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हाथरस केस बताता है कि क्यों दलित-आदिवासी करते हैं धर्म परिवर्तन  

हाथरस - अब भी कहेंगे जाति व्यवस्था गुजरे जमाने की बात है?  

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हाथरस में एक दलित लड़की के बलात्कार- हत्या और उसके बाद पुलिस द्वारा आधी रात को जलाये जाने के बाद जो स्थिति देश में पैदा हुई, इसमें कई सवाल फिर से खड़े हो गए हैं. हद तो तब हो गई जब आरोपी के पक्ष में सवर्णों ने उसी गांव में एक पंचायत की. ये तब हुआ जब वहां धारा 144 लगी हुई थी. वाल्मीकि जाति के लोग अगर हिन्दू होते तो सवर्ण गुण –दोष के आधार पर ऐसी सभा करते? जाति का कृत्य गलत हो या सही, हर हाल में उसके साथ खड़ा होना कई सवाल पैदा करता है. यह बात भी सोचने को मजबूर करता है कि भारत जातियों का तंत्र है या जन का तंत्र ?

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हाथरस - अब भी कहेंगे जाति व्यवस्था गुजरे जमाने की बात है?

इस घटना से उनको माकूल जवाब मिलता है जो यह कहते हैं कि जाति तो बीते दिनों की बात है. सबसे बड़ा सवाल तो उन बुद्धिजीवियों पर है कि क्या वो वास्तव में पढ़े लिखे समझदार एवं बुद्धीजिवी हैं भी या नहीं? जनतंत्र और धर्म का कॉकटेल स्वर्ण समाज को कभी-कभी मजबूर करता है कि वो दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों को हिन्दू माने. इन वर्गों को हिन्दू होने का अवसर कभी-कभी ही मिलता है .

भारत में अगर इस्लाम न होता तो शायद ये कभी हिन्दू ना हो पाते. संघ एवं हिन्दू धर्म के तथाकथित रक्षकों को हमेशा ये डर समाया रहता कि कहीं दलित-पिछड़े-आदिवासी मुसलमान न बन जाएं. अक्सर बड़े स्तर पर यह प्रचारित करते रहते हैं कि हिन्दू धर्म खतरे में हैं. इस्लाम धर्म बाहर का है. लव जेहाद का खतरा हमेशा मंडराता ही रहता है धर्मांतरण के खिलाफ कानून कई राज्यों में बनवा ही चुके हैं. इस्लाम के बाद ईसाईकरण का भी डर सताता रहता है. कभी उनकी प्रार्थना में बाधा डालना, झूठे मामले में फंसाना और तोड़ फोड़ आम बात है.

कभी यह नहीं सोचा कि आखिर हिन्दू धर्म कि खामियां क्या हैं, जिसकी वजह से दलित आदिवासी अन्य धर्मों के प्रति आकर्षित होते हैं. जो दलित आदिवासी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए जान दे देते हैं और पूरे जीवन भेदभाव को बर्दाश्त करते हैं. फिर भी आस्था में कमी नहीं होती , वो मुसलमानों या ईसाईयों के पैसे या लोभ लालच से धर्म कैसे बदल देंगे?

दरअसल मान सम्मान पाने के लिए वो मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध बनते हैं. अगर हिन्दू धर्म को इनसे प्यार है और इन्हें मजबूत देखना चाहते हैं तो जाति व्यवस्था क्यों नहीं खत्म करते हैं? इन्हें दूसरे धर्म में जाने से रोकना है तो कभी कभार और कृत्रिम हिन्दू बनाने की जगह असली हिन्दू बनाएं.



हिंदू धर्म के रक्षकों को हाथरस के परिवार के साथ होना चाहिए

हाथरस कांड हो या बलरामपुर, ये सब सुनहरे अवसर हैं हिन्दू धर्म के रक्षकों के लिए की वो दलितों के साथ खड़े हों और आरोपियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाने में सहयोग दें. ऐसे मामले में देखा जाता है कि जाति बिरादरी के लोग ही न्याय के लिए लड़ते हैं तो वो कैसे महसूस करें कि सब हिन्दू हैं.

