर इस पूंजी से शुरू हुआ सफर आज दो लाख करोड़ के पार पहुंच चुका है. इस सपने सरीखी कहानी पर यकीन नहीं होता न. पर ये कहानी बताती है कि सपने देखना बहुत जरूरी है. उसे पूरा करने का हौसला रखना उससे थोड़ा ज्यादा जरूरी और उसे पूरा होता देखने के लिए अपना सब कुछ झोंक देना सबसे ज्यादा जरूरी.
लड़की का नाम था सुधा कुलकर्णी. लड़का था एनआर नारायणमूर्ति. शहर था पुणे. साल था 1981. और 10 हजार से दो लाख करोड़ पहुंचने वाली कंपनी बनी इंफोसिस. कैसे पूरा हुआ ये सपना. ये भी पता करेंगे, लेकिन पहले जरा इस लड़की को जान तो लीजिए.
जीतना जिस लड़की की आदत रही
19 अगस्त 1950 को कर्नाटक के शिगगांव में जन्मी सुधा. पिता डॉक्टर थे और मां हाउसवाइफ. पालन-पोषण किसी भी आम भारतीय परिवार की तरह हुआ. लेकिन कुछ ज्यादा नैतिक सबक के साथ. पढ़ाई-लिखाई में ये लड़की बड़े-बड़ों के कान काटती थी. जो पढ़ा, जितना पढ़ा, जहां पढ़ा, सब में अव्वल. इंजीनियरिंग की डिग्री हुबली के कॉलेज से ली. डिग्री भी गोल्ड मेडल के साथ. कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने पहनाया ये गोल्ड मेडल. कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स किया, तो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस जैसे नामी संस्थान से. फिर से क्लास में अव्वल और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स से गोल्ड मेडल. जैसे जीतना इस लड़की की आदत हो.
जब जेआरडी टाटा तक को झुकना पड़ा
सुधा उस वक्त पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थीं. आज के टाटा मोटर्स और तब के टेल्को में इंजीनियरों के लिए नौकरियां निकलीं. सुधा ने इसका एक विज्ञापन अपने इंस्टीट्यूट में भी देखा. इश्तेहार देखकर उनकी त्योरियां चढ़ गईं. उसमें सबसे नीचे लिखा- महिला उम्मीदवारों को आवेदन करने की जरूरत नहीं. सुधा को इस पर बेहद गुस्सा आया. वो क्लास में अपने पुरुष साथियों से कहीं आगे थीं. ये भेदभाव उनसे देखा नहीं गया. उन्होंने सीधे जेआरडी टाटा को एक नाराजगी भरा पोस्टकार्ड भेज दिया. सुधा ने लिखा,
महान टाटा परिवार हर क्षेत्र में अग्रणी रहा है. ये टाटा ही हैं, जिन्होंने देश में आधारभूत उद्योग लगाने शुरू किए. लोहे, स्टील, केमिकल, मोटर कारखाने लगाए. टाटा ने भारत में उच्च शिक्षा की चिंता साल 1900 से की है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना में भी टाटा की मदद रही. सौभाग्य से मैं यहां पढ़ती हूं. लेकिन मुझे ताज्जुब है कि टेल्को जैसी कंपनी लिंग के आधार पर भेदभाव कर रही है.सुधा मूर्ति की जेआरडी टाटा के लिखी चिट्ठी का हिस्सा
10 दिन के भीतर ही सुधा को एक तार मिला जिसमें उन्हें पुणे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. एक इंटरव्यू रखा गया, जिसमें तमाम तकनीकी सवालों के जवाब देने के बाद सुधा मूर्ति को बताया गया कि उन्हें चुन लिया गया है. इसके साथ ही टेल्को में इतिहास बन गया. सुधा मूर्ति टेल्को के लिए चुनी जाने वाली पहली महिला इंजीनियर बन गईं. महज 24 साल की इस लड़की की जिद के आगे जेआरडी टाटा को अपना फैसला बदलना पड़ा.
