संसद भवन से महज दो किलोमीटर दूर प्रखर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के नाम पर एक अस्पताल है. वही लोहिया जिन्होंने कहा था- ''जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है". छंटनी के शिकार हुए इस अस्पताल के 42 संविदा कर्मचारी पिछले एक माह से सड़क पर हैं.
43 वर्षीय नानक चंद इस अस्पताल में साल 2010 से वर्कशॉप वर्कर के पद पर कार्यरत थे. खुद 85% विकलांग नानक अस्पताल में कृत्रिम अंग बनाने का काम करते थे. भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले इस अस्पताल से अब इनकी छुट्टी कर दी गई. जबकि ये किसी कंपनी के माध्यम से ठेके पर लगाए गए कर्मचारी नहीं थे, बल्कि अस्पताल द्वारा साक्षात्कार और मेडिकल टेस्ट के बाद नियुक्त कर्मी थे.
अपनी पोलियोग्रस्त पत्नी, मां और दो बेटियों के साथ लाल कुआं (बदरपुर) में रहने वाले नानक प्रधानमंत्री मोदी के कथनी और करनी के फांक को समझाते हुए कहते हैं, एक तरफ तो मोदी जी हम दिव्यांगों को दिव्य शक्ति वाला बताते हैं और दूसरी तरफ हमारा रोजगार छीन लेते हैं.
गत 12 वर्षों से अस्पताल में अपनी सेवा देने वाले अभिनव भटनागर का कहना है कि दिव्यांगजनों के इलाज में सहायक पीएमार (Physical Medicine And Rehabilitation) विभाग में रोजाना 150 से 200 मरीज आते थे. बावजूद इसके अस्पताल प्रशासन का कहना है कि वो अब विकलांगों को सेवा नहीं देंगे. इसलिए उन्हें हमारी जरूरत नहीं है.
कृत्रिम अंग विशेषज्ञ अभिनव ने प्रतिष्ठित वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज (सफदरजंग अस्पताल) से स्नातक की पढ़ाई की है. पीजी भी किया है. फिर भी घर चलाने की मजबूरी ऐसी की मात्र ₹17,000 मासिक वेतन की नौकरी करते थे. अब वो नौकरी भी नहीं रही.
ये कहानी किसी एक अभिनव या नानक की नहीं है. राम मनोहर लोहिया अस्पताल (RML) से 42 ऐसे लोगों को निकाला गया है जो वहां 12 से 17 साल से काम रहे थे. इसमें कुक से लेकर लैब टेक्नीशियन और डाइटिशियन तक शामिल हैं.
अस्पतालों के बाहर उगे 'मिनी जंतर-मंतर'
दिल्ली के अस्पतालों के बाहर अब सिर्फ मरीज और उनके परिजन सोते नहीं पाए जाते. अस्पताल से निकाले गए ऐसे कर्मचारी भी सुस्ताते दिखते हैं जो नारा लगा लगाकर थक गए होते हैं. राजधानी के लगभग सभी बड़े सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के बाहर ये नजारा अब आम होने लगा है.
चाहे वो राम मनोहर लोहिया अस्पताल (RML) हो, राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग (RAKCON) या लेडी हार्डिंग अस्पताल (LHMC) हो. इन सभी संस्थानों के बाहर गुहार और आक्रोश के मिश्रण से बने नारों की तख्ती लिए छंटनी के शिकार कर्मचारी नजर आ जाएंगे.
LHMC से 400 से ज्यादा संविदा कर्मियों के छंटनी की खबर है. 80 तो सिर्फ एमटीएस नर्सिंग कर्मी हैं जो कोरोना महामारी के दौरान वेंटिलेटर और बाइपैप मशीन जैसी महत्वपूर्ण जीवन-रक्षक मशीनों को संचालित करते थे.
दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट राकेश ने भी कोविड की दूसरी लहर के दौरान LHMC में मल्टी टास्किंग स्टाफ के तौर पर ज्वाइन किया था. राकेश पूरी साफगोई से नौकरी पाने और छिन जाने का विवरण देते हैं, 4 मई 2021 को कॉम्पीटेंट सर्विस नाम की एक कंपनी अस्पताल परिसर में आयी थी. उसका ऑफिस महरौली के डीडीए फ्लैट में है. कंपनी को मल्टी टास्किंग स्टाफ चाहिए था. कई लोग इस कंपनी के जरिए भर्ती हो गए.
