बिहार के पूर्णिया जिले के अमौर में इस हफ्ते की शुरुआत में कांग्रेस नेता अब्दुल जलील मस्तान ने ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलिमीन (AIMIM ) अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के लिए कहा था, “उनके हाथ पैर तोड़ कर हैदराबाद भेज देंगे”.
छह बार विधायक रह चुके मस्तान ने अमौर में यह बात पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में कही थी.
AIMIM ने भी हाल में पार्टी के काफिले पर हुए हमले के लिए मस्तान और उनके समर्थकों को जिम्मेदार ठहराया है जिसमे कई पार्टी कार्यकर्ता घायल हो गये थे.
कांग्रेस बनाम AIMIM
AIMIM का कहना है कि सीमांचल में उसके उदय के साथ ही कांग्रेस की स्थिति लड़खड़ाने लगी है और इसलिए ये हमले हुए हैं.
बिहार के पूरे सीमांचल क्षेत्र में, जिसमें पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज और अररिया शामिल हैं, तीसरे और अंतिम चरण में 7 नवंबर को वोट डाले जाएंगे.
दो अन्य उदाहरण हैं जो बताते हैं कि इस चरण में AIMIM का मुकाबला करना कांग्रेस की प्राथमिकता है.
- मतदान से बमुश्किल कुछ दिन पहले कांग्रेस ने तेलंगाना के नेता मोहम्मद अली शब्बीर को बुलाया और सीमांचल क्षेत्र का प्रभारी बना दिया. साफ है कि कांग्रेस कोई ऐसा व्यक्ति चाहती थी जो AIMIM के जनाधार वाले हैदराबाद में उसकी तकनीक से परिचित हो.
- चुनाव प्रचार के आखिरी दिन प्रवक्ताओं के प्रभारी कांग्रेस महासचिव रणदीप सुरजेवाला ने अपने बयान का पूरा फोकस AIMIM पर हमला करने पर केंद्रित रखा.
AIMIM के खिलाफ कांग्रेस इतना अधिक ऊर्जा क्यों लगा रही है? जवाब ओवैसी के हमलों में मिलता है.
ओवैसी का हमला सीएए, बाबरी मस्जिद और उपेक्षा को लेकर
- बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने चुनाव प्रचार देर से शुरू किया क्योंकि उनके चुनाव क्षेत्र हैदराबाद में बाढ़ आयी हुई थी। लेकिन, जल्दी ही उनकी सभा में खासकर सीमांचल में भारी भीड़ उमड़ने लगी.
- AIMIM जिन 24 सीटों पर बिहार में चुनाव लड़ रही है उनमें से 19 सीटें सीमांचल क्षेत्र में हैं.
- ओवैसी के आक्रमण में सीमांचल की उपेक्षा, बाबरी मस्जिद पर कांग्रेस के रुख और सिटिजन अमेंडमेंट एक्ट (CAA) को लेकर राजनीतिक दलों की चुप्पी जैसे कई मुद्दे शामिल रहे.
- बाबरी मस्जिद मुद्दे पर वे पूछते हैं, “कमलनाथ ने राम मंदिर भूमि पूजन का उत्सव क्यों मनाया और क्यों प्रियंका गांधी वाड्रा ने इसका स्वागत किया.”
बहरहाल भीड़ ने सबसे ज्यादा उत्साह तब दिखाया जब उन्होंने CAA पर बोला.“CAA-NRC-NPR के जरिए हमें हमारी नागरिकता साबित करने के लिए कहा जा रहा है. क्या मोदी हमारी नागरिकता का सबूत चाहते हैं? तो वे यहां आएं और हमारे पुरखों की कब्रों को देखें.”असदुद्दीन ओवैसी
- ओवैसी ने सीएए का समर्थन करने के लिए नीतीश कुमार पर हमला बोला और कांग्रेस-आरजेडी की इस बात के लिए आलोचना की कि पूरे चुनाव अभियान के दौरान इस मुद्दे पर दोनों ने चुप्पी साध रखी.
- बिहार के साथ-साथ महाराष्ट्र में सीएए के विरोध में सबसे ज्यादा प्रदर्शन हुए थे. ओवैसी ने कहा कि दोबारा ये प्रदर्शन होंगे.
- इस हफ्ते एक रैली में उन्होंने कहा, “जब महामारी खत्म हो जाती है, हम इस कानून की मुखालिफत करने के लिए दोबारा सड़कों पर लौटेंगे”
- सीमांचल की उपेक्षा पर उन्होंने कहा, “बिहार में साक्षरता की दर 52 प्रतिशत है लेकिन सीमांचल में यह 35 फीसदी है. इससे पता चलता है कि पिछली सरकारों ने यहां कुछ भी नहीं किया.”
AIMIM और नये गठबंधन का विकास
- AIMIM यह चुनाव उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, देवेंद्र यादव की समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक), बहुजन समाज पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ रही है.
