पूरब से पश्चिम तक और पश्चिम से उत्तर तक, हर ओर से फिल्म 'पद्मावती' के विरोध की तस्वीरें सामने आ रही हैं. इन तस्वीरों को गौर से देखने पर देश की विरोध-संस्कृति में छिपी कई चीजें आइने की तरह साफ हो जाती हैं. ये विरोध, सिर्फ फिल्म से नाइत्तेफाकी जताने के लिए नहीं हैं. इनकी अपनी एक संस्कृति है. अपनी कुछ जरूरतें हैं. कुछ मजबूरियां हैं. कुछ फायदे हैं. कुछ संभावनाएं हैं.
फिल्मों का विरोध देश के लिए नई बात नहीं है. फिल्म किसी ऐतिहासिक कहानी या चरित्र पर बनी हो तो और भी नहीं. लेकिन, बीते कुछ सालों में न्यूज चैनलों के कैमरों और सोशल मीडिया पर वायरल होने की चाहत ने इनकी संख्या कहीं ज्यादा बढ़ा दी है. अब हिमाचल के किसी छोटे से गांव और मध्य प्रदेश के कस्बे से भी प्रदर्शन की तस्वीरें हम तक पहुंच जाती हैं. वो छप जाती हैं. उनके वीडियो चल जाते हैं. ये सब कैसे काम करता है? ये कितनी आसान और मशीनी प्रक्रिया बन चुकी है. इसे समझते हैं.
विरोध की सामग्री जीप में डालें और जोरदार प्रदर्शन तैयार है!
फिल्म कोई हो, विरोध का तरीका तकरीबन एक सा है. ये परीक्षा के निर्देशों की तरह सामने आता है, जैसे एक कामयाब विरोध के लिए- आपको इन चीजों की जरूरत पड़ सकती है:
- फिल्म के 6 रंगीन पोस्टर
- फिल्म के कलाकारों और निर्देशक का अतिरिक्त पोस्टर
- संगठन के नाम और लोगो वाला एक बैनर
- 10 से 20 जोशीले लोग
- एचडी में शूट करने लायक मोबाइल
- कैमरामैन, आवश्यकतानुसार
- पुतला, आवश्यकतानुसार
- एक माचिस की डिब्बी
- नारेबाजी के बाद गला ठीक करने को मुलैठी का एक-एक पान
- महिलाओं से जुड़े मुद्दे के प्रदर्शन के लिए घर की महिलाओं का साथ
- और हां, राजनीतिक महत्वाकांक्षा होने पर कलफ लगा सफेद कुर्ता
रातों-रात प्रचार की गारंटी
कई संगठन, छोटे-बड़े शहरों में रातों-रात खड़े होते दिखाई देते हैं. इनमें से कई के नाम बीते कुछ दिनों में ही सुनाई दिए हैं. ये संगठन अलग-अलग जगहों पर फिल्म ‘पद्मावती’ का विरोध कर रहे हैं और बिना हर्र-फिटकरी के प्रचार का रंग चोखा आ रहा है. यानी, इतिहास के बारे में जानकारी हो या न हो, फिल्म देखी हो या देखी हो...प्रदर्शन के जरिए खुद प्रचार हासिल करना अच्छी रणनीति है.
लेकिन, ये विरोध-संस्कृति सिर्फ इन कमोबेश नए संगठनों तक नहीं सिमटी. सबको अखबारों की सुर्खियां और टीवी का पर्दा नसीब हो रहा है. ऊपर जिस ‘सामग्री’ का जिक्र किया गया है बस उसे जुटाइए और तस्वीरों वाला झनझनाता विरोध-प्रदर्शन तैयार है.
इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है. साइकोलॉजिस्ट अरुणा ब्रूटा कहती हैं, "इस तरह के प्रदर्शन लोगों को 'किक' देते हैं. ये कुछ बोल सकने की, खुद की भावनाएं जताने की ताकत का एहसास देता है. पहचान देता है. सोशल मीडिया के आने के बाद इन चीजों में और बढ़ोतरी हुई है."
दो दिन में भूल जाने लायक प्रदर्शन का फायदा क्या है?
‘पद्मावती’ 1 दिसंबर को रिलीज होनी है. उससे पहले देशभर में फिल्म से जुड़े विरोध-प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई है. लोग इन प्रदर्शनों को ज्यादा दिन याद नहीं रखते, न ही ऐसे संगठनों के नाम को. फिर, इन प्रदर्शनों का फायदा क्या है? जवाब देते हैं राजनीतिक विश्लेषक और स्वराज इंडिया के योगेन्द्र यादव. योगेन्द्र बताते हैं:
ये राजनीति की सीढ़ी चढ़ने का एक शॉर्टकट है. ज्यादातर मौकों पर ऐसे प्रदर्शनों में शामिल होने वालों की एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती है. वो बड़े दलों में जाकर अपने काम का हवाला देते हैं कि उन्होंने फलां प्रदर्शन का नेतृत्व किया या उसमें हिस्सा लिया.
क्या बेहतर ब्रांडिंग बेहतर फंड लाती है?
विरोध करने वाले ज्यादातर संगठन सोसाइटीज एक्ट के तहत रजिस्टर्ड हैं, जो एक बेहद आसान प्रक्रिया है. छोटे-छोटे शहरों में काम करने वाले ऐसे संगठन कई छोटी-बड़ी गतिविधियां कराते रहते हैं. इन गतिविधियों के लिए फंडिंग की जरूरत भी पड़ती है. फंडिंग और डोनेशन ठीक से मिलता रहे, इसके लिए जरूरत होती है ब्रांडिंग की.
कभी मौका मिले तो इन संगठनों के दो कमरों से चलने वाले दफ्तरों का चक्कर लगाना चाहिए. वहां आपको, ‘पद्मावती’ के विरोध समेत ऐसे तमाम प्रदर्शनों की तस्वीरें, अखबारों की कतरनें और लैमिनेटेड पोस्टर मिल जाएंगे, जो इनके ‘कारनामों’ की गवाही दे रहे होंगे. इन्हीं ‘तमगों’ और ‘ट्रॉफियों’ के दम पर अगले प्रदर्शन की नींव तैयार होती है.
विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला, एक तरफ आम जिंदगी की बोरियत दूर करने के स्तर पर काम कर रहा है, तो दूसरी तरफ सियासी सीढ़ियां तेजी से चढ़ने का औजार भी साबित हो रहा है. आपको 1 दिसबंर की ‘पद्मावती’ रिलीज से पहले अभी ऐसे ढेरों प्रदर्शन देखने को मिलेंगे.
बस एक गुजारिश है, इन प्रदर्शनकारियों से इतिहास पर बात मत कर लीजिएगा, बगलें झांकने लगेंगे!
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