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संडे व्यू: शशिकला या सियासीकला, 6-7 फीसदी के बीच रहेगी विकास दर

जनसत्ता में चिदंबरम लिखते हैं कि AIADMK खात्मे की ओर है. पढ़ें आज के बेस्ट आर्टिक्लस

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ग्लोबल हालात से 6-7 फीसदी विकास दर

टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम स्वामीनोमिक्स में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने लिखा है भारत की इकोनॉमी पर ग्लोबल हालत का असर पड़ेगा और भारत 6 से 7 फीसदी विकास दर के बीच ही झूलेगा. इसकी जीडीपी वृद्धि दर 8 से 10 फीसदी नहीं हो सकती.

स्वामीनाथन लिखते हैं- ब्रेग्जिट और अमेरिका में ट्रंप गहरे बुनियादी संकट की ओर इशारा करते हैं जिन्हें शरणार्थियों की संख्या, आयात कम करने और किसी फौरी इलाज से ठीक नहीं किया जा सकता है. दरअसल पश्चिम की उत्पादकता ठहर गई है. धीमी वृद्धि दर, कम पारिश्रमिक, नौकरियों में कमी और डी-ग्लोबलाइजेशन की बढ़ती मांग ने एक नई संकटग्रस्त स्थिति पैदा की है. भारत भी इससे प्रभावित होगा क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था अब काफी मजबूती से ग्लोबल अर्थव्यवस्था के साथ नत्थी है.

इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक 2008 में भारतीय जीडीपी में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का हिस्सा 55 फीसदी था, जो अब घट कर 40 फीसदी हो चुका है. चीन की तुलना में यह ज्यादा है. लिहाजा भारतीय अर्थव्यवस्था अब पहले की तुलना में बाहरी हालात से ज्यादा प्रभावित होगी. इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 6 से 7 फीसदी की बढ़ोतरी न्यू नॉर्मल होगी न कि 8 से 10 फीसदी की दर.

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बरकरार रहेगा मोदी का जलवा

टाइम्स ऑफ इंडिया में आकार पटेल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐसा करिश्माई नेता करार दिया है, जो राज्यों में चुनावों की हार के बावजूद मजबूत बना रहेगा. वह लिखते हैं- देश के कुछ राज्यों के चुनावों को नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों के रेफरेंडम के तौर पर देखा जा रहा है. खास कर नोटबंदी पर उनके फैसले पर. कुछ बड़े राज्यों में बीजेपी की हार को मोदी का निजी नुकसान माना जाएगा और वह दबाव में आ सकते हैं. उन्हें अपनी लीडरशिप की शैली बदलनी होगी. लेकिन ऐसा सोचना गलत है.

चुनावों में हार न तो भविष्य और न आगे मोदी की मजबूत प्रतिष्ठा को खत्म कर पाएगी. लोगों की नजर में वह एक विश्वसनीय राजनेता बने रहेंगे. उनकी पार्टी की हिंदुत्व की विचारधारा, एक गंभीर पार्टी के तौर पर उसकी प्रतिष्ठा, सांस्कृतिक जड़ें और ऊंची जातियों का समर्थन- ये ऐसी चीजें हैं जो मोदी को टिकाए रखेंगी. उनका निजी करिश्मा पार्टी को उसी तरह बदलेगा जैसा जयललिता, ममता या मायावती ने बदला. अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव गांधी ऐसा नहीं कर पाए और न कर सकते थे.

मोदी अपनी ईमानदारी, परिवार के हितों से दूरी, संवाद करने की बेहतरीन क्षमता और विरोधियों को परास्त करने की काबिलियत की वजह से टिके रहेंगे. न तो नेहरू और न ही इंदिरा गांधी सक्षम आर्थिक प्रदर्शन और न आला दर्जा का गवर्नेंस दे पाए थे लेकिन वे पूरी ताकत से सत्ता में लौटे थे. क्योंकि उनमें निजी करिश्मा था. विश्वसनीयता थी और बेहतरीन संवाद में माहिर थे. मोदी के साथ भी यही बातें लागू होती हैं.

अन्नाद्रमुक खात्मे की ओर

दैनिक जनसत्ता में पी. चिदंबरम ने तमिलनाडु में चल रहे सत्ता संघर्ष पर टिप्पणी की और अन्नाद्रमुक के खत्म होने की आशंका जताई है. अपने कॉलम दूसरी नजर में वह लिखते हैं- जयललिता पहली बार 1991 में मुख्यमंत्री चुनी गर्इं. अपने पहले कार्यकाल (1991-96) में उन्होंने और उनके दस्ते (वीके शशिकला तथा उनके ग्रुप) ने भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों से धन इकट्ठा करने का खतरनाक रास्ता पकड़ लिया.

