करीब दो महीने पहले मैंने लखनऊ से दिल्ली आकर डीडीए फ्लैट में एक अपार्टमेंट किराए पर लिया. जानते हैं मेरे पड़ोस में रहने वाली बुजुर्ग महिला का मुझसे पहला सवाल क्या था? उन्हें मेरे नाम में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वे सिर्फ यह जानना चाहती थीं कि मेरी जाति क्या है.
एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने की वजह से मुझे कभी अपनी जाति के बारे में नहीं सोचना पड़ा. कभी ये लगा ही नहीं कि जिस जाति में आप जन्म लेते हैं, उसका बोझ इतना अधिक हो सकता है कि उसके नीचे आपकी पूरी हस्ती ही कुचल जाए, आपको जान देनी पड़ जाए.
पर हां, यह सच है कि मुझे इस बात की जानकारी थी कि हमारे समाज, और मेरे परिवार में भी जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है. मुझे याद है एक बार मैंने अपने हॉस्टल की एक दोस्त को अपने एक कजिन की शादी में बुलाया था. उस वक्त मैं दसवीं कक्षा में थी, और ये नहीं जानती थी कि एक दोस्त को अपने घर बुलाने से पहले मुझे उसकी जाति के बारे में पता होना चाहिए था.
तो, जब वह मेरे घर आई, मेरी एक रिश्तेदार ने उसकी जाति के बारे में सवाल किया. उसने बता दिया कि वह दलित है. बस फिर क्या था, जब वह वापस गई तो मैं हैरान थी कि उसे घर बुलाने की वजह से सब मुझसे नाराज थे (भगवान का शुक्र है कि उन्होंने उसके सामने ही बवाल खड़ा नहीं किया).
जातिगत भेदभाव से यह मेरा पहला सबसे करीबी अनुभव था. और तब मुझे लगता था कि कम से कम मेरी पीढ़ी के लोग तो जातिवाद में भरोसा नहीं करते.
पर में गलत थी...
जब में बड़ी हो गई और आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहरों में गई, हर जगह मैंने देखा कि क्लास में दो बड़े ग्रुप जरूर होते हैं, एक सवर्णों का, दूसरा ‘नीची जाति’ वालों का. पर जातिगत भेदभाव मेरे लिए एक दूर की चीज था, जिसे मैंने या मेरे किसी करीबी ने महसूस नहीं किया था. पर सिर्फ तब तक, जब तक मैंने अपने करीबियों को इससे जूझते नहीं देखा.
प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक खूबसूरत युवा लड़की को उसके कायर ब्राह्मण बॉयफ्रेंड ने सिर्फ इसीलिए छोड़ दिया क्योंकि वह एक दलित है. पर उसकी त्रासदी यहां खत्म नहीं हुई, इस कड़वे अनुभव से आगे बढ़ जाने के बाद उसे एक और लड़का पसंद आया. पर वह भी एक ब्राह्मण है, और अब वह उसे अपनी जाति बताने से डरती है.
ऐसी स्थिति में हमारा समाज उसे क्या विकल्प देता है? जब उसकी जाति उसकी पसंद के व्यक्ति के साथ होने के बीच आ रही हो, तो उसे क्या करना चाहिए?
‘व्यक्ति’ नहीं, एक ‘दलित व्यक्ति’
एक दलित महिला या पुरुष, चाहे अपने काम में कितने भी निपुण हों, उन्हें हमेशा नीची नजर से ही देखा जाता है, क्योंकि वे किसी खास कुलनाम के साथ पैदा हुए हैं. हमारे ब्राह्मणवादी इस बारे में कई ‘वैज्ञानिक’ तर्क देने से नहीं चूकेंगे.
बड़ी फॉलोइंग वाले एक युवा नेता को सिर्फ इसीलिए ‘दलित नेता’ बना दिया जाएगा क्योंकि वह उस जाति में जन्मा है. उसे चुनाव के समय दलित नेता के लिए सुरक्षित सीट दी जाएगी चाहे उसकी विचारधारा, उसका अब तक का काम या नजरिया कुछ भी हो.
वह एक पूर्व डीजीपी का बेटा, जेएनयू का रिसर्च स्कॉलर, और इंडियन यूथ कांग्रेस में बड़े पद पर है. एक शानदार वक्ता और प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व का मालिक होते हुए भी वह ‘जनता’ का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, सिर्फ ‘दलितों’ का प्रतिनिधित्व कर सकता है. वह एक ‘नेता’ नहीं सिर्फ ‘दलित नेता’ हो सकता है.
हमारी व्यवस्था जातिगत भेदभाव को खत्म करने की दिशा में काम नहीं करती, बल्कि उसे और मजबूत करती है. और यह काम हमारे परिवारों से बेहतर कोई नहीं करता. मैं सिर्फ कल्पना ही कर सकती हूं कि वह युवा लड़की या यह युवा नेता जाति के बारे में क्या सोचते हैं. पर मैं जानती हूं कि मैं कभी उनका दर्द, उनका गुस्सा और असहाय महसूस करने के इस जहर को कभी नहीं समझ पाउंगी, जो हम ‘सवर्ण’ रोज ही उनके जीवन में घोल रहे हैं.
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