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संडे व्यू : बुरे दिन की आहट, 1991 जैसा साहस दिखाना जरूरी

पढ़ें आज संडे व्यू में टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, गोपाल कृष्ण गांधी, नितिशा सिंह के विचारों का सार.

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बुरे दिन की आहट

तवलीन सिंह (Tavleen Singh) ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि टीवी डिबेट में मुसलमानों को लुटेरा और देश का दुश्मन खुलेआम बताया जा रहा है. अब मोहन भागवत भी संकेत देने लगे हैं कि जो लोग मस्जिदों को तोड़कर मंदिर बनवाने में लगे हैं, उनको संघ परिवार का पूरा समर्थन है. इतिहास कुरेद कर सत्य को पहचानने का समय आ गया है. ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanwapi Mosque) हासिल करने के फौरन बाद मथुरा का रुख नहीं किया जाएगा- ऐसा नहीं है. 36 हजार से ज्यादा मस्जिदों की सूची तैयार है जिन्हें औरंगजेब के हाथों मंदिर तोड़कर बनाया गया बताया जा रहा है.

तवलीन सिंह लिखती है कि भारत के 20 करोड़ मुसलमान खुद को लावारिस समझने लग जाएंगे. क्या मुसलमान इतना डर गये हैं कि दंगों का होना भी मुश्किल हो गया है? ऐसा बिल्कुल नहीं है. मुसलमानों में आक्रोश दिखने लगा है. वे कभी भी बेकाबू हो सकत हैं. कुछ गलतियां मुस्लिम समाज ने भी की हैं. हिजाब विवाद में पीएफआई का हाथ अब स्पष्ट हो चुका है.

मुस्लिम लोग इसे उठा रहे थेक्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा है कि उनका अस्तित्व पूरी तरह से मिटाया जा रहा है. शहरों के नाम बदले जा रहे हैं, सड़कों के नाम बदल रहे हैं. उर्दू को विदेशी भाषा साबित करने में लोग जुटे हैं. भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े नेता मुसलमानों को देश का गद्दार बताने में लगे हैं. ऐसे में आक्रोश बढ़ता जा रहा है. वहीं दूसरी ओर कई हिन्दू मुसलमानों से इतनी नफरत दिखा रहे हैं जैसा पहले कभी नहीं दिखा था. ये बुरे दिनों के संकेत हैं.

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1991 जैसा साहस और कदम जरूरी

इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम (P Chidambaram) ने लिखा है कि उन्हें यकीन नहीं होता कि 1 जुलाई 1991 में रुपये के अवमूल्यन के 31 साल हो चुके हैं. विपक्ष इस कदर हमलावर था कि खुद पीवी नरसिंहाराव अगला कदम उठाने से संकोच कर रहे थे, मनमोहन सिंह भी समर्थन में चुप थे और आरबीआई के डिप्टी गवर्नर डॉ सी रंगराजन अनुपलब्ध थे.

फिर भी रुपये के एक और अवमूल्यन का बिगुल बज गया. उसके बाद व्यापार नीति में सुधार, नयी औद्योगिक नीति और लीक से हटकर बजट बनाया गया. दुनिया का उस पर ध्यान गया. देश कांग्रेस के नेतृत्व में उदारवाद के दौर में आ चुका था. संपत्ति सृजन, नये कारोबार, नये उद्यम, बड़ा मध्य वर्ग,लाखों रोजगार, निर्यात और 27 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने जैसे बड़े लाभ देखने को मिले.

चिदंबरम लिखते हैं कि आज आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी में जी रहा है. भुखमरी सूचकांक में भारत 101 वें स्थान पर है. बड़े पैमाने पर महिलाएं और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. शिक्षा की स्थिति बदतर है. बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है. ऐसे में 1991 जैसे साह, स्पष्टता और रफ्तार की जरूरत है. अमीर राष्ट्र और अमीर हुए हैं.