हालांकि जयललिता ने तीन बार चुनाव जीता (2001, 2011 और 2016) और उन्हें मृत्युपर्यंत मतदाताओं के बड़े हिस्से का समर्थन हासिल था, पर अन्नाद्रमुक की प्रतिष्ठा को स्थायी रूप से अपूरणीय क्षति पहुंची. यह वही पार्टी नहीं रह गई थी जिसकी स्थापना एमजीआर ने की थी. अब, जयललिता के निधन के बाद, अन्नाद्रमुक एक दूसरी आत्मघाती राह पर चल पड़ी है. .अब अन्नाद्रमुक सीधे विभाजन की ओर भी बढ़ चली है.

अगर अन्नाद्रमुक के विधायक शशिकला की जकड़न से बाहर नहीं आ सकते, या नहीं आएंगे, अगर विधायक दल के नए नेता पलानीस्वामी बहुमत साबित करने में सफल हो जाते हैं, तो जनता और पार्टी/सरकार के बीच खाई और चौड़ी होगी. जो संकेत मिल रहे हैं वे शुभ नहीं हैं. अपने चौवालीस साल के इतिहास में, अन्नाद्रमुक लगता है अब अपने खात्मे की तरफ बढ़ रही है. यह भाग्य की एक क्रूर विडंबना है कि जो पार्टी भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करते हुए बनी थी, वह अपने तीसरे (और अंतिम?) सुप्रीमो के भ्रष्टाचार की बलि चढ़ेगी.

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शशिकला और सियासी कला

दैनिक जनसत्ता में ही तवलीन सिंह ने शशिकला की सियासी कला का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है- शशिकला की कहानी भी क्या कहानी है. यह अपना भारत महान ही है, जहां एक ऐसी महिला, जिसने कभी चुनाव न लड़ा हो, जिसको कोई अनुभव न हो प्रशासन चलाने का, मुख्यमंत्री बन जाने वाली थी और वह भी सिर्फ अपने धन के बल पर. सुप्रीम कोर्ट ने उनको पिछले सप्ताह जेल न भेज दिया होता आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषी पाने के बाद, तो मुमकिन है शशिकला आज मुख्यमंत्री के दफ्तर में विराजमान होतीं.

सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या शशिकला जैसे लोगों को राजनीति में आने का कोई अधिकार है भी कि नहीं? क्या लोकतंत्र का बुनियादी उसूल नहीं है कि राजनीति में आने से पहले आपको जनता का विश्वास हासिल करना पड़ता है चुनाव लड़ कर? माना कि परिवारवाद का घुन हमारे राजनीतिक ढांचे को दशकों से कमजोर करता आया है, लेकिन परिवारवाद से भी जो नेता उभर कर आते हैं उनको चुनाव जीतना पड़ता है.

पूरी संभावना है कि शशिकला जब कैद काट कर बाहर आएंगी चार साल बाद, तो मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके लिए खाली कर दी जाएगी, क्योंकि तब तक आम लोग भूल गए होंगे कि वे जेल किस वजह से गई थीं. वैसे भी चमचों की परंपरा इतनी मजबूत है तमिलनाडु में कि जयललिता के सामने उनके विधायक शाष्टांग प्रणाम किए बिना नहीं पेश होते थे. सवाल यह है कि क्या यह लोकतंत्र है या लोकतंत्र का भद्दा मजाक?

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ग्लोबलाइजेशन के वारिस

हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने ग्लोबलाइजेशन के सबसे बड़े पैरोकार अमेरिका के लगातार संरक्षणवाद की ओर बढ़ते कदम के मद्देनजर इसके अगले उत्तराधिकारियों के विकल्पों पर चर्चा की है. चाणक्य का कहना है कि चीन और भारत दोनों ग्लोबलाइजेशन के प्रतिनिधि के तौर पर खुद को पेश कर रहे हैं लेकिन उनका दावा कहां तक ठीक है इस पर विचार करना होगा. चीन खुद को ग्लोबलाइजेशन के बड़े प्रतिनिधि के तौर पर पेश कर रहा है लेकिन आतंरिक लोकतंत्र की कमी और दक्षिण चीन सागर में उसकी भूमिका से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा हुई है, उससे उसका दावा कमजोर दिखता है.