कंपनी ने पहले ही बता दिया कि नौकरी 100 दिन की होगी. इसे लेकर उन्होंने एक पेपर भी साइन करा लिया. नौकरी की जरूरत थी इसलिए हम सभी ने कंपनी की शर्त मान ली. 100 दिन पूरे हुए लेकिन नौकरी बची रही.अस्पताल ने हमसे 11 महीने काम लिया.
कोविड के दौरान हमने लोगों के डायपर बदले, उल्टियां साफ की, पुलिस की लाठी खाकर भी अस्पताल पहुंचे. कोरोना में अस्पताल की नौकरी करने की वजह से मोहल्ले के दुकानदार सामान नहीं देते थे, पड़ोसी बात नहीं करते थे. हमने इतना सब क्या इसलिए झेला कि हमें एक दिन दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाए? अगर उन्हें हटाना था तो तीन महीने में ही क्यों नहीं हटा दिया? अस्पताल वालों का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो गया इसलिए निकाल दिया. हम जानना चाहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट तो तीन महीने में ही खत्म हो गया था फिर हमें 11 महीने क्यों रखा?
राकेश की बात से अपनी बात जोड़ते हुए 22 वर्षीय सुमित कहते हैं, हममें से आधे लोग कोविड के दौरान संक्रमित हो गए थे. मैं खुद दो बार कोविड पॉजिटिव हुआ था. उस दौरान डॉक्टर और दूसरे नर्सिंग स्टाफ छुआछूत करते थे. जैसे ही कोई कोविड पेशेंट आता, हमें काम पर लगा दिया जाता था. कोविड से किसी की मृत्यु होने पर उसके शव को कोई हाथ नहीं लगाता था. हम लोग ही बॉडी पैक कर मोर्चरी ले जाते थे.
बता दें कि ये एमटीएस और कुछ लैब टेक्नीशियन एक अप्रैल से हर रोज सुबह 10 से शाम पांच बजे तक अस्पताल के बाहर प्रदर्शन करते हैं. इनमें ज्यादातर महिलाएं हैं, जो बस किसी भी तरह नौकरी वापस चाहती हैं. 42 वर्षीय अर्चना सिंह सिंगल मदर हैं. एक बेटी है जो 10वीं की बोर्ड परीक्षा देने वाली है. अर्चना न्याय की गुहार लगाते हुए कहती हैं,
अब भी अस्पताल में कर्मचारियों की जरूरत है. संविदा कर्मियों की भर्ती निकल रही है. अस्पताल का विस्तार हो रहा है. लेकिन हमें नहीं रखा जा रहा है. अस्पताल में एक-एक बंदे को दो-दो, तीन-तीन वार्ड दिया गया है. एक वार्ड में 50 से 70 बेड होते हैं. बताइए क्या एक इंसान के लिए दो-दो तीन-तीन वार्ड संभालना संभव है?
RML और LHMC के बाद अब एक नजर राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग (RAKCON) पर भी डाल लेते हैं. राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग न सिर्फ इंडिया, बल्कि पूरे साउथ एशिया रीजन में अपने क्षेत्र का नामी संस्थान माना जाता है.
इस संस्थान ने 40 संविदा कर्मियों को निकाला था. इसमें 16 हाउसकीपिंग का काम करने वाले, 16 मेस के कर्मचारी बाकी ड्राइवर और माली थे. 31 मार्च इन सभी कर्मचारियों के लिए भी नौकरी का आखिरी दिन साबित हुआ था. चार साल से मेस में अपनी सेवा दे रहे 22 वर्षीय बिकेश कुमार कहते हैं- "हमारी भी भर्ती कॉम्पीटेंट सर्विस के तहत हुई थी. बहुत से कर्मचारी हैं जो सात-सात साल से काम कर रहे थे. हमें कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने और कॉन्ट्रैक्टर चेंज होने के नाम पर निकाल दिया गया. हमारा कहना है कि दूसरा ठेकेदार भी तो इंसानों को ही काम पर रखेगा, तो हमें ही रख लेने में क्या दिक्कत है. पिछली बार भी निकाला गया था तो हम पांच महीने धरना पर बैठे थे. केस लड़े थे. तब जाकर दोबारा नौकरी मिली थी. अब देखिए फिर निकाल दिया."