2022 में चीन की जीडीपी 16.7 ट्रिलियन डॉलर और भारत की 3 ट्रिलियन डॉलर की है. घरेलू स्तर पर कुल प्रजनन दर विस्थापन दर से भी नीचे दो पर आ चुकी है. जनसांख्यिकी लाभांश की स्थिति हम खो रहे हैं. खेती पर भरोसा कम होता जा रहा है. डिजिटलीकरण का विस्तार हो रहा है. मगर, किसी भी हाल में देश रोजगारविहीन वृद्धि स्वीकार नहीं करेगा. राज्य सरकारें जीएसटी से बाहर निकलने के लिए वैसे ही छटपचा रही हैं जैसे यूरोपीय देश ब्रेक्जिट से बाहर निकलने के लिए बेचैन हैं.

एलआईसी या एयर इंडिया : बिक्री की विसंगतियां

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टेंडर्ड में सरकार की ओर से की गयी दो बिक्रियों के माध्यम से सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों के परिचालन विसंगतियों को सामने लाने की कोशिश की है. एलआईसी का पेशकश मूल्य निजी क्षेत्री की प्रतिद्वंद्वी कंपनयों के मूल्यांकन की तुलना में बहुत कम था. इसके बावजूद सूचीबद्धता के बाद से इसके शेयरें की कीमत लगातार गिरी.

कोल इंडिया समेत तमाम सरकारी कंपनियों का इतिहास यही रहा है. एलआईसी की 96.5 फीसदी हिस्सेदारी अभी भी लगातार सरकार के पास है. इसके विपरीत एयर इंडिया का पूरी तरह निजीकरण कर दिया गया. इससे पहले सरकार ने करीब 50 हजार करोड़ का कर्ज बट्टा खाते में डाला.

नाइनन कहते हैं कि अरुण शौरी ने वाजपेयी सरकार में जिन कंपनियों को बेचा था, उनका प्रदर्शन बेहतर रहा. जिन कंपनियों में थोड़ी भी हिस्सेदारी सरकार की रहती है उनका प्रदर्शन वैसा नहीं होता. रक्षा क्षेत्र में हिन्दुस्ता एरोनॉटिक्स और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स को परिचालन स्वतंत्र का लाभ मिला. लेकिन, ये उदाहरण अपने-अपने क्षेत्र में एकाधिकार वाले हैं. कहा यह भी जाता है कि निजी क्षेत्र की नाकामी भी उतनी ही आम है जितनी सरकारी क्षेत्र की.

लाइसेंस पाने वाले अधिकांश निजी बैंक मसलन ग्लोबल ट्रस्त और सेंचुरियन आदि ठप हो गये जबकि यस बैंक और अन्य बैंक घोटालों में फंस गये. दूरसंचार कंपनियों और निजी विमानन कंपनियों में भी ऐसा ही हुआ. लेखक का कहना है कि प्रतिस्पर्धा में हारनने वाले बाहर हो जाते हैं जबकि सरकारी कंपनियों में करदाताओं का पैसा ल गाने का सिलसिला जारी रहता है. निजीकरण के विरुद्ध असल दलील होती है कि सरकारी कंपनियों की बिक्री से किसी न किसी बड़े घराने को फायदा होने की संभावना रहती है.

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अतीत से सीखना जरूरी

गोपाल कृष्ण गांधी ने टेलीग्राफ में लिखा है कि 2 अक्टूबर 2022 आने में अभी वक्त है. “ख़बर नहीं है जब अगले पल की, समझ मना को जाने कल की”, फिर भी प्रशांत किशोर 3 हजार किलोमीटर की पदयात्रा चंपारण से शुरू करने जा रहे हैं जहां से गांधीजी ने पहला सत्याग्रह शुरू किया था. किशोर अधिकांश बिहार का दौरा करेंगे और बिहार को ऊपर की ओर ले जाएंगे. उनकी योजना बिहार और भारत के लिए सफल हो. लेखक इस पहल को ऐतिहासिक, राजनीतिक और वर्तमान भारत के संदर्भ में देखने की जरूरत बताते हैं.

