देश को आजाद हुए बेशक 72 साल बीत चुके हैं, लेकिन हर साल की तरह इस बार भी 15 अगस्त के दिन एक सवाल जेहन में आना लाजिमी है - "क्या हम वाकई आजाद हो पाए?" फिल्ममेकर विकास रंजन मिश्रा को ऐसे ही कुछ सवालों ने बेचैन किया, तो उन्होंने शब्दों के जरिए अपने मन में उमड़ते जज्बातों को एक कविता में ढाला. सुनिए ये कविता -
आजादी मुबारक!
मेरे वतन, मेरे प्यारे वतनकैसे मनाऊं तुम्हारी आजादी का जश्न?
तुम्हारी मिट्टी लगा लूं ललाट पे
या तुम्हारी हवा में गहरी सांस लेकर फुला लूं सीना अपना गर्व से
या फिर तुम्हारे चरण पखारते समंदर से साफ करूं प्लास्टिक का कचरा जो हम देशभक्तों ने फैलाया है
मेरे वतन, मेरे प्यारे वतन
क्या मैं भी दे दूं जान अपनी तुम्हारी सरहद पर
या ले लूं जान उनकी
जो नहीं करते तुम्हारी जै-जैकार
तुम्हारी मिट्टी से उपजे फल, फूल, अन्न खाकर खुशियां मनाऊं
या घर में घुसकर मारूं उन्हें, जिनका खाना मुझे पसंद नहीं
बाढ़, सूखे से बदहाल हमवतनों के लिए कुछ करूं
या मजहब, जात, निशान पूछूं उन्हें गले लगाने से पहले
मेरे वतन, मेरे प्यारे वतन
कैसे मनाऊं तुम्हारी आजादी का जश्न
मैं जो दिन भर पिसता हूं गड्ढे-भरी सड़कों पर,
धक्के खाता हूं, ट्रेनों, बसों, मेट्रो में
बिन शिकायत किये करता जाता हूं काम अपना खामोशी-से
क्या इतना काफी नहीं है
हवा बीमार है, पानी के लिए रोज होती यहां मार है
अस्पताल से बेहतर श्मशान है
और अदालत के बाहर पीढ़ियों की कतार है
फिर भी चुपचाप सुनता रोज, अच्छा सब समाचार है
मेरे वतन, मेरे प्यारे वतन
कैसे मनाऊं तुम्हारी आजादी का जश्न
क्या तू सिर्फ नदी, पहाड़, झरने
जंगल, जहाज, टैंक और हथगोले भर है
तेरी सरहदें सिर्फ जमीन पर खींची है
और तेरी शान सिर्फ हुक्मरानों की कमान पर है
तुम्हारे विकास के लिए
अगर मुझे मेरे घर से खदेड़ा जाता है
तो तू भी तो थोड़ा बेघर होता होगा
मेरे खाने, मेरे पहनावे के चलते अगर मेरी जान ली जाती है
तो तू भी तो थोड़ा मरता होगा
अगर मेरी आजादी को मेरे घर में नजरबंद किया जाता है
तो तुम्हें भी तो गुलामी का कांटा चुभता होगा
ये मिट्टी तेरी, तो उससे बना मेरा जिस्म किसका
ये हवा तेरी, तो मेरी सांसें किसकी
ये नदियां तेरी, तो मेरे रगों में बहता खून किसका
अगर तू जीत गया, तो मेरी ये हार किसकी है
अगर तू आजाद है, तो मेरे पैरों में बंधीं ये बेड़ियां किसकी है
मेरे वतन, मेरे प्यारे वतन
तुझे तेरी आजादी मुबारक
लेकिन जब तक मेरी जबान पर पहरा है
मेरी सोच, मेरे दि़माग पर झूठ का कोहरा है
मेरी कलम स्याही बिन सूखी है
और तेरे सिर मेरे खून से लथपथ सेहरा है
तू भी आजाद कहां है?
ये भी पढ़ें - पिल्लई को बैल की जगह जोतते थे अंग्रेज,आजादी की लड़ाई की 5 कहानियां
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)