वर्कर यूनियन की मदद से संविदाकर्मी एक बार फिर कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं. बिकेश बताते हैं कि हमें कोर्ट की तरफ से स्टे मिल गया है. निकाले जाने से पहले ही हम लोगों ने स्टे ले लिया था. फिर भी निकाल दिया. कोर्ट को तो वो लोग मानते ही नहीं हैं.
सरकार और ठेकेदार का खिलौना बने संविदा कर्मी
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों की मानें तो अप्रैल में देश की बेरोजगारी दर 7.83 फीसदी पहुंच गई है. ये पिछले माह से 0.23 फीसदी अधिक है. प्रतिशत में नजर आ रहे इन आंकड़ों का अर्थ ये है कि देश में बेरोजगारी भयावह रूप ले रही है.
CMIE ने ही पिछले दिनों बताया था कि भारत में 45 करोड़ ऐसे भी बेरोजगार हैं जो नौकरी की तलाश ही छोड़ चुके हैं. भारत जैसे युवा देश में बेरोजगार नागरिकों द्वारा नौकरी की तलाश छोड़ देना चिंता की बात होनी चाहिए. बेरोजगारी के साथ महंगाई की जुगलबंदी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है.
ऐसे में लोगों के पास चुनने के विकल्प लगातार कम होते जा रहे हैं. जिसे जो नौकरी जिस शर्त पर मिल रही है, कर ले रहा है. सरकारों की तरफ से पक्की नौकरी की जगह लगातार ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसका सीधा नुकसान संविदा कर्मियों को हो रहा है. छंटनी होने पर सरकारी संस्थान ये कहकर पल्ला झाड़ लेते है कि जाओ उस कंपनी से बात करो जिसके जरिए काम पर आए थे. और कंपनी ये कहकर पीछा छुड़ाती है कि कॉन्ट्रैक्ट ही खत्म हो गया तो हम क्या करें.
ताजा उदाहरण LHMC से निकाले गए संविदा कर्मी हैं. प्रदर्शनकारी संविदा कर्मियों के काफी निवेदन के बाद DDA (Deputy Director Admin) सुनील भदौरिया ने 4 मई को मिलने का समय दिया. नौकरी वापस पाने की गुहार लगाने गए कर्मचारियों के मामले को सुनील भदौरिया ने चंद वाक्यों में रफा-दफा कर दिया.
छंटनी की शिकार संविदा कर्मी मंजू बताती हैं कि,
डीडीए सर ने साफ कहा- हम आप लोगों को नहीं जानते. हमें कोविड में लोगों की जरूरत थी. हमने कॉन्ट्रैक्टर से संपर्क किया. उन्होंने हमें 80 लोग लाकर दिए. अब हमें जरूरत नहीं है. आप कॉन्टैक्टर से संपर्क कीजिए. उससे काम मांगिए. या पहले जो करते थे वो करने चले जाइए.
मंजू की बात सुनने के बाद हमने कॉम्पीटेंट सर्विस से संपर्क किया. उनका कहना था कि नौकरी सिर्फ 100 दिन के लिए थी. बाद में अस्पताल की तरफ से कॉन्ट्रैक्ट बढ़ता गया तो हम भी नौकरी की अवधि बढ़ाते गए. लेकिन अब कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो गया है.
सवाल उठता है कि इस परिस्थिति में संविदा कर्मी क्या करें? वो कहां जाएं? क्या नौकरी करना और राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका अदा करना उनकी गलती है? या आर्थिक रूप से कमजोर परिवेश में पैदा होकर उन्होंने गलती की है?
सरकार और कॉन्ट्रैक्टर के बीच फंसे संविदा कर्मियों के जीवन में यही से एंट्री होती है ट्रेड यूनियन की. ऊपर जितने भी संस्थानों का जिक्र हुआ है, उन सभी से निकाले गए ज्यादातर संविदा कर्मियों के लिए AICCTU (All India Central Council of Trade Unions) कानूनी लड़ाई लड़ रहा है.
