सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के पूर्व जजों की एक कमिटी ने दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार पर तीखे आरोप लगाने वाली एक रिपोर्ट जारी की है. यह रिपोर्ट दो साल पहले दिल्ली में हुए दंगों (Delhi Riots) पर है. इस रिपोर्ट का नाम है- अनसर्टन जस्टिस: अ सिटिजन्स कमिटी रिपोर्ट ऑन द नॉर्थ ईस्ट दिल्ली वायलेंस 2020. इसमें कहा गया है कि: "केंद्र और राज्य सरकार लोगों की जिंदगी, संपत्ति और कानून के शासन की रक्षा करने की अपनी जिम्मेदारी निभाने से चूक गई. हिंसा को दो साल हो गए लेकिन जवाबवदेही का मुद्दा अब भी जस का तस है.”
इस रिपोर्ट को लिखने वाली शख्सीयतें हैं- सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर, मद्रास के पूर्व चीफ जस्टिस और विधि आयोग के पूर्व चेयरमैन एपी शाह, हाई कोर्ट के पूर्व जज आर.एस. सोढ़ी, पटना हाई कोर्ट की पूर्व जज अंजना प्रकाश और भारत सरकार के पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई. जस्टिस लोकुर इस कमिटी के चेयरपर्सन हैं.
फरवरी 2020 में दिल्ली के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में दंगे हुए थे जिनमें 53 लोग मारे गए थे- 40 मुसलमान और 13 हिंदू, जबकि कई लोग घायल हुए थे. हिंसा के बाद कई गिरफ्तारियां हुईं जिनमें यूएपीए के तहत कई एक्टिविस्ट्स को भी गिरफ्तार किया गया.
कमिटी की तीन हिस्सों वाली, 171 पेज की लंबी रिपोर्ट के कुछ हिस्से इस तरह हैं.
दिल्ली पुलिस की नाकामी
रिपोर्ट में सबसे पहले सवाल किया गया है कि दिल्ली पुलिस "23 फरवरी तक घोर ध्रुवीकरण से निपटने के लिए कोई निवारक या दंडात्मक उपाय करने में विफल क्यों रही." विशेष रूप से रिपोर्ट में 2020 के दंगों की तुलना अप्रैल 2022 में दिल्ली के जहांगीरपुरी में हुई सांप्रदायिक हिंसा से की गई है, और कहा गया है कि दोनों में दिल्ली पुलिस ने अलग तरह से कार्रवाई की थी. रिपोर्ट में कहा गया है, "दिल्ली में हाल की घटनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि शहर में सुरक्षा बल की तैनाती कितनी तेजी से हो सकती है."
“अप्रैल 2022 में जहांगीरपुरी (उत्तर पश्चिम दिल्ली) में सांप्रदायिक हिंसा की एक घटना के बाद सैकड़ों पुलिस और अर्धसैनिक बलों की अतिरिक्त कंपनियों को तुरंत तैनात किया गया. इलाके में एक डेमोलिशन अभियान की तैयारी के लिए रातों रात 1500 पुलिसकर्मियों को जुटाया गया (अनुरोध सिर्फ 400 का था). जब यह तैयारी मुमकिन है तो यह समझ से परे हैं कि 23 फरवरी, 2020 को उत्तर पूर्वी दिल्ली में जरूरी तैनाती क्यों नहीं की गई? यानी यह स्थिति इस बात की तरफ इशारा करती है कि केंद्र सरकार ने अपने संसाधनों और क्षमता के अनुरूप हिंसा को रोकने की कोशिश नहीं की."
