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गांधी @150: बापू पर लगने वाले तीन बड़े आरोपों का पूरा सच...

इतिहास इन तीनों ही आरोपों से गांधी को बाइज्जत बरी करता है  

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भारत
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2 अक्टूबर, 1869 को ब्रिटिश इंडिया के पोरबंदर राज्य के दीवान करमचंद उत्तमचंद गांधी के घर उनके चौथे बच्चे का जन्म हुआ. नाम रखा गया मोहनदास. 13 साल की उम्र में घरवालों ने मोहनदास की शादी कस्तूरबाई कपाड़िया से करा दी. 18 साल की उम्र में उन्होंने देश छोड़ दिया और वकालत पढ़ने लंदन चले गए.

वो अपने देश लौटे, लेकिन एक अव्वल दर्जे के काबिल वकील नहीं बन पाए, क्योंकि जिरह करते हुए बेईमान गवाहों से वो सच उगलवाने में कामयाब नहीं हो पाते थे.

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 इतिहास इन तीनों ही आरोपों से गांधी को बाइज्जत बरी करता है  
गांधी से लोगों को बेहिसाब शिकायतें हैं
(फोटो: https://www.mkgandhi.org)
मोहनदास गांधी को अंग्रेजी शासन से नफरत नहीं थी. वो हम जैसे आम इंसान ही थे और अपनी ही तरह की एक खास शख्सियत. उन्होंने गलतियां कीं, शुरुआत में वो रूढ़िवादी थे, जात-पांत में विश्वास रखते थे और अंतर-जातीय विवाह के पक्ष में भी नहीं थे, लेकिन समय के साथ वो बदले. जैसे हर इंसान को बदलना चाहिए, उन्होंने खुद को बदला. अपनी सोच बदली, विचारों में खुलापन लाया.

देश ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' का दर्जा दे दिया, लेकिन सच ये है कि उनसे ज्यादा विवादित शख्सियत देश में शायद ही कोई होगी. गांधी के जन्म के 150 साल बाद भी उनकी आलोचना में कोई कमी नहीं आई है. गांधी को कोसने वालों में दक्षिणपंथी और वामपंथी, दोनों धड़ों के लोग हैं.

गांधी जी से लोगों को बेहिसाब शिकायतें हैं, लेकिन उन पर लगने वाले 3 सबसे बड़े इल्जाम ये हैं कि उन्होंने भगत सिंह की फांसी रोकने की कोशिश नहीं की, उन्होंने देश का विभाजन होने दिया और हमेशा मुसलमानों का पक्ष लिया.

इतिहास इन तीनों ही इल्जामों से गांधी जी को बाइज्जत बरी करता है, लेकिन लोगों की धारणा इस फैसले को नहीं मानती.

भगत सिंह की फांसी न रुकवाने का इल्जाम

30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध हो रहा था. पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स स्कॉट ने पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश दिया और इसमें लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए. कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गई.

हालांकि भगत सिंह मौके पर मौजूद नहीं थे, लेकिन उन्होंने राय की मौत को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा देश के बड़े नेता की हत्या के तौर पर देखा. उन्होंने इसका बदला लेने की ठानी और अपने साथी शिवराम राजगुरु के साथ जेम्स स्कॉट को मारने का प्लान बनाया.

17 नवंबर 1928 का दिन मुकर्रर किया गया, लेकिन दोनों से स्कॉट को पहचानने में गलती हो गई और उन्होंने असिस्टेंट पुलिस सुपरिटेंडेंट जॉन सॉन्डर्स की हत्या कर दी. भगत सिंह और राजगुरु मौके से भाग निकले.

 इतिहास इन तीनों ही आरोपों से गांधी को बाइज्जत बरी करता है  
8 अप्रैल 1929 को सिंह और बटुकेश्वर दत्त दिल्ली स्थित केंद्रीय असेंबली में बम फोड़ते है
(फाइल फोटो)
लेकिन करीब 4 महीने बाद भगत सिंह दोबारा ब्रिटिश शासन को चुनौती देते हैं और इस बार उनका इरादा भागने का नहीं था. 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त दिल्ली स्थित सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ते है, पर्चे फेकते हैं और सरेंडर कर देते हैं. भगत सिंह पर धारा 307 (हत्या की कोशिश) के तहत मुकदमा चलाया जाता है. उन पर सॉन्डर्स की मौत का आरोप भी लगता है. उस वक्त के वायसराय लॉर्ड इरविन एक अध्यादेश पास करते है, जिसके मुताबिक केस ट्रिब्यूनल सुनता है और आरोपियों का सुनवाई के दौरान मौजूद रहना जरूरी नहीं होता है. भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई जाती है.

