कोरोनवायरस के हाहाकार में यूं आपको किसी दूसरे बीमारी के आंकड़े जानने में दिलचस्पी नहीं होगी. फिर भी इसे प्रस्तुत करना, हमारा फर्ज है. 2018 में हमारे देश में सबसे बड़ा संचारी रोग, न्यूमोनिया था. जितने लोग संक्रमित हुए उनमें से 30 फीसदी की मौत हो गई. फिर सांस की बीमारियों, एक्यूट डायरिया और स्वाइन फ्लू से क्रमशः 27, 10.55 और 8 फीसदी लोग मारे गए थे. दूसरी बीमारियां हैं, टायफॉयड, हेपेटाइटिस और इंसेफेलाइटिस और तो और, 2018 में सिर्फ छत्तीसगढ़ में मलेरिया के 77 हजार से ज्यादा मामले थे और इससे 26 लोगों की मौत हुई थी.
इन आंकड़ों के बाद कोविड 19 पर बात करना मौजूदा वक्त की एक बड़ी जरूरत है. क्या इस घबराहट के बीच हमें एक सवाल फिर नहीं करना चाहिए. वह सवाल यह है कि क्या अब भी हम सेहत को बुनियादी मानवाधिकार मानने का फैसला नहीं करेंगे. लंबे समय से इस पर बहस चल रही है कि स्वास्थ्य सेवाएं एक प्रिविलेज क्यों बनी हुई हैं और क्यों आम आदमी को इस ‘सुविधा’ से वंचित रखा जा रहा है. कोविड 19 के प्रकोप के साथ, इस सवाल की प्रासंगिकता पहले से अधिक है.
भारत में स्वास्थ्य सेवाएं एक प्रिविलेज ही हैं
भारत में स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर है. हैदराबाद के सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड सोशल स्टडीज की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बहुत कम किया जाता है, जिसका असर लोगों की सेहत पर पड़ता है. उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करने के लिए इतना पैसा खर्च करना पड़ता है जो उनके बस में नहीं होता.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपने बजट दस्तावेज में भी इस बात को स्वीकार किया है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत अधिक खर्च करने के कारण हर साल करीब 7 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं. उन्हें इसके लिए अपनी आय या बचत से खर्च करना पड़ता है.
नेशनल सैंपल सर्वे के 71 वें राउंड में कहा गया था कि शहरों में रहने वाले 75 प्रतिशत लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्चे के लिए उधार लेना पड़ता है.
यह भी देखा गया है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों में उपचार के लिए सबसे बड़ा स्रोत निजी डॉक्टर ही हैं. 2013-14 के हाउसहोल्ड हेल्थ एक्सपेंडिचर के आंकड़े कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 72 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में लगभग 79 प्रतिशत बीमारियों का इलाज निजी क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टर करते हैं. बीमारियों के इलाज के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का प्रयोग करने के मामले हरियाणा, बिहार और उत्तर प्रदेश में सबसे कम हैं. इसका कारण क्या है? सबसे बड़ा कारण तो यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं की क्वालिटी खराब है.आस-पास सरकारी अस्पताल मौजूद ही नहीं और जो मौजूद हैं, वहां लंबी लाइनें हैं. वहां बहुत सारा समय खराब होता है. कई बार स्वास्थ्यकर्मी मौजूद भी नहीं होते.
अगर सरकार अधिक खर्च करे तो स्थिति बदल सकती है
स्थिति खराब इसीलिए है क्योंकि, जैसा मशहूर इकोनॉमिस्ट अमर्त्य सेन कहते हैं, सरकार का स्वास्थ्य बजट हैती और सियरा लिओन जैसे देशों के ही बराबर है. इस साल के केंद्रीय बजट में सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 67,112 करोड़ रुपए आबंटित किए हैं. 2008-09 और 2019-20 के बीच कुल मिलाकर भारत का सरकारी स्वास्थ्य व्यय जीडीपी के 1.2% से 1.6% के बीच रहा है. यह व्यय चीन (3.2%), यूएसए (8.5%) और जर्मनी (9.4%) जैसे अन्य देशों की तुलना में काफी कम है. इसके अलावा भारत का स्वास्थ्य अनुसंधान का बजट कुल बजट का महज 3 प्रतिशत होता है. 2011 में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज पर उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह बनाया गया था. उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि
सरकार अगर स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करेगी, दवाएं वगैरह उपलब्ध कराएगी तो लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं आसानी से उपलब्ध होंगी. लेकिन है उससे उलटा. नेशनल सैंपल सर्वे के 71 वें राउंड में यह भी कहा गया है कि 86% ग्रामीण और 82% शहरी लोग किसी सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कवरेज के दायरे में नहीं आते.