ग्लोब्लाइजेशन की तीन पक्ष हैं. आर्थिक चेहरा, सुरक्षा और मूल्य. अमेरिका के ग्लोबल चेहरे में ये तीन पहलू थे. लेकिन अब अमेरिकी ही उनके शासकों ने जो विश्व व्यवस्था कायम की थी उसमें खामियां हैं. ग्लोबलाइजेशन के वास्तविक प्रतिनिधि के तौर पर भारत की दावेदारी में भी खामियां हैं. भारत के पास बहुस्तरीय सुरक्षा का तो बढ़िया रिकार्ड है लेकिन दुनिया के साथ उसका आर्थिक जुड़ाव उतना मजबूत नहीं हो सका है. हालांकि मूल्यों के मामले में भारत अपनी ओर से योगदान कर सकता है.

बहरहाल एक नई विश्व व्यवस्था उभर रही है. भारत को अब दुनिया के बार में समग्र तौर पर सोचना होगा. जवाहरलाल नेहरू के वक्त के बाद से ऐसा नहीं हुआ है. अगर चीन ग्लोबलाइजेशन के असली उत्तराधिकारी के तौर पर खुद को आगे बढ़ा ले जाता है तो भारत खुद को कोसता ही रहेगा.

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आतंक के खिलाफ अंदरुनी लड़ाई छेड़े पाक

अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रह चुके हुसैन हक्कानी ने देश में हाल में सूफी संत लाल शहबाज कलंदर की दरगाह में हुए भयानक आतंकी हमले का संदर्भ देकर वहां के आतंकवाद के आंतरिक पहलुओं पर रोशनी डाली है.

द हिंदू में हक्कानी लिखते हैं- यह पाकिस्तान में होने वाला कोई आखिरी आतंकी हमला नहीं है. जिहादी इस देश के सूफी दरगाहों को लगातार निशाना बनाते आए हैं. दुर्भाग्य से पाकिस्तान का इलिट शासक वर्ग आतंकवाद को जियो-स्ट्रेटजिक लेंस से देख रहा है. वह यह नहीं देख पा रहा है कि पाकिस्तान की ओर से इस्लामी आतंकवाद के तुष्टिकरण और इसे बढ़ावा देने की नीतियों के क्या नतीजे हो रहे हैं. जिहादी सूफी दरगाहों पर हमला कर इसलाम के अशुद्ध रूप पर हमले करने का दावा करते हैं.

नास्तिकों, काफिरों और दूसरे धर्मों के लोगों पर हमला उनके शुद्ध इस्लामी राज्य की स्थापना के लक्ष्य का हिस्सा है. शिया, अहमदियों, ईसाइयों और हिंदुओं पर भी इसी तर्क के साथ हमला होता है. भले ही जिहादी समूहों का पोषण पाकिस्तान भारत और अफगानिस्तान में अपने परोक्ष युद्ध के लिए करता रहा है लेकिन कई ऐसे समूह पाकिस्तान को अपना निशाना जायज मानते हैं. पाकिस्तान को अब पूरी तरह जिहादी विचारधारा को अवैध मानकर उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी होगी नहीं तो उसके पाले-पोसे आतंकी उसके ही लोगों को मारते रहेंगे.

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कांग्रेस सेंस ऑफ ह्यूमर से महरूम

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने अपने कॉलम में लिखा है कि कांग्रेस में हास्य बोध यानी सेंस ऑफ ह्यूमर की कमी है. पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से मनमोहन सिंह के रेनकोट पहन कर नहाने के बयान पर कांग्रेस ने जिस तरह आसमान सिर पर उठा लिया, वह उसके हास्यबोध की ही कमी को दिखाता है.

उन्होंने ब्रिटिश राजनीति के नेताओं में सेंस ऑफ ह्यूमर होने के उदाहरण पेश करते हुए लिखा है- हम दूसरों का मजाक बनाते हैं लेकिन अपना मजाक बनते हुए नहीं देख पाते. इस तरह की टिप्पणियों के बजाय कांग्रेस को पलट कर जवाब देना सीखना होगा. अगर यह न भी आता हो तो हंसते हुए मजाक को सहने की आदत डालनी चाहिए. इस तरह हंगामा करने से यही साबित होता है आपमें मजाक बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं है.

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