भगत सिंह की लोकप्रियता चरम पर थी और कांग्रेस पर जबरदस्त दबाव था कि वो भगत सिंह को बचाए. गांधी जी, भगत सिंह के विचारों और तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते थे, ठीक वैसे ही जैसे भगत को गांधी के तरीके व्यर्थ लगते थे.

1931 की फरवरी में गांधी जी और इरविन के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ था. इरविन खुद इस बात को कबूलते हैं कि गांधी ने उनसे भगत सिंह की सजा कम करने की गुजारिश की थी. लेकिन इरविन ने ऐसा क्यों नहीं किया, उसकी कई वजहें हैं:

  • पहली वजह - कांग्रेस और गांधी ने ब्रिटिश शासन से सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ने की मांग की थी. सरकार तैयार थी, लेकिन भगत सिंह के नाम पर प्रशासन ने कहा कि उन पर आपराधिक मुकदमा दर्ज है, इसलिए उन्हें छोड़ना मुमकिन नहीं.
  • दूसरी वजह - ऐसा कहा जाता है कि उस समय के प्रशासनिक अधिकारियों (ICS) ने सरकार से साफ कहा था कि अगर भगत सिंह को छोड़ा गया, तो बड़े पैमाने पर इस्तीफे होंगे. सरकार ये रिस्क नहीं ले सकती थी.
  • तीसरी वजह - सबसे बड़ी बात थी कि भगत सिंह खुद नहीं चाहते थे कि उनकी फांसी पर रोक लगे. उनके पिता ने कोर्ट में अपील की थी, तो भगत उनसे नाराज हो गए थे. सिंह का कहना था कि उनकी मौत से देश को आजादी मिल जाएगी. इसके अलावा जो वजह इरविन ने गांधी को बताई वो सबसे ज्यादा तर्कसंगत लगती है. जब भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई, तब उसके खिलाफ अपील इरविन के अध्यादेश के मुताबिक इंग्लैंड स्थित प्रिवी काउंसिल में की गई. वहां इस अपील को खारिज कर दिया गया. इरविन ने ये बात गांधी को बताते हुए कहा था की प्रिवी काउंसिल से अपील खारिज होने के बाद मेरा सजा कम करने का कोई मतलब नहीं रह जाता.
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देश का विभाजन होने देने का इल्जाम

गांधी देश के विभाजन के सख्त खिलाफ थे और उन्होंने यहां तक कहा था कि देश के दो टुकड़े करने से पहले मेरे टुकड़े कर दो. फिर भी विभाजन हुआ और लाखों लोग मारे गए. 1947 आते-आते गांधी 75 की उम्र पार कर चुके थे और कांग्रेस मोटा-मोटी उनको नजरअंदाज कर देती थी.

ऐसा नहीं था कि नेहरू, पटेल या मौलाना आजाद का गांधी से स्नेह खत्म हो गया था. लेकिन राजनीतिक फैसलों में गांधी को नजरअंदाज कर दिया जाता था. ब्रिटेन ने आजादी का ये फॉर्मूला दिया था कि 10 सालों तक भारत एक फेडरेशन के तहत रहेगा, जिसमें भारतीय नेता शासन करना जान जाएंगे. गांधी जी को ये आइडिया मंजूर था लेकिन कांग्रेस और मुहम्मद अली जिन्ना को नहीं था.

जब जिन्ना ने ‘दो देशों’ की थ्योरी सामने रखी थी, तब भी गांधी जी ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया था और ये लगभग 18 दिन तक चली और बेनतीजा रही. यहां तक कि 1944 में इस थ्योरी के विरोध में जिन्ना को एक खत लिखते हुए गांधी जी ने 15 आपत्ति दर्ज कराईं. विभाजन का मंजर सोचते हुए गांधी जी ने जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने तक का प्रस्ताव दिया, लेकिन कांग्रेस ने इसका जबरदस्त विरोध किया. मई 1947 में अरुणा आसफ अली ने गांधी जी से पूछा कि क्या पाकिस्तान का कोई विकल्प है? तो गांधी जी ने जवाब दिया - केवल अविभाजित भारत.
 इतिहास इन तीनों ही आरोपों से गांधी को बाइज्जत बरी करता है  
1938 में बॉम्बे में जिन्ना के घर पर महात्मा गांधी
(फोटो: https://www.mkgandhi.org)

जून 1946 में गांधी जी परेशान थे और उन्होंने अपने भतीजे की बेटी मनु से कहा, "मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. जवाहर और पटेल को भी लगता है कि मैं हालात को ठीक से पढ़ नहीं पा रहा हूं. उन्हें लगता है कि विभाजन मंजूर होने से ही देश में शांति आएगी."