AICCTU के राज्य सचिव सूर्य प्रकाश का कहना है कि सरकार अपना दामन साफ रखने के लिए प्राइवेट कंपनी का इस्तेमाल करती है. कॉन्ट्रैक्ट का ये पूरा सिस्टम ही इसलिए बनाया गया ताकि मंत्रालय और ठेकेदार के बीच आसानी से भ्रष्टाचार हो सके.
कॉन्ट्रैक्ट पर हायरिंग फौरी और छोटे कामों के लिए होता है. इस सरकार ने तो पूरा सिस्टम ही कॉन्ट्रैक्ट पर दे दिया है. लेडी हार्डिंग अस्पताल से निकाले गए एमटीएस का जिक्र करते हुए सूर्य कहते हैं, ये सभी Nursing Orderly के लिए रखे गए कर्मचारी थे यानी ये डॉक्टर और नर्स को असिस्ट करते थे. ये परमानेंट एंड पेरेनियल नेचर ऑफ वर्क है. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया कानून की धज्जी उड़ाकर हर जगह कॉन्ट्रैक्ट पर काम करवा रही है.
सूर्य प्रकाश लेबर कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक संविदा कर्मियों के केस लड़ रहे हैं. कैट (सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल) से भी राहत दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. LHMC के संविदा कर्मियों के अधिकार और सरकार के वादे को याद दिलाते हुए सूर्य कहते हैं, महामारी के भयंकर प्रकोप के दौरान भारत सरकार का एक नोटिफिकेशन आया था जिसमें 100 दिन की 'कोविड ड्यूटी' पूरा करने वाले कर्मचारियों को 'पक्की नौकरी' में प्राथमिकता देने का वादा किया गया था. इन सभी कर्मचारियों ने लगातार 11 माह ड्यूटी की है. लेकिन पक्की नौकरी तो दूर, सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी भी छीन ली.
बता दें कि मध्य प्रदेश के गुना से बीजेपी सांसद डॉ. कृष्णपाल सिंह यादव ने भी मोदी सरकार से कोरोना काल के दौरान नियुक्त चिकित्सकों एवं पैरामेडिकल स्टाफ को नियमित करने की मांग की है. 4 अप्रैल 2022 को बीजेपी सांसद ने लोकसभा में कहा था, मेरा सरकार से आग्रह है कि लाखों की संख्या में नियुक्त इन चिकित्सकों और कर्मचारियों की मेहनत को सम्मानित करते हुए, इन्हें स्थायी नौकरी दी जाए.
इसके अलावा राज्यसभा सांसद एम. शनमुगम भी इस मामले को लेकर चिंता व्यक्त कर चुके हैं. द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम नेता शनमुगम ने 4 अप्रैल 2022 को स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया और श्रम एवं रोजगार मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र लिखकर हस्तक्षेप करने की मांग की थी. संविदा कर्मियों की छंटनी को गैरकानूनी बताते हुए एम. शनमुगम ने लिखा था-
मैं आग्रह करता हूं कि इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सुनिश्चित किया जाए कि बर्खास्त किए गए सभी कर्मचारी बहाल हों. साथ ही सभी संविदा कर्मियों को नियमित किया जाए.
मजदूरों की कानूनी लड़ाई और अस्पतालों की मनमानी
सड़क की लड़ाई के साथ-साथ AICCTU की मदद से संविदा कर्मी कानूनी लड़ाई भी लड़ रहे हैं. राम मनोहर लोहिया अस्पताल के संविदा कर्मचारियों ने निकाले जान से 15 दिन पहले यानी 16 मार्च को ही CAT से स्टे ले लिया था. बावजूद इसके उन्हें काम से निकाल दिया गया. अब कर्मचारियों ने कंटेम्प्ट फाइल किया है. फिर भी कोई सुनने को तैयार नहीं है.
अपनी समस्या को लेकर RML के कर्मचारी स्वास्थ्य मंत्री से भी मिल चुके हैं. छंटनी के शिकार अभिनव बताते हैं कि स्वास्थ्य मंत्री ने आश्वासन देते हुए मामले की जांच उन्हीं ज्वाइंट सेक्रेटरी वंदना जैन को सौंप दी है, जिनकी वजह से संविदा कर्मियों की नौकरी जा रही है.
