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282 Cr के इलेक्टोरल बॉन्ड बिके, बिहार में 1 Cr से भी कम की बिक्री!

बिहार चुनाव से पहले कहां सबसे ज्यादा बिके इलेक्टोरल बॉन्ड?

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बिहार विधानसभा चुनाव 2020 से पहले इलेक्टोरल बॉन्ड की एक और खेप की बिक्री हुई. अक्टूबर में एक बार फिर ये बिक्री स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) की चुनिंदा शाखाओं के जरिए हुई. सूचना का अधिकार के तहत इकट्ठी की गई जानकारी के मुताबिक, एसबीआई ने 10 दिनों के भीतर (19-28 अक्टूबर) कुल 282 करोड़ रुपये कीमत के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे.

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हालांकि दिलचस्प बात ये है कि खुद बिहार में चुनाव के दौरान मामूली रूप से 80 लाख रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए. ये दान की गई कुल रकम का 0.3 प्रतिशत है.

बिहार चुनाव के लिए राजनीतिक चंदों का करीब 68 फीसदी हिस्सा, इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में मुंबई और चेन्नई से आया.

इससे साफ संकेत मिलता है कि आम लोगों या राज्य के स्थानीय मतदाताओं की ओर से चंदे नहीं दिए जा रहे हैं. ज्यादा संभावना ये है कि कॉरपोरेट घराने गुपचुप तरीके से पूरी चुनावी प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में रकम झोंक रहे हैं.
अंजलि भारद्वाज, ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट

जैसा कि हम जानते हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम चंदा देने वाले की पहचान उजागर करने की इजाजत नहीं देती है.

पूर्व वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम और इसकी अपारदर्शिता का बचाव ये कहते हुए किया था, “अगर आप चंदा देने वालों की पहचान उजागर करने को कहते हैं तो मुझे आशंका है कि दोबारा नकद चंदे की व्यवस्था बहाल हो जाएगी.”

लेकिन पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त हबीबुल्लाह वजाहत कहते हैं, “गुपचुप तरीके से इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप में राजनीतिक चंदे के जरिए बेहिसाब चुनावी कोष इकट्ठा करने की इजाजत मिल जाती है और ये लोकतांत्रिक चुनाव के वास्तविक सिद्धांतों के खिलाफ है.”

जेटली ने राजनीतिक चंदों के बारे में ये भी कहा था, “ये अलग-अलग राजनीतिक कार्यकर्ताओं, शुभचिंतकों, छोटे कारोबारी लोगों और यहां तक कि बड़े उद्योगपतियों से प्राप्त होता है.” हालांकि बीते दो सालों में बिके इलेक्टोरल बॉन्ड के आंकड़े दर्शाते हैं कि केवल बड़े कॉरपोरेट और उद्योगपति ही चंदा दे रहे हैं. आरटीआई के जवाब से पता चलता है कि हजार और 10 हजार रुपये वाले 99 फीसदी इलेक्टोरल बॉन्ड बिक नहीं सके हैं.

जो लोग बड़े चंदे देते हैं उन्हें राजनीतिक पार्टियां बदले में मदद करती हैं. इसलिए राजनीतिक दल और चंदे देने वाले नहीं चाहते कि ये बात लोगों को पता चले और लोग उनके बीच के रिश्तों को जान सकें.
जगदीप छोकर
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एसबीआई की ओर से 1000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये और 1 करोड़ रुपये के पांच इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए हैं.

ट्रांसपेरेंसी कार्यकर्ता कोमोडोर (रिटायर्ड) लोकेश बत्रा और विहार दुर्वे को आरटीआई से हासिल जवाब से पता चला है कि बेचे गए 98 फीसदी इलेक्टोरल बॉन्ड 1 करोड़ रुपये की रकम वाले हैं.

2020 बिहार चुनावों के दौरान रकम के हिसाब से इलेक्टोरल बॉन्ड का ब्योरा:

बिहार चुनाव से पहले कहां सबसे ज्यादा बिके इलेक्टोरल बॉन्ड?

पटना में महज 80 लाख रुपये के बॉन्ड बिके

बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान अक्टूबर 2020 में इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री एसबीआई की 9 शाखाओ में हुई. जैसा कि पहले जिक्र किया गया है कि कुल 282 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड में महज 80 लाख रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड पटना में बेचे गए.

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बड़े मेट्रोज में इलेक्टोरल बॉन्ड की भारी बिक्री को देखते हुए यह साफ है कि बड़े कॉरपोरेट घरानों ने ये बॉन्ड खरीदे. अगर ये खासतौर से बिहार के लिए थे तो ज्यादा से ज्यादा बॉन्ड पटना में खरीदे गए होते. आम लोग या स्थानीय लोग इन चुनावों के लिए चंदे नहीं दे रहे हैं.
जगदीप छोकर
बिहार चुनाव से पहले कहां सबसे ज्यादा बिके इलेक्टोरल बॉन्ड?
बिहार चुनाव से पहले कहां सबसे ज्यादा बिके इलेक्टोरल बॉन्ड?

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने इलेक्टोरल बॉन्ड का जो विश्लेषण किया है उससे पता चलता है कि मार्च 2018 से जनवरी 2020 के दौरान मूल्य के आधार पर बेचे गए बॉन्ड को देखें तो शीर्ष के पांच बड़े शहर हैं- मुंबई, कोलकाता, नई दिल्ली, हैदराबाद और भुवनेश्वर.

बिहार चुनाव के दौरान बॉन्ड की बिक्री में भी इन्हीं बड़े मेट्रो का दबदबा नजर आता है.

इसकी बिक्री के बाद, इलेक्टोरल बॉन्ड की चौदहवीं किश्त, पॉलिटिकल डॉनेशन के लिए खरीदे गए बॉन्ड्स का मूल्य 6,493 करोड़ रुपये है..

बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने 2018 में इस वादे के साथ इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को शुरू किया था कि राजनीतिक चंदों की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाएगा.

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क्विंट ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के बारे में सवालों से भरी रिपोर्ट की पूरी सीरीज प्रकाशित की है जो लोकतंत्र पर खतरे के बारे में लगातार आगाह करती रही हैं.

केंद्र सरकार, आरबीआई और चुनाव आयोग से साझा किए गए इन लेखों में इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी चिंताओं को रेखांकित किया गया है, जिनमें बेनामी लेन-देन, मनी लॉन्ड्रिंग और बॉन्ड सर्टिफिकेट में मौजूद गोपनीय नंबर के तौर पर सूचनाएं, जो सत्ताधारी दल की मदद कर सकती हैं, से जुड़ी आशंकाएं शामिल हैं.

2018 में स्वयंसेवी संगठनों और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ओर से सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी जिसमें योजना की अपारदर्शिता के बारे में क्विंट के लेख का जिक्र था. लेकिन, यह मामला अब भी कोर्ट में लंबित है.

ट्रांसपेरेंसी कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज कहती हैं, “यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में लटकी हुई है, जबकि इनका इस्तेमाल लगातार चुनाव नतीजों को प्रभावित करने में हो रहा है. राजनीतिक दलों को फंडिंग कर रहे लोगों से मतदाता अनजान हैं और इसलिए एक बार जब ये दल सत्ता में आ जाते हैं तो ऐसे लोगों को संरक्षण का फायदा मिलता है.”

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