ऐसे सवाल उठते हैं कि गांधी ने जब विभाजन पर खुद के टुकड़े करने की बात कही थी, तो क्यों नहीं उसका विरोध किया. इसका जवाब खुद गांधी जी ने 9 जून 1947 को दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में दिया. उन्होंने कहा, “जब मैंने ये बात कही थी, तो मुझे यकीन था कि जनता मेरे साथ है. लेकिन अब जब लोग ही चाहते हैं कि विभाजन हो जाए, तो मैं अपनी राय लोगों पर नहीं थोप सकता.”
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मुस्लिमों का पक्ष लेने का इल्जाम

गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपने बयान में कहा, "दिल्ली में मस्जिदों से हिंदुओं का कब्जा हटाने के लिए गांधी ने अनशन किया. लेकिन जब पाकिस्तान में हिंदुओं को मारा गया, तब उन्होंने एक शब्द नहीं कहा." तो क्या ये सच था कि महात्मा गांधी मुस्लिमों की हिंसा पर मुंह फेर लेते थे?

इतिहास गोडसे को कई बार झुठलाता है. 17 अगस्त 1947 को दिल्ली में गांधी उनसे मिलने आए कुछ लोगों से कहते हैं, "मुस्लिमों को पाकिस्तान चाहिए था वो उन्हें मिल गया है. वो अब क्यों और किससे लड़ रहे हैं? अब क्या वो पूरा भारत लेना चाहते हैं? ऐसा कभी नहीं होगा. वो क्यों कमजोर सिख और हिंदुओं का कत्लेआम कर रहे हैं?"

गांधी जी का मानना था कि किसी भी सभ्यता का आकलन वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों के साथ किए जा रहे बर्ताव से करना चाहिए. भारत में उन्होंने मुसलमानों के हक और सलामती की पैरवी की तो पाकिस्तान में वो सिख और हिंदुओं के लिए आवाज उठाते रहे.

आजादी से पहले 1946 में बंगाल में दंगे भड़क गए थे. गांधी ने नोआखली जाने का फैसला किया. वहां बहुसंख्यक मुसलमानों ने हिंदुओं का नरसंहार शुरू कर दिया था. गांधी ने गांव-गांव घूमकर लोगों को समझाया. उन्होंने मुस्लिमों से कत्लेआम रोकने की प्रार्थना की. गांधी ने नोआखली के हिंदुओं को आश्वासन दिया कि 15 अगस्त 1947 को वो उनके साथ ही रहेंगे.

जब वो अगस्त 1947 में दोबारा नोआखली जा रहे थे, तो कलकत्ता के कुछ मुस्लिमों के कहने पर वहीं रुक गए. मुस्लिमों ने कहा कि पिछले दंगे कलकत्ता से ही शुरू हुए थे, अगर आप यहां शांति ले आएंगे तो पूरा बंगाल शांत हो जाएगा. गांधी ने बंगाल के मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी से उनके साथ रैली में चलने को कहा. सुहरावर्दी ने 1946 के दंगो में मुसलमानों को खुली छूट दी थी. इसलिए उनका गांधी के साथ जाना बहुत जरूरी था.

 इतिहास इन तीनों ही आरोपों से गांधी को बाइज्जत बरी करता है  
1946 में नोआखली में एक पीड़ित के साथ गांधी
(फोटो: https://www.mkgandhi.org)
गांधी के दोस्त होरेस एलेक्जेंडर अपने कई लेखों में बताते हैं कि रैली में ‘गांधी वापस जाओ’ जैसे नारे लगे, लेकिन सब शांत हो गया, जब गांधी जी की बगल में सुहरावर्दी आकर खड़े हो गए. किसी ने भीड़ में से सुहरावर्दी से पूछा- पिछले साल कलकत्ता में हुए नरसंहार की जिम्मेदारी लेते हो? तो सुहरावर्दी ने ‘हां’ में जवाब दे दिया और पूरा कलकत्ता शांत हो गया. 

गांधी कलकत्ता के बाद दिल्ली और फिर वहां से पाकिस्तान जाना चाहते थे. वो पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों के कत्लेआम को रोकने के लिए अनशन करना चाहते थे. लेकिन वो सिर्फ दिल्ली तक जा सके, जहां 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी.

महात्मा गांधी ने हमेशा सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. ये सच्चाई गोडसे भी जानता था. उसे गांधी से नहीं हिंदू-मुस्लिम एकता से नफरत थी. उसे बहुलवाद से नफरत थी. उसे भारत नहीं, हिंदू राष्ट्र चाहिए था.

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