यूनिवर्सिटी और कॉलेज के छात्र कई दशकों से बड़े आंदोलनों का हिस्सा रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में छात्रों के आंदोलन का हिस्सा बनने को लेकर कई तरह के सवाल खड़े किए गए. क्या वाकई में कॉलेज छात्रों को राजनीतिक आंदोलनों का हिस्सा बनना चाहिए? द क्विंट के एडिटर इन चीफ राघव बहल ने इसी विषय पर एक चर्चा की अध्यक्षता की.
छात्रों ने कई बड़े आंदोलनों में निभाई अहम भूमिका
इस चर्चा में राघव बहल ने अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए कहा कि, 1970 के दशक में छात्र राजनीति, एक्टिविज्म और पढ़ाई सब कुछ एक साथ होते थे. तब इनमें कुछ भी अलग नहीं था. छात्र हमेशा की पॉलिटिकली एक्टिव रहते थे. इसी दौरान हमने कई बड़े आंदोलन भी देखे. जिनमें छात्र शक्ति ने एक अहम भूमिका निभाई थी. हमने जेपी आंदोलन देखा, हमने नवनिर्माण आंदोलन देखा और इसी तरह के कुछ और बड़े आंदोलन देखे.
राघव बल ने आगे कहा कि, लेकिन इन 40 सालों में काफी कुछ बदल गया है. आज हम काफी हाइपर डिजिटल वर्ल्ड में जी रहे हैं. आज की दुनिया में कई तरह की बहस हैं, पहली ये कि छात्र फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट हैं या नहीं. वहीं कुछ लोग उनके बालिग और नाबालिग होने का भी तर्क देते हैं. ऐसे ही तर्कों के जरिए कहा जाता है कि पहले उन्हें अपनी पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए. एक बार पढ़ाई पूरी कर लें उसके बाद ही वो तय करें कि क्या करना है.
इस डिबेट के लिए वोट भी मांग गए थे. जिसमें दो तरह के लोग शामिल हुए, एक वो जो इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं कि छात्रों को आंदोलन में हिस्सा लेना चाहिए और दूसरे वो जो इसके खिलाफ थे. 47 फीसदी लोगों ने इसके खिलाफ वोट दिए, वहीं 53 फीसदी लोगों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया.
लगातार हिंसक हो रहे हैं कॉलेज प्रोटेस्ट - हिंडोल सेन गुप्ता
इस प्रस्ताव के समर्थन में हिस्सा लेने वाले अवॉर्ड विनर राइटर हिंडोल सेन गुप्ता ने कहा कि, हमें ये नहीं पूछना चाहिए कि छात्रों को राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं... हमें ये पूछना चाहिए कि ये राजनीतिक आंदोलन किस तरह के हैं. ये किस तरह की पॉलिटिक्स है? 2012 में द हिंदू अखबार ने बताया था कि, हर साल कॉलेज और यूनिवर्सिटी में होने वाले राजनीतिक प्रदर्शन बदलते जा रहे हैं और हिंसक हो रहे हैं.
हिंडोल सेन गुप्ता ने कहा कि, आज कैंपस में जिस तरह के पॉलिटिकल प्रोटेस्ट हो रहे हैं, उनमें देखा जा रहा है कि स्वतंत्रता की परिभाषा को बदला जा रहा है. लोगों से बोलने की आजादी छीनी जा रही है. जो भी आपकी राय से सहमत नहीं है, उसे चुप करा दिया जाता है. इस सबका नतीजा क्या हुआ है? पिछले कुछ सालों में सिर्फ 3 यूनिवर्सिटी या इंस्टीट्यूट दुनिया की टॉप 200 यूनिवर्सिटीज की लिस्ट में शामिल हो पाईं.
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