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''कश्मीर में फिर लौटा 90 के दशक वाला खौफ'', अब क्या हो रहा है, तब क्या हुआ था?

Kashmir में केवल मई 2022 में कम से कम सात लोगों की हत्या की गई हैं.

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कश्मीर (Kashmir) में केवल मई महीने में ही कम से कम 7 टारगेट किलिंग (Target Killings) और जनवरी से अब तक 18 लोगों की हत्याओं से एक बार फिर दहशत का माहौल है. सोशल मीडिया से लेकर टेलिविजन सेट तक इस बात की चर्चाएं हो रही हैं कि कश्मीर में फिर से 1990 का वो खौफनाक दौर लौट रहा है जब लाखों लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

खासतौर पर जिस तरह से कश्मीरी पंडतो को निशाना बनाया जा रहा है, उसने इस चिंता को और जायज कर दिया है.

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कश्मीरी पंडितों ने सरकार और प्रशासन को अल्टीमेटम दिया है कि अगर उनकी सुरक्षा को लेकर सख्त कदम नहीं उठाए गए तो वे घाटी से फिर पलायन कर रहे हैं. ऐसे में आईए घटनाओं के जरिए समझते हैं कि 1990 का वो दर्दनाक पलायन क्या था जिसमें पंडितों को अपना घर, कारोबार छोड़ कर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

1977 का चुनाव

भारत की आजादी के 30 साल बाद जम्मू-कश्मीर ने लोकतंत्र की शक्ल देखी थी.1977 से पहले भी चुनाव हुए थे लेकिन तब कांग्रेस पर धांधली के आरोप लगते रहे. 1977 के चुनावों में पहली बार शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस का सफाया कर दिया.

सितंबर 1982 में शेख की मृत्यु हो गई और उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को 1983 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत मिली, लेकिन 1984 में कांग्रेस ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के 12 विधायकों के दलबदल के सहयोग से फारूक को किनारे करते हुए गुलाम मोहम्मद शाह को मुख्यमंत्री बनाया.

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सांप्रदायिक दंगे और मंदिरों पर हमले

हालांकि इंदिरा गांधी के निधन के चलते कांग्रेस के समर्थन वाली सरकार ज्यादा दिन नहीं चली लेकिन, गुलाम मोहम्मद शाह ने जम्मू में नागरिक सचिवालय के परिसर में एक मस्जिद बनवा दिया जिससे विवाद खड़ा हो गया. इसके तुरंत बाद, बाबरी मस्जिद में पूजा की अनुमति भी मिली जिससे राज्यों में सांप्रदायिक दंगे होने लगे. उस वक्त हिंदू मंदिरों पर हमले होने लगे. हिंदू एक्शन कमेटी के नेता बाल कृष्ण हांडू ने कहा,

"हमारे मंदिरों में बड़े पैमाने पर आगजनी, लूटपाट और अपवित्र करने का उद्देश्य हिंदुओं के सामूहिक पलायन के लिए स्थितियां बनाना था. अगर हम कश्मीर छोड़ देते हैं, तो हम इसे उन मुस्लिम समूहों को एक थाली में सौंप देंगे जो भारत से अलग होना चाहते हैं."
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JKLF के कमांडरों की रिहाई

घाटी में अलगाववादियों को मुफ्ती का मौन समर्थन मिल रहा था. 2 दिसंबर 1989 को, मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र में वीपी सिंह की सरकार में गृह मंत्री बने. सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब जेकेएलएफ के उग्रवादियों ने मुफ्ती की बेटी रुबैया का अपहरण कर लिया और उसके बदले में पांच शीर्ष कमांडरों को रिहा करवा दिया. इसके बाद मुख्यमंत्री फारूक अबदुल्ला ने केंद्र के दबाव के आगे घुटने टेक दिए और आतंकवादियों की रिहाई के परिणामों की जिम्मेदारी केंद्र पर डाल दी थी.

