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हैदराबाद की डॉक्टर बहन को निर्भया की चिट्ठी

बहन, याद है मुझपर जुल्म के बाद क्या कहा था लोगों ने?

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मेरी प्यारी बहन,

हैदराबाद की मेरी प्यारी डॉक्टर बहन.मैं तुम्हें ही लिख रही हूं. क्योंकि हैदराबाद के उस टोल प्लाजा पर तुम ही नहीं, मैं भी खड़ी थी.

तुम्हारे गुनहगार तुम्हारे साथ मुझे भी खींच ले गए थे. जब उन्होंने एक-एक करके तुम्हें कुचला था तो मैं भी फिर से कुचली गई थी. जब तुम्हें उनसे घिन्न आ रही थी तो मेरी आंखें भी लाल हो रही थीं.

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तुम्हारी चीखों में मेरा भी चीत्कार था. उन चारों ने जब तुम्हारे मुंह को दबाया था तो सांसें मेरी भी अटक रही थीं. तुम्हारे गाल पर ढलका आंसू का वो एक कतरा, मेरी रूह से निकला था. तुम्हारे साथ मेरी सांसें भी उखड़ीं. उस ब्रिज के नीचे तुम्हारे बेजान जिस्म के साथ मैं भी जली. तुम्हारे घरवालों की सिसकियों में मैं भी शामिल थी.

सिर्फ जगह ही तो बदली है. साल ही तो बदला है. हुकूमत ही तो बदली है. चीखें वही हैं. तड़प वही है. कुचला जाना वही है. ठीक-ठीक महसूस कर सकती हूं तुम्हारी तड़प.

बहन, याद है मुझपर जुल्म के बाद क्या कहा था लोगों ने? उतनी रात को उस लड़के के साथ कहां गई थी? तुमसे कह रहे हैं पढ़ी-लिखी हो तो पुलिस को फोन क्यों नहीं किया? गलती तुम्हारी है. हमारी है. तुम पूछती क्यों नहीं उनसे कि उस बदहवाशी में किससे मदद मांगनी चाहिए और किससे नहीं, कहां होश रहता है.

याद दिलाओ न उन्हें कि तुमने अपनी बहन से फोन पर क्या कहा था. यही ना कि डर लग रहा है. प्लीज तुम मुझसे फोन पर बात करती रहो. और तुम तो किसी सुनसान सड़क पर भी नहीं थी. एक टोल प्लाजा पर थी. जहां लोग आते-जाते रहते हैं.

कहां थी पुलिस? कहां था निजाम? बताती क्यों नहीं कि तुमसे बात के 20 मिनट बाद ही तुम्हारी बहन ने पुलिस को फोन किया था. बताती क्यों नहीं कि जैसे मुझे बस में लेकर दरिंदे सारे शहर घूम रहे थे और पुलिस की लाठी काठ बन खड़ी रही, वैसे ही तुम्हारे घर वालों को भी पुलिस घुमाती रही. लेकिन कैसे बताओगी? सुनेगा भी कौन? कोई हमारी सिसकियां सुनता तो इस देश में हर घंटे 41 बहनें क्यों कुचली जातीं, क्यों रौंदी जातीं? क्यों पीटी जातीं?

और इनकी बेशर्मी तो देखो. तुम्हारे दर्द में मजहब ढूंढ रहे हैं. दर्द का कोई धर्म होता है क्या? दरिंदों का धर्म होता है क्या? ये सबूत है कि ये फिर कुछ नहीं करेंगे. फिर एक निर्भया कुचली जाएगी. फिर एक डॉक्टर बहन रौंदी जाएगी.

कोई और नहीं सुनेगा इसलिए मैं तुम्हें लिख रही हूं बहन. कोई सुनता तो दिसंबर 2012 से नवंबर 2019 के बीच कुछ बदलता जरूर?  मेरे नाम पर इन लोगों ने फंड बनाया, कानून बनाया. कुछ बदला क्या? दरिंदे आज भी बेखौफ घूम रहे हैं. रांची से हैदराबाद तक. कहां कुछ बदला है? मेरी मां मेरे गुनहागारों को अब भी फांसी पर नहीं चढ़ा पाई? मेरी मां तब से आज तलक रो रही है.

पता नहीं उन दरिंदों ने तुम्हारी जान पहले ली, या उससे पहले ही तुमने तय कर लिया होगा कि इस घिनौनी दुनिया में और दिन ठहरना मुनासिब नहीं. अब इस दुनिया में तुम आजाद हो. बाकी बहनों से यही कहूंगी. किसी पर यकीन न करना. घर, समाज, सरकार-किसी पर नहीं. तुम्हारा निगहबान सिर्फ एक है...सिर्फ तुम.

-तुम्हारी बहन निर्भया

(हैदराबाद की गैंगरेप पीड़िता को निर्भया की काल्पनिक चिट्ठी)

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