- सीमांचल में इनमें से किसी भी पार्टी की अच्छी उपस्थिति नहीं है.
- बहरहाल दूसरे नजरिए से यह गठबंधन महत्वपूर्ण है. बिहार में AIMIM के बढ़ते महत्व का यह सबूत है. 2015 के चुनाव में AIMIM ने केवल 6 सीटों पर चुनाव लड़ा था और वे उपेक्षित रहे थे.
हो सकता है कि RLSP और दूसरी पार्टियां AIMIM को चुनाव में मदद न कर पाएं, लेकिन यह इस बात का प्रमाण है कि राज्य की राजनीति में अब यह पार्टी बाहरी नहीं रह गयी है.
- बहरहाल, ओवैसी लगातार सीमांचल आते रहे हैं और उनकी पार्टी ने कोच धामन के पूर्व विधायक अख्तरूल इमाम के नेतृत्व में अपना विस्तार किया है.
- 2019 में स्थिति में अचानक बदलाव तब आया जब AIMIM के क़मरूल हूडा ने उपचुनाव में बीजेपी को हराते हुए किशनगंज में जीत हासिल की और कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेल दिया. यह सीट कांग्रेस की थी लेकिन वह चुनाव हार गयी.
बहरहाल इस चुनाव में अमौर की सीट AIMIM के विस्तार को बयां कर रही है.
अमौर की लड़ाई
अपने प्रमुख चेहरे अख्तरूल इमाम को अब्दुल जलील मस्तान जैसे मजबूत उम्मीदवार के खिलाफ उतारकर AIMIM ने बहुत बड़ा जोखिम लिया है. इसका संबंध काफी हद तक क्षेत्र में राजनीतिक शून्यता से है.
सीमांचल में राजनीतिक शून्यता
- बिहार के विभिन्न शासनकाल में यह इलाका ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित रहा है. कई सालों तक इस क्षेत्र से मोहम्मद तस्लीमुद्दीन सबसे बड़े नेता रहे जो ज्यादातर समय आरजेडी में रहे और बाद में बाहर हो गये.
- तस्लीमुद्दीन को पूरे इलाके में भरपूर समर्थन मिला और सीमांचल की तीन लोकसभा सीटों किशनगंज, पूर्णिया और अररिया से सांसद रहे.
- बहरहाल 2017 में वे गुजर गये. इस चुनाव में तस्लीमुद्दीन के दोनों बेटे जोकीहाट में आमने-सामने हैं. वर्तमान विधायक सरफराज आलम आरजेडी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं जबकि शाहनवाज आलम AIMIM से चुनाव मैदान में हैं.
वर्तमान में AIMIM के अख्तरुल इमाम और कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान दोनों प्रमुख नेता सुरजापुरी हैं और अमौर की लड़ाई लड़ रहे हैं.
- तस्लीमुद्दीन के निधन के एक साल बाद मौलाना असरूल हक कासमी भी गुजर गये जो तब किशनगंज से कांग्रेस के सांसद थे. हालांकि तस्लीमुद्दीन जैसी पकड़ मौलाना की नहीं थी, लेकिन वे सुरजापुरी समुदाय के सबसे लोकप्रिय नेता थे जिनका सीमांचल इलाके में अच्छा प्रभाव था.
- उनकी मौत के बाद दो सर्वाधिक प्रमुख सुरजापुरी नेता हैं कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान और AIMIM के अख्तरूल इमान. इस वजह से अमौर के संघर्ष का महत्व और अधिक बढ़ जाता है.
- ऐसे पहलुओं से सीमांचल में चुनाव शेष बिहार के मुकाबले बिल्कुल अलग हो जाता है.
क्यों अलग है सीमांचल?
डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी) सबसे बड़ा फैक्टर है. सीमांचल में मुसलमानों की आबादी शेष बिहार के किसी हिस्से के मुकाबले सबसे ज्यादा है.
- किशनगंज : 68 प्रतिशत
- कटिहार : 44.5 प्रतिशत
- अररिया : 43 प्रतिशत
- पूर्णिया : 38.5 प्रतिशत
- बिहार में औसत : 16.9
अंतर कई अन्य मायनों में भी है. बिहार के ज्यादातर हिस्सों में मुसलमानों का प्रतिशत गांवों के मुकाबले शहरों में ज्यादा है. सीमांचल में इसका उलटा है. ग्रामीण इलाकों में मुसलमान शहरी इलाकों के मुकाबले अधिक हैं.
सीमांचल में हिन्दुओं की कुल आबादी जबकि कम है, एक अन्य फर्क भी दिखता है. यह है यादव समुदाय जो पूरे बिहार में प्रभावशाली है लेकिन सीमांचल में बमुश्किल इसकी उपस्थिति दिखती है.