प्रशांत किशोर से अपनी एक मुलाकात का जिक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि जब वे कोविड काल में उनसे मिले थे तो पश्चिम बंगाल चुनाव को लेकर उनके दावे बाद में सही साबित हुए. उन्होंने यह जताया था कि चुनाव और राजनीति से लगातार जुड़े रहने के बावजूद उन्हें जनता के लिए काम करने को लेकर बेचैनी है. खासकर बिहार के लिए वे काम करना चाहते हैं. लेखक ने उन्हें जय प्रकाश नारायण की भी याद दिलायी थी. प्रशांत किशोर की विशेषज्ञता उन्हें सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने का रास्ता बनाती है लेकिन बिहार जन सुराज योजना से ऐसा हो सकेगा, ऐसा लेखक को नहीं लगता. जैसे जेपी से पूर्ण क्रांति का मतलब पूछा गया था प्रशांत से भी ‘जन सुराज’ के मायने पूछे जा सकते हैं.

गोपाल कृष्ण गांधी लिखते हैं कि यह समझना जरूरी है कि गांधीजी बिहार स्वयं नहीं पहुंचे थे, उन्हें बुलाया गया था. उनके साथ बाबू ब्रज किशोर प्रसाद और बाबू राजेद्र प्रसाद जैसे वकील थे. उन्होंने इस बात का ख्याल रखा था कि नौकरशाही कहीं उनके विरुद्ध ना हो जाए. प्रशांत किशोर का अपना मकसद है. बिहार को ‘ऊपर उठाना’ और ‘जन सुराज’ उनका मकसद है. सरकार उन्हें संदेह की नज़र से देख रही है. जेपी तक भी कभी मॉडल नहीं बन सके. भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का वे प्रतीक बन चुके थे. बिहार के लोगों के साथ उनका जुड़ाव था. आंदोलन के दौरान ही वास्तव में वे लोकनायक बने.

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महिलाओं का खुद उन पर हक क्यों नहीं?

टाइम्स ऑफ इंडिया में नितिशा सिंह ने लिखा है कि जिस आधुनिकता पर हम गर्व करते हैं उसने हमें यह अहसास दिया है कि हम हर किस्म की बाधाओं को तोड़ और आगे बढ़ सकते हैं. लेकिन क्या हम सही मायने में आधुनिक हैं? टीवी पर डियोड्रेन्ट के विज्ञापन में महिलाएं सेक्स की इच्छा पूरी करने वाली चीज़ नज़र आती हैं.

सीरियल और सिनेमाओं में महिलाओं का चित्रण नागिन के तौर पर होता है. महिलाएं इस रूप में दिखायी जाती हैं जिन्हें जीता जा सकता है. ‘जलेबी बाई’ जैसे गीत बच्चों को सिखा रहे हैं कि महिलाओं का निरूपण कैसे किया जाना है. महिलाएं निर्जीव पहचान के अलावा कुछ नहीं है.

नितिशा सिंह लिखती हैं कि दुनिया भले ही सृजन, पुनर्जागरण और पश्चिमीकरण जैसे सशक्त शब्दों पर यकीन करती हो, लेकिन वास्तव में जब तक हम महिलाओं को वस्तु के रूप में देखना बंद नहीं करते, ये सारी बातें निरर्थक हैं. मैरिटल रेप को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से यह सवाल और भी महत्वपूर्ण होकर उभरा है. हम यह मानने तक में डरते हैं कि महिलाओं का अधिकार उनके अपने शरीर पर भी है.

अतीत में महिलाएं बिकने वाली वस्तु मानी गयीं. कन्या दान और दहेज के तौर पर कुंआरी बेटियों की कीमत लगायी गयी. इसके अलावा जिसके हाथों लड़कियां ब्याही जातीं उनके आदेश पर चलने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया जाता. बदले में पति बाकी मर्दों से उसकी रक्षा करते. वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत आदान-प्रदान! शायद इसी वजह से मैरिटल रेप पर अतीत में भी कभी चर्चा नहीं हुई.

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