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बाबा साहेब होते, तो सोशल मीडिया के इन ‘कमांडो’ को देखकर खुश होते 

2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ.सब कुछ खुद ब खुद, बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में, आखिर कैसे,जवाब यहां है

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लगा कि आवाज दबने लगी है. विचारधारा की धार कम होने लगी है. डॉ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ सेलिब्रेशन बनकर रह गए हैं. उनके अनुयायी राजनीति में हाशिए पर आ गए, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी, जहां मायावती पांच बार मुख्यमंत्री रह चुकीं है.

दलितों पर अत्याचार के कई मामले सामने तो आए, लेकिन उनकी आवाज इतनी जोर से नहीं गूंजी कि सत्ता के गलियारों की चुप्पी को तोड़ सके. सड़कों पर रस्मी विरोध, जिसकी किसी ने खोज-खबर तक नहीं ली.

तब 2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ. सब कुछ खुद ब खुद, बड़े स्केल पर और बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में.

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आगे बढ़ने से पहले इस सवाल का जवाब जानना जरूरी है:

  • अखबारों के फ्रंट पेज की कवरेज से पहले, न्यूज चैनलों के कैमरों में कैद बहस से पहले, कैसे सड़कों पर उमड़ आए लाखों दलित?
  • कौन हैं वो, जो डॉ. अंबेडकर के डिजिटल वॉरियर हैं, जो दलित आंदोलनों को धार देते हैं, उन्हें कामयाब बनाते हैं?

कैसे हो पा रहे हैं ऐसे डिजिटल आंदोलन?

ऐसा इसलिए मुमकिन हो रहा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर दलित आंदोलन के लिए कैंपेन ‘किसी सेंटरलाइज्ड ऑफिस या किसी हायर किए गए आईटी प्रोफेशनल्स’ की अगुवाई में नहीं चलाए जा रहे हैं, जहां आपको जबरदस्ती वायरल कंटेंट बनाने का दबाव होता है.

‘भारत बंद’ जैसे अंबेडकरवादी आंदोलनों में देश के कोने-कोने में बैठे वॉलेंटियर खुद ब खुद मुद्दे को समझकर, कंटेंट तैयार करते हैं. फिर एक समान विचारधारा वाले सोशल मीडिया ग्रुप में उसे जब तवज्जो मिलने लगती है, तो वो कंटेंट अपने आप वायरल मैसेज की तरह आगे बढ़ने लगते हैं.

ऐसे में सोशल मीडिया के जरिए कैंपेन चलाने वाले लोगों को तीन हिस्से में बांटा जा सकता है-

  • सोशल मीडिया में समुदाय से जुड़ा कौन सा मुद्दा अहमियत रखता है, ये तय करने वाले
  • वीडियो और दूसरे क्रिएटिव तरीके से मुद्दे को आसान भाषा में समझाने वाले
  • सोशल मीडिया पर इसे फैलाने वाले, मुद्दे को लेकर सड़क पर उतरने वाले
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अंबेडकर के डिजिटल वॉरियर और उनके काम

महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश तक ऐसे ही कुछ डिजिटल वॉरियर से क्विंट ने बातचीत की, और सोशल मीडिया कैंपेन के तरीके को जानने की कोशिश की.

भारत बंद, रोहित वेमुला का मुद्दा, इन मुद्दों को पहचानने वाले और उन्हें सोशल मीडिया के जरिए आगे बढ़ाने वाले कुछ चुनिंदा लोगों में से एक हैं दिलीप सी मंडल. सीनियर जर्नलिस्ट और दलित चिंतक दिलीप सी मंडल के फेसबुक पर 1 लाख से ज्यादा फॉलोअर हैं और उनके पोस्ट हजारों बार शेयर होते हैं.

2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ.सब कुछ खुद ब खुद, बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में, आखिर कैसे,जवाब यहां है
(फोटो: क्विंट हिंदी)

2 अप्रैल के भारत बंद पर वो कहते हैं:

ज्ञात इतिहास में ऐसी कोई और मिसाल नहीं है, जब दलित और आदिवासी इतनी बड़ी संख्या में और इतने एकजुट तरीके से आंदोलन में उतरे.
दिलीप सी मंडल, दलित चिंतक

वो सोशल मीडिया पर अपनी भूमिका समझाते हुए कहते हैं:

रोहित वेमुला का मामला हो, डेल्टा मेघवाल का मामला हो, दिल्ली यूनिवर्सिटी में रिजर्वेशन का मामला हो. इसमें से कोई भी मामला मैंने खुद नहीं क्रिएट किया है. मेरी भूमिका सिर्फ ये है कि बिल्ट हो रही चीजों को समय पर पहचानना और उसको फिर अपनी लैंग्वैज में आगे बढ़ा देना. इसके लिए क्रिएटिव तरीकों का इस्तेमाल भी करना होता है.
दिलीप सी मंडल, दलित चिंतक
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एमपी अहिरवार यूं तो बीएचयू के इतिहास डिपार्टमेंट के प्रोफेसर हैं, लेकिन दलित मुद्दों पर भी लगातार लिखते रहते हैं. सोशल मीडिया पर अंबेडकरवादी कैंपेन पर वो कहते हैं:

ये मुकाबला पार्टी का नहीं, बल्कि विचारधारा का है. साधनसंपन्न लोगों के साथ, बिना साधन वाले लोगों का मुकाबला है. सोशल मीडिया के जरिए हम बिना किसी फंड या रसूख से अपनी बात पहुंचा रहे हैं, बड़े पैमाने पर आंदोलन को आगे बढ़ाया जा रहा है.
एमपी अहिरवार, प्रोफेसर, बीएचयू
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मेनस्ट्रीम मीडिया को जवाब दे रहे हैं सोशल मीडिया के जरिए

ऐसे आंदोलन चलाने वाले ज्यादातर वॉलेंटियर्स का कहना है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में उनकी आवाज सुनी नहीं जाती है. और सोशल मीडिया उनकी बात को कभी नकारता नहीं है. फेसबुक, ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म को क्रांतिकारी मानने वाले नोएडा के रहने वाले दलित एक्टिविस्ट सुमित चौहान, अपने #DalitWithMoustache का उदाहरण देते हैं.

2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ.सब कुछ खुद ब खुद, बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में, आखिर कैसे,जवाब यहां है
(फोटो: क्विंट हिंदी)
अभी कुछ दिनों पहले अहमदाबाद में एक लड़के को मूंछें रखने पर पीटा गया, मेन स्ट्रीम ने कुछ नहीं किया, तो हमने सोशल मीडिया पर शेयर किया. मैंने पहली बार #DalitWithMoustache हैशटैग यूज किया बाद में इसकी खूब चर्चा हुई, मेनस्ट्रीम ने भी इसे उठाया.
सुमित चौहान, दलित एक्टिविस्ट 
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मुंबई के नागपुर में रहने वाले वैभव छाया के फेसबुक पर 11 हजार से ज्यादा फॉलोअर और करीब 5 हजार फेसबुक फ्रेंड हैं, वो इसी तरह भीमा कोरेगांव की घटन में सोशल मीडिया की अहमियत बताते हैं:

भीमा कोरेगांव का उदाहरण देखें, तो कैसे वकीलों को हमने अपने लोगों तक पहुंचाया. किस वकील को कहां जाना है और किससे मिलना है, निर्दोष लोगों को कैसे बचाना है, ये सब हमने सोशल मीडिया के जरिए ही सुनिश्चित किया.
वैभव छाया, दलित एक्टिविस्ट
2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ.सब कुछ खुद ब खुद, बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में, आखिर कैसे,जवाब यहां है
(फोटो: क्विंट हिंदी)

कल्चर को बचाने और बढ़ाने की लड़ाई

वैभव छाया फुलटाइम अंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़े हैं, वो इन आंदलनों के कल्चरल पॉलिटिक्स को समझाते हैं:

हमारा साहित्य, हमारी कविताएं, हमारा म्यूजिक, हमारी लोक संस्कृति जितने भी लिखित साहित्य हैं, उन्हें अब हम इंटरनेट के जरिए सामने ला रहे हैं, संजो रहे हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया के कंटेट के मुकाबले इन्हें खड़ा कर रहे हैं.
वैभव छाया, दलित एक्टिविस्ट

वैभव कहते हैं कि अब अंबेडकरवादी आंदोलन के सोशल मीडिया वॉरियर सोशल मीडिया इकनॉमिक्स को भी समझ चुके हैं. कैसे सोशल मीडिया के जरिए पैसे निकलना हैं, क्राउड फंडिंग करना है ये सीख गए हैं.

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सिर्फ पुरुष ही नहीं महिलाएं भी हैं आगे....

दबी हुई आधी आबादी भी अब डिजिटल प्लेटफॉर्म के जरिए सामने आ रही है अपनी बात रख रही है. सुप्रीम कोर्ट की वकील पायल गायकवाड़ फेसबुक पर काफी एक्टिव हैं और इनके करीब 11 हजार फॉलोअर हैं.

2 अप्रैल का ‘भारत बंद’ हुआ.सब कुछ खुद ब खुद, बिना किसी बड़े लीडर या पार्टी के मार्गदर्शन में, आखिर कैसे,जवाब यहां है
(फोटो: क्विंट हिंदी)

उनका कहना है कि जो महिलाएं डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आवाज उठा रही हैं, उन्हीं का एक्सेटेंडेड ग्रुप जमीन पर भी काम कर रहे हैं. पायल ऐसी कई महिलाओं का उदाहण भी देती हैं और कहती हैं कि सोशल मीडिया ने वो जगह दी है, जहां शरमाने और घूंघट के पीछे रहने वाली महिला अब लीड कर सकती हैं.

ऐसे में इन सोशल मीडिया वॉरियर की संख्या का अंदाजा लगाना किसी के बस की बात नहीं है...ये सरकारी कर्मचारी, स्कूल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं, रिटायर्ड सिटिजन कोई भी हो सकते हैं. इनकी लड़ाई खुले तौर पर विचारधार से है, अपनी बात को मजबूती से रखने के अधिकार को लेकर है.

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