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'मोची कहे जाने से दुख होता है': सरनेम को लेकर परिवार ने CBSE से क्यों की लड़ाई?

Caste Discrimination & Atrocities को लेकर लक्ष्मण ने 2011 में अपना सरनेम 'मोची' से बदलकर 'नायक' कर लिया था.

Published
भारत
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"जॉब में ये सब (जातिवाद) खुले आम नहीं होता. लेकिन आपने सुना होगा जब लोग किसी को उनके सरनेम से बुलाते हैं-'तिवारी जी कहां हैं?','सिंह सर आए हैं कि नहीं?', अब अगर कोई कहेगा की 'मोची जी कैसे हैं?' तो कैसा लगेगा आपको? (पेशेवर जगहों पर, जातिवाद खुलकर सामने नहीं आता है. आपने लोगों को एक-दूसरे को उनके सरनेम से संबोधित करते देखा होगा-'कहां है तिवारी जी?'.'क्या सिंह सर आसपास हैं?'-अब कल्पना कीजिए कि कोई कह रहा है, 'मोची जी कहां हैं?' आपको कैसा लगेगा?" गुस्से में लक्ष्मण नायक ने पूछा.

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5 साल बाद मिली जीत

दिल्ली के बदरपुर में एक सरकारी स्कूल के शिक्षक, लक्ष्मण (55) और उनके बेटों-सदानंद और सच्चदानंद नायक-ने 19 मई को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) के खिलाफ पांच साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 10वीं और 12वीं कक्षा बोर्ड के सर्टिफिकेट में सरनेम में बदलाव को लेकर जीत हासिल की.

लक्ष्मण ने 2011 में जातिगत पक्षपात और अत्याचार का हवाला देते हुए अपना सरनेम 'मोची' से बदलकर 'नायक' कर लिया था.

लक्ष्मण ने द क्विंट को बताया, "आप जहां भी जाते हैं, आपका सरनेम आपसे पहले आता है. मैंने अपने जीवन के 40 से अधिक वर्षों तक उस सरनेम को रखा. मैं नहीं चाहता था कि मेरे बच्चे उसी से गुजरें, इसलिए मैंने 2011 में अपना सरनेम बदल दिया और बाद में हमें अपने सभी दस्तावेज मिल गए, इसमें पूरे परिवार के जाति प्रमाण पत्र भी शामिल थे, जिसमें नया सरनेम अपडेट किया गया था."

चमड़े का कारोबार करने वाले बड़े मोची समुदाय के भीतर 'मोची' एक जाति का नाम है.

CBSE ने सरनेम बदलने से क्यों किया इनकार?

इस मामले में CBSE ने अदालत के समक्ष दलील दी थी कि याचिकाकर्ताओं के सरनेम में बदलाव से उनकी जाति में बदलाव होगा, जिसका दुरुपयोग किया जा सकता है.

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यह ध्यान रखना जरूरी है कि 2016 के बॉम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले में कहा गया है कि सरनेम में बदलाव से किसी व्यक्ति की जाति नहीं बदलती है. अदालत एक मेडिकल स्नातक की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे वैध जाति प्रमाण पत्र होने के बावजूद अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में PG पाठ्यक्रम में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, इस आधार पर कि उसने अपना सरनेम बदल लिया था.

अगर सरनेम बदल दिया जाता है, तो इससे किसी व्यक्ति की जाति नहीं बदलती है. यह याचिकाकर्ता का विशिष्ट तर्क है कि उसके सरनेम में परिवर्तन को सरकारी गजट में विधिवत अधिसूचित किया गया है.
अदालत

नायक भाइयों के मामले में, बोर्ड ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ता अपने पिता के नाम में बदलाव की मांग कर रहे हैं, जो कि स्कूल के रिकॉर्ड से परे है और इसकी अनुमति नहीं है.

हालांकि, भाइयों को राहत देते हुए, दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि CBSE द्वारा उनके प्रमाणपत्रों में आवश्यक परिवर्तन करने से इनकार करना अनुचित था.

'पहचान का अधिकार जीवन के अधिकार का एक आंतरिक हिस्सा है'

दिल्ली हाईकोर्ट ने 19 मई के अपने आदेश में कहा कि 'पहचान का अधिकार' भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत 'जीवन के अधिकार' का एक आंतरिक हिस्सा है.

द क्विंट ने ऑर्डर को पढ़ा जिसमें लिखा है कि, "इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है, जिसमें किसी भी जातिवाद से बंधा नहीं होना शामिल है, जिसका सामना किसी व्यक्ति को उस जाति के कारण करना पड़ सकता है जिससे वह संबंधित है."

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अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ताओं के पिता लक्ष्मण ने गजट अधिसूचना में प्रकाशन के माध्यम से अपने सरनेम में परिवर्तन किया. याचिकाकर्ताओं के पिता द्वारा अपनाया गया नया सरनेम सरकारी एजेंसियों द्वारा याचिकाकर्ताओं के पिता के पक्ष में जारी किए गए विभिन्न सार्वजनिक दस्तावेजों में पूरी तरह से देखकर दर्शाया गया है.

CBSE को तब याचिकाकर्ता द्वारा अनुरोधित बदलाव को लागू करने का निर्देश दिया गया था.

'सरनेम बदलते ही लोगों का व्यवहार बदल गया'

लक्ष्मण के लिए, अपना सरनेम बदलने का निर्णय न तो अचानक था और न ही आवेगपूर्ण. उन्होंने कहा, सरनेम, उनकी 'मूल' जाति 'चमार' की याद दिलाता है, और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक कलंक लगा.

क्यों बदला सरनेम?

लक्ष्मण ने कहा, "मैंने अपना जीवन जी लिया है और अब रिटायर होने वाला हूं. मुझे हर कदम पर जातिवाद का सामना करना पड़ा. लेकिन जब मैंने अपने बच्चों को सरनेम के कारण सामाजिक कलंक का सामना करते देखा, तो मैंने इसे बदलने का फैसला किया."

उन्होंने आगे कहा, "जब मेरे बेटे नौकरी के लिए इंटरव्यू के लिए जाते हैं , वे अक्सर मुझे बताते हैं कि जब लोगों को उनके सरनेम के बारे में पता चलता है तो उनका व्यवहार अचानक कैसे बदल जाता है. वे उनके (मेरे बेटों) कौशल के लिए प्रशंसा करने से लेकर उनकी योग्यताओं के बारे में संदेह करने तक जाते हैं. मैं इससे गुजरा हूं और मुझे पता है कि इसका क्या मतलब है."

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