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हाशिमपुरा कांड के पीड़ित बोले-दोषियों को फांसी होती तो सुकून मिलता

हाशिमपुरा कांड के गवाह का आरोप- शासन-प्रशासन ने केस को कमजोर करने की कोशिश की

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साल 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए नरसंहार मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार को निचली अदालत का फैसला पलटते हुए 16 पूर्व पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई. कोर्ट के इस फैसले के बाद पीड़ित परिजनों की आंखों से आंसू छलक उठे. इन आंसुओं में अपनों को खोने का गम था तो फैसले को लेकर सुकून भी. हालांकि, डबडबाई आंखों के साथ कुछ पीड़ितों ने कहा कि "अगर दोषियों को फांसी की सजा मिलती तो ज्यादा सुकून मिलता."

हाशिमपुरा कांड में करीब 31 साल बाद आए इस फैसले के बाद समाचार एजेंसी PTI ने हाशिमपुरा मोहल्ले में जाकर इस घटना के पीड़ितों और गवाहों से बातचीत की. उम्रकैद की सजा के इस फैसले से लोग थोड़ा संतुष्ट तो दिखे, लेकिन उनका कहना था कि दोषियों को फांसी की सजा होनी चाहिये थी.

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‘शासन-प्रशासन ने केस को कमजोर करने की कोशिश की’

इस मामले में गवाह जुल्फिकार ने आरोप लगाया कि इस नरसंहार के बाद पुलिस के साथ ही प्रदेश सरकार ने भी परेशान किया. कार्रवाई के नाम पर पक्षपात हुआ. उन्होंने कहा-

पुलिस और सरकार ने हमेशा से इस केस को कमजोर करने की कोशिश की, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी और केस लड़ते रहे. देर से सही लेकिन इंसाफ मिला है. अगर दोषियों को फांसी की सजा सुनाई जाती तो और सुकून मिलता.

जुल्फिकार ने कहा कि मामला अगर सुप्रीम कोर्ट गया तो हम वहां भी अपनों के लिए लड़ेंगे.

घटना बयां करते वक्त छलक उठा दर्द

इस नरसंहार के दौरान मौत को मात देने में कामयाब रहे मोहम्मद उस्मान अपनी पीठ में गोली के निशान दिखाते हुए बताते हैं-

तलाशी के बहाने मिलिट्री हमें घर से उठाकर लाई थी और पीएसी के हवाले कर दिया था. हम 6 भाई थे और एक वालिद साहब. शाम के समय 50 आदमियों को छांट लिया, इनमें बच्चों को छोड़ दिया और हमें पीएसी के ट्रक में बिठाकर ले गए थे.

अदालत के फैसले पर थोड़ी निराशा जताते हुए उस्मान दर्द भरे अंदाज में कहते हैं कि "शैतानों को फांसी होती तो बेहद अच्छा होता."

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‘दोषियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए थी’

हाशिमपुरा नरसंहार में अपने शौहर जहीर अहमद और बेटे जावेद को खोने वाली जरीना फैसले पर नाराजगी जताते हुए कहती हैं-

“एक-एक दिन गिन कर काटा है. मेरे शौहर और बेटे को पुलिस वालों ने मारा था. तब मेरी गोद में चार दिन का बेटा था. दोषियों को तो फांसी की सजा मिलनी चाहिए थी.” 

मृतक कमरुद्दीन के पिता जमालुद्दीन का कहना है-

“इंसाफ पाने के लिए इतनी लंबी लड़ाई कहीं नहीं देखी, न सुनी. इतनी लंबी लड़ाई के बाद आज इंसाफ मिला है, नहीं तो निचली अदालत ने तो अभियुक्तों को बरी कर हमारे जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया था.

हाशिमपुरा कांड में मारे गए सिराज की बहन नसीम बानो और अमीर फातमा उस घटना को याद कर ही सिहर उठती हैं. दोनों कहती हैं उस घटना ने हमारा घर बर्बाद कर दिया. उन्होंने बताया-

मैं और मेरी तीन बहनों ने कितने सितम सहे और हम किस हालात में जिए ये किसी को नहीं बता सकते. सिराज हमारा इकलौता भाई था. उसकी हत्या करने वालों को तो फांसी मिलनी चाहिए थी.