वंदना जैन पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने का आरोप लगाते हुए अभिनव कहते हैं, हम प्राइवेटाइजेशन के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन उसकी वजह से होने वाली धांधलियों के खिलाफ हैं. कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू कराने के नाम पर हर साल संविदा कर्मियों से 25-25 हजार रुपये की उगाही की जाती है. जो कर्मचारी पैसा नहीं देते उन्हें हटाकर दूसरे कर्मचारियों को रखा जाता है. ये धांधली का स्ट्रक्चर है. इसलिए सरकार चाहती है कि थर्ड पार्टी के रूप में कंपनी बीच में रहे. ताकी वो अपनी जिम्मेदारी से बच पाए.
संविदा कर्मियों और लेबर यूनियन के आरोपों का जवाब लेने हम RML के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ. बी. एल. शेरवाल के दफ्तर पहुंचे. थोड़ा लम्बा इंतजार कराने के बाद वो बातचीत को राजी हुए. लेकिन संविदा कर्मियों का जिक्र आते ही वो DDA (Deputy Director Admin) से मिलने की सलाह देते हुए चलते बने.
मेडिकल सुपरिटेंडेंट के निजी सचिव ने DDA ऑफिस में कॉल कर इस बात की जानकारी दे दी. DDA आर. बी. कुशवाहा के दफ्तर पहुंचने पर उन्होंने बिना सवाल सुने कहा ‘हम मीडिया से बात नहीं करेंगे’ जबकि अदालत में इस मुद्दे पर अस्पताल का पक्ष कुशवाहा ही रख रहे हैं.
कुशवाहा के मुताबिक, अस्पताल में कोई भी अधिकारी संविदा कर्मियों के मुद्दे पर बात करने के लिए अधिकृत नहीं है. उन्होंने कहा- आपको जो भी बात करना है, जाकर मेडिकल सुपरिटेंडेंट से कीजिए.
RML की तरह RAKCON के संविदा कर्मियों के पास भी स्टे ऑर्डर है. कोर्ट की फटकार के बाद कुछ कर्मियों को वापस नौकरी पर भी रखा गया है. लेकिन बाकी सब अब भी इंतजार में हैं.
जब RAKCON का पक्ष जानने प्रिंसिपल ऑफिस पहुंचे तो एक नई जानकारी ने ही झटका दे दिया. प्रिंसिपल ऑफिस के कर्मचारी के मुताबिक RAKCON में करीब 10 साल से प्रिंसिपल का पद खाली है. संस्थान एक्टिंग वाइस प्रिंसिपल के भरोसे चल रहा है. लंबे समय से असिस्टेंट प्रोफेसर डेजी थॉमस एक्टिंग वाइस प्रिंसिपल का प्रभार संभाल रही हैं. उनसे जब इस बाबत बातचीत का प्रयास किया तो उन्होंने अथॉरिटी न होने का जिक्र करते हुए कोई भी टिप्पणी करने में असमर्थता जताई.
वहीं LHMC के संविदा कर्मी दोबारा दिल्ली हाईकोर्ट जाने की तैयारी में हैं. इन कर्मियों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने तो कोरोना में 100 दिन काम करने वालों को नौकरी में प्राथमिकता देने की बात कही थी, फिर हमें क्यों निकाल दिया.
इस मामले में जब LHMC का पक्ष जानने पहुंचे तो लगभग वही हाल हुआ जो RML में हुआ था. 2 मई को DDA के निजी सहायक ने 6 मई का अपॉइंटमेंट दिया. 6 मई को पहुंचने पर DDA ने ऑन रिकॉर्ड कुछ भी कहने से मना कर दिया.
लेकिन अस्पताल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पहचान उजागर न करने की शर्त पर कुछ जानकारी साझा की. अधिकारी ने केंद्र सरकार के 100 दिन वाले नोटिफिकेशन को एडवाइजरी बताते हुए कहा, वो बस एक सलाह मात्र था जिसे मानने के लिए अस्पताल खुद को बाध्य नहीं समझता.
सरकार से सवाल
LHMC से निकाल दी गई संविदा कर्मचारी अर्चना सिंह भारत सरकार से पूछती हैं, क्या हमारी गवर्नमेंट गरीब हो गई है? टीवी में तो दिखाया जा रहा है कि भारत दूसरे देशों की मदद कर रहा, फिर हमें वेतन देने में क्या परेशानी है?
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