उस शाम आतंकवादियों की रिहाई ने घाटी को उत्साह और भारत के खिलाफ जीत की भावना में बदल दिया. श्रीनगर और अन्य शहरों में खुशी में जश्न मनाया जाने लगा.
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हमले और हत्या का दौर शुरू

  • उग्रवादियों ने 1 अगस्त 1988 को सेंट्रल टेलीग्राफ कार्यालय और श्रीनगर क्लब को अपन पहला टारगेट बनाया.

  • 18 अगस्त को एक हवाई दुर्घटना में पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक की मौत से अफरा-तफरी मच गई. इसका असर कश्मीर में भी देखा गया. डिवीजनल कमिश्नर शफी पंडित ने अनंतनाग और बारामूला में कश्मीरी पंडितों के घरों, मंदिरों और दुकानों पर हमले के बाद कर्फ्यू लगा दिया.

  • 18 सितंबर को, जेकेएलएफ का पहला आतंकवादी, एजाज डार कश्मीर के तत्कालीन डीआईजी अली मोहम्मद वटाली के आवास पर हमले में मारा गया.

इसके बाद कश्मीर में छुट पुट घटनाएं लगातार होती रहीं. कभी पुलिस और सेना की फायरिंग में आम लोगों की मौत होती तो कभी उग्रवादियों, आतंकवादियों के हमलों में पुलिस के जवान मारे जाते. कश्मीर में एक ऐसा दौर शुरू हो गया जो आज तक जारी है.

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टारगेट किलिंग का दौर और लोगों में खौफ

कलशपोरा फतेहकदल में नेशनल कांफ्रेंस कार्यकर्ता मोहम्मद यूसुफ हलवाई और हब्बाकदल में भारतीय जनसंघ के नेता टीका लाल टपलू की हत्या के बाद कश्मीर में टारगेट किलिंग की घटनाएं शुरू हो गई. इसने कश्मीरी पंडितों में दहशत की लहर फैला दी.

  • 1 नवंबर 1989 को हब्बाकदल पुल पर एक स्थानीय पंडित महिला शीला टीकू की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

  • जज नील कंठ गंजू की, जिन्होंने मकबूल भट को मौत की सजा सुनाई थी, 4 नवंबर को श्रीनगर में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

  • वकील प्रेमनाथ भट की 27 दिसंबर को अनंतनाग में गोली मारकर हत्या हुई.

  • जेकेएलएफ उग्रवादियों की रिहाई के कुछ दिनों बाद, अल्लाह टाइगर्स के 'एयर मार्शल' ने 31 दिसंबर, 1989 की समय सीमा के साथ सभी 18 सिनेमा थिएटर और शराब की दुकानें बंद कर दीं.

  • पंडित एमएल भान और तेज किशन राजदान उन चार आईबी अधिकारियों में शामिल थे जिनकी जनवरी और फरवरी 1990 में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

  • जेकेएलएफ के उग्रवादियों ने 25 जनवरी को रावलपोरा में भारतीय वायु सेना के चार अधिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी. उसी दिन, सीमा सुरक्षा बल (BSF) ने हंदवाड़ा में 26 नागरिक मुस्लिम प्रदर्शनकारियों को मार दिया.

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धमकी, अलटीमेटम और पलायन

31 मार्च 1992 को सोहन लाल ब्रारू, उनकी पत्नी बिमला और बेटी अर्चना की नृशंस हत्या के विरोध में स्थानीय मुसलमानों का 5,000 लोगों का जोरदार प्रदर्शन सड़कों पर उतर आया. इन सब ने कश्मीरी पंडितों के लिए मुश्किलें और बढ़ा दीं. उन्हें लगातार धमकियां और 'डेथ वारंट' मिलने लगे. सितंबर 1989 से जनवरी 1990 तक की ऐसी कई घटनाएं हुई लेकिन कश्मीरी पंडित घाटी में टिके रहे.

अचानक मार्च 1990 में दैनिक समाचार पत्रों के ऑफिसों में हिजबुल मुजाहिदीन का एक पूरे पन्ने का बयान भेजा गया जिसमें 'आंदोलन विरोधी पंडितों' को तुरंत कश्मीर छोड़ने को कहा गया. अल-सफा न्यूज के संपादक ने विरोध किया तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया.

