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इन्होंने रवीश कुमार का ब्लॉग चुराया: फिर अपने नाम से छपवाया

देहरादून से छपने वाली पत्रिका ने रवीश कुमार के ब्लॉग से चुराए गए आलेख को किसी अन्य लेखक की बाइलाइन के साथ छाप दिया.

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16 दिसंबर 2015 को एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ पर लिखा, “क्या पत्रकारिता का अंत हो गया है?” अगले महीने देहरादून से छपने वाली पत्रिका ‘देहरादून डिस्कवर’ में इसी हेडलाइन के साथ इसी लेख को किसी ‘हरीश मैखुरी’ की बाइलाइन और तस्वीर के साथ जगह मिलती है.

पत्रिका के संपादक दिनेश कंडवाल का कहना है कि उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि वह आलेख चुराया गया है.

वेब की दुनिया में चोरी करना आसान हो गया है. मुझे जानकारी नहीं थी कि वह लेख चुराया गया है. हरीश मैखुरी ने इस वक्त अपना फोन बंद कर रखा है, इसलिए उनसे कोई बात नहीं हुई है. हम पत्रिका के अगले अंक में माफी नामा जरूर देंगे. 
दिनेश कंडवाल, संपादक, देहरादून डिस्कवर

रवीश के इस समय देश से बाहर होने के कारण उनसे बात नहीं हो सकी लेकिन मीडिया आलोचक व रवीश के मित्र विनीत कुमार ने इस बारे में अपनी नाराजगी साफ जाहिर की. उन्होंने कहा कि यह कानूनन तो अपराध है ही लेकिन पेशे के लिहाज से बेहद शर्मनाक है. विनीत ने ही फेसबुक पर भी इस घटना के बारे में लिखा.

जितना बेशर्म संपादक, उतना ही बेशर्म लेखकः रवीश कुमार का लेख, अपने नाम सेराहुल( Rahul Kotiyal) की वॉल से अभी-अभी गुजरा ...

Posted by Vineet Kumar on Sunday, February 7, 2016

रवीश कुमार के 'क़स्बा' जैसे लोकप्रिय ब्लॉग से भी लोग लेख चुराकर अपने नाम से छपवा दे रहे हैं. कमाल यह भी है कि चोरी करने वाले स्वयं भी कथित 'वरिष्ठ पत्रकार' हैं....

Posted by Rahul Kotiyal on Sunday, February 7, 2016
पूंजी और बाजार के दबाव के बीच काम कर रहे मीडिया में वैसे ही जनहित, सरोकार और साख का पक्ष कमजोर हुआ है, लेकिन इस तरह की हरकतें व्यक्तिगत स्तर की ईमानदारी पर भी सवाल खड़े करती हैं. यह मामला रवीश कुमार से जुड़ा है तो एक नजर में पकड़ा गया लेकिन शक तो यहां तक हो सकता है कि ये पेशेगत चूक का नहीं बल्कि एक पैटर्न का हिस्सा हो.
विनीत कुमार, मीडिया आलोचक व प्रोफेसर

सबसे पहले इस पर ध्यान देने वाले राहुल कोटियाल ने जब पत्रिका के संपादक से बात की तो उन्होने इस घटना को बहुत ही कैजुअली लिया. लेखक ने भी सोशल मीडिया पर उन पर उठाए जा रहे सवालों का जवाब देने या गलती मानने की जरूरत नहीं समझी. विनीत ने इस घटना के साथ-साथ अकादमिक दुनिया में चोरी-छुपे होने वाली नकल और चोरी पर भी सवाल उठाया.

हम इस हरकत के पैटर्न बन जाने की आशंका जता रहे हैं, जबकि अकादमिक दुनिया में थोड़ी बारीकी से यही काम सालों से होता आया है. लोग कहीं भी छपे लेख नत्थी कर के दो पेज की भूमिका लिख कर अपने नाम से पूरी पूरी किताब छपवा लेते हैं ताकि नौकरी मिल सके, सैलरी बढ़ सके. इस तरह के फर्जीवाड़े का पूरा का पूरा तंत्र खड़ा किया जा रहा है जिसमें लेखक के साथ प्रकाशक भी शामिल हैं.
विनीत कुमार, मीडिया आलोचक और प्रोफेसर

अकादमिक प्लेजरिज्म तो अपने आप में एक बड़ा मुद्दा है ही लेकिन पत्रकारिता जैसे पेशे में भी नाम और पैसे के लिए किसी अन्य के आलेख की चोरी एक घिनौनी बीमारी है, एक तरह का मानसिक दिवालियापन है.

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