नारायणमूर्ति से कैसे हुई मुलाकात
ये कहानी काफी दिलचस्प है. सुधा कुलकर्णी के एक दोस्त हुआ करते थे प्रसन्ना जिनके साथ वो बस से ऑफिस तक जाती थीं. प्रसन्ना को पढ़ने का शौक था. जब सुधा उनकी किताबें देखतीं तो पहले पन्ने पर कभी नारायणमूर्ति पेरिस लिखा होता, कभी नारायणमूर्ति काबुल तो कभी नारायणमूर्ति इस्तांबुल. सुधा काफी चौंक गईं. उन्हें लगा कि ये कौन व्यक्ति है जो जगह-जगह घूमता है. प्रसन्ना ने बताया कि नारायणमूर्ति उनके दोस्त हैं और उन्हें घूमने और पढ़ने का शौक है. ये किताबें उन्हीं की हैं. नारायणमूर्ति से सुधा मूर्ति की पहली मुलाकात प्रसन्ना ने ही कराई थी. तारीख थी- 10 अक्तूबर 1974. पहली मुलाकात के लिए ये थोड़ा अजीब था. सुधा मूर्ति के ही शब्दों में उन्होंने नारायणमूर्ति की कुछ और ही कल्पना की थी, लेकिन वो उन्हें एक कॉलेज स्टूडेंट जैसे लगे. हालांकि, धीरे-धीरे दोनों करीब आते गए. पुणे के पार्कों में घूमते. रेस्त्रां में खाना खाते और किसी भी आम जोड़े की तरह आने वाली जिंदगी के सपने बुनते.
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि रेस्त्रां में खाने का बिल ज्यादातर सुधा ही देती थीं. उन्होंने एक नोटबुक भी बनाई थी. जिसमें वो नारायणमूर्ति को दिए जाने वाले उधार का हिसाब रखती थीं.10 फरवरी 1978 को करीबी रिश्तेदारों की मौजूदगी में महज 800 रुपये के खर्च के साथ सुधा कुलकर्णी, सुधा मूर्ति बन गईं. प्यार का रिश्ता पति-पत्नी के रिश्ते में बदल गया. नारायणमूर्ति खुद की कंपनी शुरू करने का इरादा बना रहे थे. सपना बड़ा था. 7 जुलाई 1981 को सात लोगों के साथ एक पुणे में नारायणमूर्ति के घर में ही नींव पड़ी उस कंपनी की जिसने चंद सालों में इतिहास बना दिया. इंफोसिस. कंपनी के लिए शुरूआती 10 हजार की रकम नारायणमूर्ति को सुधा मूर्ति ने दी. दो लोगों का देखा सपना साकार हो उठा.
लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता
सुधा मूर्ति बताती हैं एक रोज अचानक उन्हें ये ख्याल आया कि वो जिंदगी में अब आगे क्या करना चाहती हैं. उम्र 45 के पड़ाव पर खड़ी थी. शुरुआती 25 साल खुद के करियर को ढालने में लगाए और बाकी के इंफोसिस के साथ. एक इंटरव्यू में सुधा मूर्ति कहती हैं, “ईश्वर ने जब हमें पैसा दिया तो उसके पीछे जरूर कोई वजह होगी. वजह ऐसे लोगों को मदद करने की जिन्हें हमारी जरूरत है. यही वजह है कि मैं अपने काम से कभी थकती नहीं. मेरे लिए हर दिन एक छुट्टी है.” इसी सोच के साथ साल 1996 में इंफोसिस फाउंडेशन की नींव पड़ी जो लाखों लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहा है.
सुधा मूर्ति कन्नड़ और अंग्रेजी साहित्य के लिए पहचाना नाम है. उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. जिनमें डॉलर बहू, Wise and Otherwise, Old man and His God,The Day I Stopped Drinking Milk अहम हैं.
सुधा मूर्ति को जन्मदिन मुबारक !
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