अगले दिन जिलाधिकारी गुलाम अब्बास ने प्रिंटिंग प्रेस को जब्त कर लिया और प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगा दिया, तब तक अधिकांश पंडित दहशत में चले गए थे. यही वो टर्निंग प्वाइंट था जब दहशत से भरे लाखों कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया.

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2022: अब क्या हो रहा है? 

कश्मीर में फिर से वही सब दोहराया जा रहा है जिसकी चर्चा हमनें अब तक की. कश्मीर में चुन-चुन कर लोगों को निशाना बनाया जा रहा है और फिर से कश्मीरी पंडित दहशत में हैं. सिर्फ मई में कम से कम 7 लोगों की टार्गेट किलिंग में मौत हो गई है. लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए फिर से पलायन का रास्ता अख्तियार करना शुरू कर दिया है.

सरकार को लोगों ने जल्द सख्त कदम उठाने का अल्टीमेटम दिया है. कश्मीर में 4,000 से ज्यादा सरकारी कर्मचारी लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और सुरक्षित स्थानों पर पोस्टिंग की मांग कर रहे हैं. गवर्नर मनोज सिंहा ने हिंदू कर्मचारियों की पोस्टिंग सुरक्षित इलाकों में करने का आदेश दिया है. इन सब के बावजूद गुरूवार शाम फिर बडगाम में बिहार के मजदूर की गोली मार कर हत्या कर दी गई.

पीएम पैकेज के तहत नौकरी पाने वाले भी असुरक्षित

पीएम पैकेज के तहत कार्यरत कश्मीरी पंडित शरणार्थियों के एक मंच ने किराए पर रहने वाले कर्मचारियों को घाटी छोड़ने और जम्मू में विरोध करने के लिए कहा है. केंद्र ने जहां पीएम पैकेज के तहत कर्मचारियों के लिए घाटी में 6,000 ट्रांजिट कैंप बनाने की घोषणा की है, वहीं अब तक सिर्फ 15 फीसदी ही काम पूरा हो पाया है.

पीएम पैकेज के तहत शरणार्थियों के लिए घोषित 6,000 नौकरियों में से लगभग 5,928 को भरा गया है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से 1,037 से ज्यादा लोग सुरक्षित इलाकों में नहीं रह रहे हैं.
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कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू ने कहा कि 1 जून से 3 जून तक करीब 165 कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ चुके हैं. टिक्कू ने कहा,

"ये असुरक्षा है जो उन्हें कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर कर रही है. सरकार कहती है कि सब कुछ ठीक है, लेकिन कश्मीर की स्थिति 90 के दशक में वापस लौट रही है."

सरकार के दावे 

सरकार ने कश्मीर को लेकर तमाम तरह के दावे किए. देश में जब नोटबंदी हुई तो एक दलील ये दी गई कि इससे आतंकी फंडिंग पर रोक लगेगी और घाटी के हालात भी सुधरेंगे. इसके बाद सरकार ने कश्मीर से धारा 370 को हटाने का फैसला किया तब भी यही दलील थी कि कश्मीर में हालात सुधरेंगे और कश्मीर अन्य राज्यों की तरह ही बिना आतंक के साये के अपना विकास कर पाएगा.

जम्मू-कश्मीर को 2 अलग-अलग क्षेत्रों में भी बांट दिया गया. इससे भी यही भरोसा जगाया गया कि आतंकवाद पर प्रहार करने में मदद मिलेगी. सरकार के कई मंत्री खुद कई बार कश्मीर को लेकर बड़े-बड़े दावे कर चुके हैं. अमित शाह ने मार्च 2020 में कहा था कि,

"जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के निरस्त होने के बाद केंद्र की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि पहली बार आतंकवाद पर हमारा निर्णायक नियंत्रण है."

लेकिन कश्मीर की वर्तमान हालत सरकार के दावों से अलग एक कहानी बयां करती है...

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