दिल्ली पुलिस की मिलीभगत
इसके अलावा रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि दिल्ली पुलिस कई मामलों में हिंसा को रोकने में नाकाम रही. साथ ही हिंसा के कई दूसरे मामलों में "उसकी मिलीभगत" भी नजर आई. कमिटी ने मीडिया की कई रिपोर्ट्स का हवाला दिया जैसे:
“24 फरवरी को पुलिस की मिलीभगत के कई उदाहरण साफ नजर आए: चांद बाग में पुलिसवालों को उन लोगों के साथ देखा गया जिन्होंने CAA के खिलाफ धरने पर बैठे लोगों पर हमला किया था; कर्दमपुरी में CAA विरोधी प्रदर्शनकारियों के तंबुओं पर आंसू गैस के गोले दागे गए; यमुना विहार में भीड़ को पथराव करने और मुस्लिम नाम वाले एक स्टोर में तोड़फोड़ करने के लिए उकसाया गया. पुलिस ने कथित तौर पर 24 फरवरी को फैजान और चार मुस्लिम आदमियों पर सार्वजनिक रूप से हमला किया (यह हमला फैजान की मौत का कारण बना) जोकि पूर्वाग्रह के कारण पुलिसिया ताकत के दुरुपयोग का उदाहरण है. इस बात के गवाह और वीडियो फुटेज हैं कि 25 फरवरी को बृजपुरी में फारूकिया मस्जिद में नमाजियों और मुअज्जिन को पुलिस पीट रही थी.”
केंद्र सरकार और गृह मंत्रालय की आलोचना
रिपोर्ट में कहा गया है, "राजधानी दिल्ली भारत सरकार और दिल्ली सरकार, दोनों की सीट है. ऐसे में यह सच कि इसी राजधानी के एक जिले में चार दिनों तक सामूहिक हिंसा हुई, बताता है कि कैसे दोनों अपने संवैधानिक कर्तव्यों की निभाने में असफल रहे."
रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि कैसे दिल्ली पुलिस के साथ-साथ अर्धसैनिक बल, ये दोनों गृह मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं और इसलिए इसी मंत्रालय को नाकाफी पुलिसिया कार्रवाई और तैनाती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.
“केंद्र सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है. दिल्ली के लोगों की जिंदगी और संपत्ति की रक्षा करने की प्राथमिक जिम्मेदारी उसकी है. सभी संसाधन उसके पास हैं लेकिन फिर भी गृह मंत्रालय ने उत्तर पूर्वी हिंसा को रोकने के लिए कोई दखल नहीं दिया.”
नफरत फैलाने में मीडिया की 'महत्वपूर्ण भूमिका'
रिपोर्ट में कुछ न्यूज चैनलों की भूमिका का भी जिक्र है. रिपोर्ट कहती है, उन चैनलों ने "नफरत भरी खबरों को फैलाया."
"उनके रोजाना के दर्शक और सोशल मीडिया मौजूदगी यह पक्का करते हैं कि नफरत भरी खबरें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचें."
रिपोर्ट में जिन चैनलों का नाम दिया गया है, वे हैं रिपब्लिक और टाइम्स नाउ (अंग्रेजी), आज तक, जी न्यूज, इंडिया टीवी, रिपब्लिक भारत (हिंदी).
"विश्लेषण से पता चलता है कि सीएए से जुड़ी घटनाओं को हिंदू बनाम मुसलमान, के नजरिए से दिखाया गया. ये खबरें मुस्लिम समुदाय के खिलाफ पूर्वोग्रहों और संदेहों से भरी थीं. इन चैनलों ने सीएए के विरोध प्रदर्शनों को बदनाम किया. साजिश रचने का बेबुनियाद इल्जाम लगाया गया और कहा गया कि इन्हें जबरन बंद कराया जाए."
राजनेताओं और चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बीजेपी ने 2020 के दिल्ली चुनावों के लिए सीएए विरोधी प्रदर्शनों का इस्तेमाल किया. "सीएए विरोधी प्रदर्शनों को राष्ट्र-विरोधी और हिंसक बताने के लिए विभाजनकारी कहानियां गढ़ी गई."
चुनावी रैलियों और सार्वजनिक आयोजनों में कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर जैसे उम्मीदवारों और पार्टी नेताओं ने प्रदर्शनकारियों को “देशद्रोही” करार दिया. तथाकथित "देशद्रोहियों" के खिलाफ बार-बार बेहयाई से "गोली मारो" जैसे नारे लगाए गए और उसके लिए उन्हें किसी ने लताड़ नहीं लगाई.