भाषाई रूप में भी देखें तो सीमांचल को बृहत मिथिला का क्षेत्र माना जाता है लेकिन यहां कई लोग सुरजपुरी, कुल्हैया और बंगाली बोलते हैं.
किस तरह अलग हैं सीमांचल के मुसलमान?
बिहार के बाकी हिस्सों के मुकाबले सीमांचल में अधिकतर मुसलमान ग्रामीण हैं. और, यहां तक कि ग्रामीण मुसलमानों में भी सीमांचल मुसलमानों के पास औसतन भूमि का स्वामित्व कम है.
व्यापक रूप में सीमांचल में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इलाके की तीन समुदायों में खास तौर से है : सुरजपुरिया, कुलहैया और शेरशाहबादी.
सुरजपुरिया : कुछ विद्वानों के मुताबिक सुरजपुरिया मूल रूप में कोच राजबंशी हैं. भारत के भाषाई सर्वे में जॉर्ज ग्रिएर्सन ने सुरजपुरियाओं को कोच मूल का बताया है जिनके बोलने का अंदाज माल्दा के कोच बंगाली से मिलता है.
शेरशाहबादी भी बंगाली मूल के हैं लेकिन उनका इतिहास अलग है. वे शेरशाह सूरी के मातहत रहे सैनिक थे जो शुरू में बंगाल के गौर में बस गये, लेकिन बाद में जब मुगलों ने कमान संभाली तो वे विस्थापित हो गये और खेती को अपना लिया. आगे चलकर इन लोगों ने अहले हदीथ की विचारधारा को स्वीकार कर लिया जो सीमांचल में बहुमत मुसलमानों से अलग अपनी पहचान रखते हैं.
कुलहैया मूल रूप से अरब के हधरमौत से हैं जिन्होंने पूर्णिया के फौजदारों के साथ धर्म प्रचारक के तौर पर काम किया और अलग-अलग जातियों के स्थानीय और किसानों के साथ अंतर्विवाह किया जो उत्तर और पश्चिम भारत से यहां आए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि कुलहैया की जुबान बहुत ज्यादा मिश्रित हो गयी जिस पर कई तरह के प्रभाव आ गये.
कुलहैया और शेरशाहबादी दोनों का दर्जा ओबीसी है लेकिन सुरजपुरिया इसमें नहीं आते. अंसारी भी अच्छी तादाद में मौजूद हैं लेकिन राजनीतिक रूप से वे और भी अधिक उपेक्षित रहे हैं.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व के नजरिए से कुलहैया की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर है- मोहम्मद तस्लीमुद्दीन कुल्हैया थे. धीरे-धीरे सुरजपुरियों का प्रतिनिधित्व भी किसी हद तक बढ़ा.
अमौर में जातिगत पहलू भी अहम है. एनडीए को उम्मीद है कि सुरजपुरी वोट कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान और एआईएमआएम के अख्तरुल इमान में बंटेंगे जबकि जेडीयू उम्मीदवार सबा ज़फर जो कुलहैया हैं, उन्हें उनके समुदाय के अलावा हिन्दुओं के एकमुश्त वोट हासिल होंगे.
बहरहाल ऐसा कहना आसान है क्योंकि कांग्रेस ने लगातार सक्रिय होकर इस सीट पर हिन्दू मतदाताओं को लुभाया है जबकि एआईएमआईएम को गैर सुरजपुरी मुसलमानों का भी समर्थन मिलता बताया जा रहा है.
मुसलमानों के लिए चुनाव के मायने
- AIMIM के लिए समर्थन की वजह कम से कम भीड़ के लिहाज से देखें तो स्थानीय फैक्टर भर नहीं है. सूबे के राजनीतिक संघर्ष में कहीं न कहीं यह समर्थन मुसलमानों पर कथित हमलों के खिलाफ भी है.
- 2015 के चुनावों में एक गुपचुप अभियान भी चला था जिसमें मुसलमानों से आग्रह किया गया था कि वे दिन के पहले हिस्से में वोट करने नहीं निकलें और मुस्लिम पहनावे के साथ नजर नहीं आएं ताकि बीजेपी के पक्ष में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण ना हो.
- मुसलमान और राजनीतिक रूप से मुसलमानों से जुड़े मुद्दों के नहीं दिखने की वजह ‘हिन्दू ध्रुवीकरण’ का यही डर है.
- प्रतिनिधित्व के हिसाब से देखें तो महागठबंधन ने बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिए हैं. सीएए और हिन्दुत्ववादी हिंसा के मुद्दे चुनावों से लगभग गायब रहे हैं.
- यहां तक कि बीजेपी की मुस्लिम बहुल इलाकों में किए गये हमलों के जवाब भी नहीं दिए गये हैं.
- इसकी वजह व्यावहारिक है क्योंकि तेजस्वी नहीं चाहते कि रोजगार केंद्रित अभियान से वे भटकें, लेकिन इससे महागठबंधन पर हमला करने का अवसर औवेसी मिल गया.
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