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निर्वासन दिवस: 30 साल बाद भी ‘वतन वापसी’ की आस में कश्मीरी पंडित

कश्मीरी पंडितों के घाटी से निर्वासन के तीस साल हो चुके हैं

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19 जनवरी को कश्मीरी पंडित ‘निर्वासन दिवस’ मना रहे हैं. तीस साल पहले इसी दिन से कश्मीरी पंडितों को बड़े पैमाने पर घाटी से निकलने पर मजबूर किए जाने की शुरूआत हुई थी. कश्मीरी पंडितों को निकालने की इस बेहद दर्दनाक कहानी को आतंकवादियों ने खूनी कलम से लिखा था.

उस दौर में एक अजीब सा माहौल था. कुछ स्थानीय अखबारों में तो आतंकियों ने बकायदा विज्ञापन देकर पंडितों को घाटी छोड़ने की चेतावनी दी थी. उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर दिया गया.

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19 जनवरी को इन घटनाओं को याद करते हुए कश्मीरी ''निर्वासन दिवस'' मनाते हैं. अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाई में बोलते हुए कॉलमिस्ट सुनंदा वशिष्ठ ने कहा था,

कश्मीर में आईएसआईएस के स्तर की निर्दयता हुई थी. तीस साल पहले जब पश्चिम के देश कट्टर इस्लामिक आतंक से परिचित भी नहीं थे, तब कश्मीरी यह सब देख चुके हैं.
सुनंदा वशिष्ठ

सुनंदा याद करती हैं कैसे 19 जनवरी, 1990 की रात कुछ धार्मिक स्थलों और रास्तों से कश्मीरी हिंदुओं को घाटी छोड़ने के लिए कहा गया. यह आवाजें कहतीं कि कश्मीर में हिंदू महिलाएं तो रह सकती हैं, पर हिंदू पुरूष नहीं. सुनंदा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से भी अपनी नाराजगी जाहिर करती हैं. उनके मुताबिक इन कार्यकर्ताओं ने सही तरीके से उनकी आवाज नहीं उठाई.

पत्रकार राहुल पंडिता की किताब- Our Moon has Blood Clots में राजनीतिक कार्यकर्ता टीकाला टपलू की हत्या समेत कई दूसरी घटनाओं का जिक्र है. राहुल पंडिता की किताब पर आधारित ‘’शिकारा’’ नाम की फिल्म भी बन रही है.

2010 में जम्मू-कश्मीर की सरकार ने बताया कि घाटी में तब 808 पंडित परिवार रह रहे हैं, इनमें 3445 सदस्य हैं. उनकी मदद के लिए वित्तीय और दूसरे प्रावधान किए गए. लेकिन यह नाकाफी साबित हुए.

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इनपुट- न्यूज एजेंसी ANI

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