रिपोर्ट कहती है कि कुछ मामलों में चुनाव आयोग ने कार्रवाई का आदेश दिया लेकिन वह काफी नहीं था. “आयोग ने इन राजनीतिक नेताओं के खिलाफ अभद्र भाषा के लिए प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया. चूंकि आयोग उनके खिलाफ आपराधिक अभियोजन शुरू करने में विफल रहा इसलिए चुनाव प्रचार में नफरत भरी भाषा का इस्तेमाल और बढ़ सकता है, "रिपोर्ट में कहा गया है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री “पूरी तरह से बेअसर”
कमिटी ने दिल्ली सरकार पर भी निशाना साधा, “दो समुदायों के बीच सुलह का जो कीमती समय था, उस दौरान भी उन्होंने कोई ठोस पहल नहीं की, इसके बावजूद कि चेतावनी भरे संकेत मिल रहे थे.”
जबकि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन आती है, रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली सरकार हालात को शांत करने में "सिविल मिडिएशन और शासकीय कुशलता" का उदाहरण दे सकती थी, जिसमें वह नाकामयाब रही.”
"सरकार और उसके लोकप्रिय मुख्यमंत्री को कुछ दिन पहले ही भारी चुनावी जीत हासिल हुई थी. इस जोरदार जनादेश के बाद उन्हें मजबूत कदम उठाना था लेकिन वह एकदम बेअसर, बेबस नजर आए.
इसके अलावा, रिपोर्ट में दिल्ली सरकार की आलोचना इस बात पर भी हुई कि उसने राहत और मुआवजे से संबंधित अपनी जिम्मेदारियों को "सार्थक तरीके से" नहीं निभाया. “सरकारी एजेंसियां हिंसा के दौरान राहत देने में असफल रहीं. राहत कैंपों की कमी थी और ईदगाह कैंप के यकायक बंद होने से कई कमजोर लोगों को शेल्टर नहीं मिला,” रिपोर्ट में कहा गया है.
UAPA को लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया
रिपोर्ट में एक्टिविस्ट्स और दूसरे लोगों के खिलाफ यूएपीए के दुरुपयोग पर भी सवाल उठाए गए हैं और कहा गया है कि कमिटी को "मौजूदा जांच में ऐसी कोई सामग्री नहीं मिली है जो इन आरोपों की पुष्टि करती है कि कथित आपराधिक कार्रवाई, एक आतंकवादी कार्रवाई है.
रिपोर्ट में कहा गया है, "मौजूदा मामले में यूएपीए लगाना न सिर्फ मामलों को खींचने की कोशिश है, बल्कि यह कानून का विकृतीकरण भी है. लगता है कि लोगों पर निशाना साधने के लिए ऐसा किया गया है."
उमर खालिद, शरजील इमाम, खालिद सैफी सहित कई एक्टिविस्ट्स दिल्ली दंगों के नाम पर दो सालों से ज्यादा समय से जेलों में बंद हैं.
“इसके अलावा चार्जशीट में जो सब लिखा है, उससे यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि सीएए को वापस लेने की मांग करने वाले लोगों का मकसद हिंदू समुदाय में आतंक फैलाना था- वह कानून जो जानबूझकर मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है. इसके विपरीत जैसा कि पहले के अध्यायों में सरकारी आंकड़ों से पता चलता है, इन हिंसक घटनाओं का शिकार होने वाले ज्यादा मुसलमान थे, जिनकी मौत हुई, जिन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया, जिनकी संपत्ति का नुकसान हुआ."
'मुसलमानों की एजेंसी को ही खत्म करने की कोशिश'
रिपोर्ट कहती है, ‘’हिंसा से पहले मुसलमान विरोधी भावनाएं भड़काई गईं और असल में हुई हिंसा की जड़ में वही थी.”
“मुस्लिम पहचान, व्यक्तिगत, उनके घर, कारोबार और इबादतगाहों को निशाना बनाया गया.” रिपोर्ट का कहना है.
“यह हमारा विचार है कि राज्य के कर्ताधर्ताओं की मिलीभगत से पैदा की गई घृणा, सांप्रदायिक विभाजन की भावना हिंसा में तब्दील हो गई. इन सामाजिक संबंधों के बदलने की कोशिश ने मुस्लिम पहचान और एजेंसी को कमजोर किया है.”
आखिर में रिपोर्ट में कहा गया है कि दंगों की जांच दिल्ली पुलिस के अलावा किसी अन्य निकाय को सौंपी जानी चाहिए, और जो कि गृह मंत्रालय के सीधे नियंत्रण में न हो.
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