आरक्षण का विरोध ईसाई और मुसलमान ने तो आजतक नहीं किया. दलितों- आदिवासियों की थोड़ी तरक्की से सवर्ण मानसिकता और उनकी सत्ता इतनी असहज हो जाती है कि सरकारी उद्योग और विभाग तक बेच दिए गए.
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देश की अर्थव्यवस्था सही तरीके से नहीं चला सके वो एक कारण तो है ही, दूसरा बड़ा कारण यह है कि निजीकरण के रास्ते, नौकरी समाप्त करने, शिक्षा का निजीकरण करने से, कमजोर वर्गों की जो थोड़ी बहुत तरक्की हुई थी, वो बंद हो जाएगी. और ये फिर से गुलामी के उसी दौर में पहुच जाएंगे जहां से संघर्ष की शुरुआत हुई थी.

जब-जब दलितों के सशक्तीकरण की बात आती है तब ये हिन्दू नहीं रह जाते. राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्र में जहां इनका प्रतिनिधित्व बढ़ने लगता है तभी ये गैर हिन्दू हो जाते हैं. क्या इसके लिए ईसाई या मुसलमान जिम्मेदार हैं? यह बड़ा सवाल है.

चुनाव में हिंदू, चुनाव के बाद 'अछूत'

जब चुनाव आता है तो अचानक दलित आदिवासी हिन्दू हो जाते हैं और जैसे ही चुनाव खत्म होता है वापस अछूत बना दिए जाते हैं. मुसलमानों के मुकाबले में खड़ा करना होता है, तब भी हिन्दू बता दिए जाते है

वाल्मीकि समाज की बेटी के साथ जब खड़ा होने का वक्त आता है तब सवर्ण पलटी मार जाते हैं. जहां इनको लाभ दिखता है वहां दलितों को हिन्दू बना लेंगे वरना अछूत.

शहर के बुद्धिजीवियों, उदारवादी एवं वामपंथी रात दिन कहते नहीं थकते कि वो जाति में यकिन नहीं करते हैं. मान लिया जाय कि यह बात कुछ हद तक सच भी हो तो एक तरफ, जहां सैकड़ों पीढ़ियों की सामाजिक पूंजी, शिक्षा, संसाधन है. इसके ठीक विपरीत में बहुजन समाज की स्थिति है कि जबतक इनको अतिरिक्त एवं बेहतर अवसर नहीं मिलता है वो बराबरी नहीं कर पाएंगे.

असामनता की खाई नहीं पटेगी. इसलिए इनका दावा खोखला है. जाने में नहीं तो अनजाने में जातिवाद से ऊपर नहीं उठ सके. किसी अखबार के संपादक से कहा जाए कि आप जातिवादी हैं तो वो झल्ला पड़ेगा लेकिन 365 दिन के संपादकीय में शायद एक दो लेख दलितों का नहीं छापते.

यूं ही नहीं अंबेडकर को छोड़ना पड़ा हिंदू धर्म

बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने पूरे जीवन हिन्दू धर्म में सुधार की गुंजाइश का इंतजार किया, लेकिन संभव नहीं हो सका. अंत में हिन्दू धर्म छोड़ दिया . अगर वास्तव में दलितों को हिन्दू बनाना है तो बेटी का संबंध, संसाधनों और शासन –प्रशासन में भागीदारी देनी होगी.

यूपी के सीएम को ठाकुरवाद खत्म करना पड़ेगा. आरोपी ठाकुर, पीड़िता के खिलाफ पंचायत करने वाले ठाकुर, पुलिस प्रशासन के मुखिया ठाकुर. हिन्दू धर्म में सुधार की शुरुआत हाथरस की पीड़िता से ही कर देनी चाहिए ताकि दलित हमेशा के लिए हिन्दू बन जाएं.

{ लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं }

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