सिराज की बहन नसीम बानो और अमीर फातमा ने बताया कि सिराज की मौत के सदमे में कुछ साल बाद पिता शब्बीर का इंतकाल हो गया, तो सिराज की मां रश्के जहां मानसिक संतुलन खो बैठी थी. काफी उपचार कराने के बाद भी वह ठीक नहीं हुई और वह भी चल बसीं. कोई कमाने वाला नहीं बचा. चारों बहनें सिलाई कढ़ाई का काम करके किसी तरह गुजर बसर करतीं रहीं. भाई की मौत के बाद बाप और मां का इंतकाल होने पर नसीम बानो को उसके पति ने तलाक दे दिया.

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मृतक नईम के भाई शकील का कहना है कि कोर्ट के चक्कर लगाते-लगाते करीब 31 साल बीत गए. इतने इंतजार के बाद आज इंसाफ मिला है. मृतक कमरुद्दीन के भाई शमशुद्दीन का कहना है कि अच्छा लगता जब मेरे भाई को हत्यारों को फांसी की सजा मिलती.

नईम और कमरुद्दीन की शादी घटना से दो महीने पहले ही हुई थी. मृतक मोहम्मद यासीन के बेटे इजहार का कहना है कि मेरे वालिद मोहम्मद यासीन तब करीब 55 साल के थे. उनकी हत्या करने वाले पीएसी के जवानों को कतई दर्द नहीं हुआ. आरोपियों को फांसी की सजा होनी चाहिए थी.

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निचली अदालत ने कर दिया था आरोपियों को बरी

इस मामले में गाजियाबाद के सीजेएम कोर्ट में पीएसी के 19 जवानों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी. इनमें से 3 जवानों की सुनवाई के दौरान ही मौत हो गई थी. साल 2015 में आरोपियों के खिलाफ सुबूत नहीं मिलने के कारण निचली अदालत ने सभी आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था.

कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए पिछले साल हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई थी.

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क्या है हाशिमपुरा नरसंहार केस?

14 अप्रैल 1987 से मेरठ में सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई. कई लोगों की हत्या हुई, दुकानों और घरों को आग के हवाले कर दिया गया. इसके बाद हत्या, आगजनी और लूट की वारदातों का सिलसिला चल निकला. इसके बाद भी मेरठ में दंगे की चिंगारी शांत नहीं हुई थी.

मई का महीना आते-आते कई बार शहर में कर्फ्यू जैसे हालात हुए और कर्फ्यू लगाना भी पड़ा. जब माहौल शांत नहीं हुआ और दंगाई लगातार वारदात करते रहे, तो शहर को सेना के हवाले कर दिया गया.

बलवाइयों को काबू करने के लिए 19 और 20 मई को पुलिस, पीएसी और सेना के जवानों ने सर्च ऑपरेशन चलाया. हाशिमपुरा के अलावा शाहपीर गेट, गोला कुआं, इम्लियान समेत अन्य मोहल्लों में पहुंचकर सेना ने मकानों की तलाशी ली. इस दौरान भारी मात्रा में हथियार और विस्फोटक सामग्री मिली.सर्च ऑपरेशन के दौरान हजारों लोगों को पकड़ा गया और गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया.

22 मई की रात हाशिमपुरा कांड हुआ. हापुड़ रोड पर गुलमर्ग सिनेमा के सामने हाशिमपुरा मोहल्ले में 22 मई 1987 को पुलिस, पीएसी और मिलिट्री ने सर्च ऑपरेशन चलाया. आरोप है यहां रहने वाले नौजवानों और बुजुर्गों समेत कई सौ लोगों को ट्रकों में भरकर पुलिस लाइन ले जाया गया. एक ट्रक को दिन छिपते ही पीएसी के जवान दिल्ली रोड पर मुरादनगर गंग नहर पर ले गए. उस ट्रक में करीब 50 लोग थे. आरोप है कि वहां ट्रक से उतारकर लोगों को गोली मारने के बाद एक-एक करके गंग नहर में फेंक दिया गया. कुछ लोगों को ट्रक में ही गोली मार दी गई और ट्रक को गाजियाबाद हिंडन नदी पर ले जाकर उन्हें हिंडन नदी में फेंक दिया गया.

इनमें से जुल्फिकार, बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम गोली लगने के बावजूद सकुशल बच गए थे. बाबूदीन ने ही गाजियाबाद के लिंक रोड थाने पहुंचकर रिपोर्ट दर्ज कराई थी, जिसके बाद हाशिमपुरा कांड पूरे देश में चर्चा का विषय बना.

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