कई देश देते हैं अच्छी सेहत की गारंटी
यूं सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सेहत को मौलिक अधिकार बता चुका है. अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बताता है. इस अनुच्छेद में जीवन के अधिकार का यह मायने भी है कि व्यक्ति को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार मिले. स्वास्थ्य का अधिकार गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार में अंतर्निहित है. इसके अलावा इस अनुच्छेद 21 को अनुच्छेद 38, 42 और 47 के साथ पढ़ा जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि राज्य की क्या बाध्यताएं हैं.
अनुच्छेद 38 कहता है कि राज्य लोक कल्याण के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा.अनुच्छेद 42 और 47 प्रसूति और पोषाहार की बात करते हैं. इसके अलावा डब्ल्यूएचओ जैसे संगठन का कहना है कि सेहत का अर्थ सिर्फ बीमारी से मुक्ति नहीं, व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य भी है.
यह अधिकार कई देश अपने नागरिकों को देते हैं. ग्लोबल पब्लिक हेल्थ नामक मैगजीन में यूसीएलए फील्डिंग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि संयुक्त राष्ट्र के 73 सदस्य देश किसी न किसी तरह की मेडिकल केयर सर्विस की गारंटी देते हैं.पर सिर्फ 27 देश इस अधिकार की गारंटी देते हैं. उरुग्वे, लातविया और सेनेगल जैसे देशों में भी सेहत के अधिकार की गारंटी दी गई है.इनके संविधान सरकारी स्वास्थ्य की गारंटी देते हैं. सिंगापुर, पोलैंड, हंगरी, मैक्सिको, कोस्टा रिका, ब्राजील और क्यूबा जैसे देशों में स्वास्थ्य सेवाएं बहुत सस्ती हैं. क्यूबा की सरकार राष्ट्रीय स्वास्थ्य को प्रशासनिक जिम्मेदारी मानती है. वहां कोई निजी अस्पताल नहीं हैं, बल्कि सभी सेवाएं सरकार दिया करती है.
आंकड़े कहते हैं कि क्यूबा में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय 118 अमेरिकी डॉलर के करीब है.डब्ल्यूएचओ तक क्यूबा की इस मामले में तारीफ कर चुका है. तीसरी दुनिया के देशों को भी क्यूबा से फायदा हुआ है. 1963 से क्यूबा लगातर गरीब देशों की मदद करता है. करीब 30 हजार क्यूबन मेडिकल स्टाफ दुनिया के 60 देशों में काम कर रहे हैं. कोविड 19 की स्थिति में भी क्यूबा में अब तक सिर्फ सात लोग संक्रमित हैं और वे भी सब विदेश से आए हुए हैं.
हमारे पास अब भी वक्त है
फिलहाल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर स्वास्थ्य को बुनियादी मानवाधिकार बनाए जाने की वकालत की जा रही है. बर्नी सेंडर्स जैसे नेता लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि आम जन को सेहत का अधिकार मिलना ही चाहिए. हमारे यहां इस पर फिलहाल कोई चर्चा नहीं है. चुनावों में भी ऐसे मुद्दे कम ही उठाए जाते हैं. पिछले साल 15वें वित्त आयोग के एक उच्च स्तरीय समूह ने कहा था कि 2022 तक हमें स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार बनाया जाना चाहिए. स्वास्थ्य के विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाला जाना चाहिए.
कोविड 19 के प्रकोप के साथ, इस मुद्दे पर हमें और गंभीरता से विचार करना चाहिए. हमारे पास अब भी वक्त है, इसीलिए हम सच को कबूल करके, एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हों- क्योंकि यह हम सबके इम्तिहान का वक्त है.
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