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इन नेताओं के लिए अच्‍छे साबित हुए मुजफ्फरनगर दंगों के दाग

डालिए एक नजर उन सियासी चेहरों पर, जिनका कद 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अपनी पार्टी में बढ़ गया.

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भारत
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत समेत मेरठ और सहारनपुर सीमाक्षेत्र में साल 2013 में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए. 27 अगस्त से 9 सितंबर तक करीब 2 हफ्ते चले इन दंगों में आधिकारिक तौर पर कुल 60 लोग मारे गए. कई सौ लोग बेघर हो गए और हजारों लोग दंगा भड़काने के लिए नामजद किए गए.

इसके बाद यूपी सरकार ने इलाहबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस विष्णु सहाय को इन दंगों की जांच करने के लिए बनाए एक कमीशन का अध्यक्ष बनाया. उन्हें जो जांच रिपोर्ट 2 महीने में तैयार करनी थी, उसे तैयार करने में जस्टिस सहाय ने 2 साल, 14 दिन का वक्त लिया.

खैर, इस दौरान उन्होंने 377 लोगों की गवाही सुनी, जिनमें 100 पुलिसवाले शामिल थे.

700 पन्ने की अपनी रिपोर्ट में जस्टिस सहाय ने कहा कि लोकल स्तर पर यूपी पुलिस का इंटेलिजेंस फेलियर मुजफ्फरनगर दंगों का एक प्रमुख कारण बना.
डालिए एक नजर उन सियासी चेहरों  पर, जिनका कद 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अपनी पार्टी में बढ़ गया.
दंगों के बाद मुजफ्फरनगर शहर का कुछ ऐसा हाल हो गया था. (फोटो: @NSoJ_Bangalore )

इस बीच लोकसभा चुनाव, 2014 की तैयारी में जुटी भारतीय जनता पार्टी ने एक भी ऐसा मौका नहीं छोड़ा, जब हिंदुत्व के एजेंडे को प्रमोट करने के लिए बीजेपी ने मुजफ्फरनगर दंगों को न भुनाया हो. रिटायर्ड जस्टिस सहाय ने अपनी रिपोर्ट में न तो अखिलेश सरकार को क्लिन चिट दी थी और न ही बीजेपी के किसी नेता पर सीधा आरोप लगाया था. उनकी रिपोर्ट के मुताबिक, ये सांप्रदायिक दंगे राजनीति से प्रेरित थे.

फिल्ममेकर नकुल सिंह और नेहा दीक्षित के डायरेक्शन में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘मुजफ्फरनगर अभी बाकी है’ ने सपा और बीजेपी के नेताओं को इन दंगों का जिम्मेदार ठहराया था. इस फिल्म में दंगा प्रभावित इलाकों के तमाम लोगों ने कैमरा पर यह माना था कि मायावती अगर सत्ता में होतीं, तो ये दंगे नहीं होते.
डालिए एक नजर उन सियासी चेहरों  पर, जिनका कद 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अपनी पार्टी में बढ़ गया.
(फोटो: governancenow)

जाट बनाम मुसलमान हुए इन दंगों ने वेस्टर्न यूपी में सामाजिक ढांचे को काफी बदला. लेकिन सबसे प्रबल बदलाव हुआ दिल्ली-मुजफ्फरनगर बेल्ट के राजनीतिक गणित में, जिसके चलते कई राजनेता वक्त से काफी पहले और जरूरत से काफी आगे निकल गए.

डालिए एक नजर उन चेहरों पर, जिनके लिए दंगों के दाग अच्छे साबित हुए :

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सोम ने बजाया हिंदुत्‍व का संगीत और बन गए हीरो

मेरठ से सटा सरधना एक वक्त में कपड़ा उद्योग के लिए काफी मशहूर रहा है. लेकिन मिश्रित आबादी वाले इस इलाके को बीजेपी विधायक संगीत सिंह सोम ने एक नई पहचान दी साल 2013 में. 2012 विधानसभा चुनाव के ठीक एक साल बाद. इस नई विधानसभा सीट से पहली बार विधायक चुने गए सोम मुजफ्फरनगर दंगों के प्रमुख अभियुक्त रहे.

दंगा भड़काने के आरोप में उन पर NSA लग चुका है. एक बार फर्जी डिग्री मामले में भी वो फंस चुके हैं. वो कट्टर हिंदूवादी भाषण देते हैं. आलम यह है कि वेस्टर्न यूपी के हर हिंदू-मुस्लिम विवाद में 4 साल से कम का पॉलिटिकल करियर रखने वाले सोम ‘हिंदू संरक्षक’ के तौर पर पहुंचने की कोशिश करते हैं. सूत्रों की मानें, तो इस इमेज के आधार पर ही मोदी और अमित शाह के दरबार में उनकी सीधी पहुंच बन पाई है.

सोम अपने कार्यकर्ताओं से यह कहते हुए सुने जाते हैं कि हिंदुओं की सेवा के बदले ही गृह मंत्रालय ने उन्हें 26 अगस्त, 2014 को जेड प्लस सिक्योरिटी से नवाजा.

हाल ही में विधायक संगीत सोम ने आगामी यूपी विधानसभा चुनाव को भी मेरठ में आयोजित एक सभा में भारत और पाकिस्तान के विवाद से जोड़कर देखने को कहा. (संकेत हिंदू-मुस्लिम वोटों पर था)

अपनी इसी कड़वाहट के कारण सोम 2013 के दंगों के बाद से ही मुजफ्फरनगर से सटे इलाकों में मुसलमानों की बढ़ती आबादी का डर दिखाकर हिंदुओं में अपना वोट बैंक पक्का करते रहे हैं. और मुजफ्फरनगर दंगों से सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाले नेताओं में से एक हैं.

सोम के पदचिह्नों पर पांव रखते चले हैं बीजेपी नेता सुरेश कुमार राणा. राणा 12वीं पास हैं, कागजों में खुद को किसान बताते हैं, हिंदू राजपूत परिवार से हैं और थाना भवन विधानसभा सीट से 2012 में 300 वोट से कम के अंतर से चुनाव जीते थे. वो मुजफ्फरनगर दंगों में काफी एक्टिव रहे. आज की तारीख में अपने सांसद (हुकम सिंह, कैराना) से ज्यादा पहुंच रखते हैं और यूपी चुनाव-2017 में इस सीट से टिकट के प्रमुख दावेदार हैं.
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बालियान ने दंगों के असर में सभी दावेदारों को दबाया

बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता कादिर राणा को 4 लाख वोटों से हराकर 16वीं लोकसभा के लिए सांसद चुने गए बीजेपी के डॉक्टर संजीव कुमार बालियान मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उभरे दूसरे सबसे बड़े नेता हैं.

मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से बालियान की जीत को इसलिए भी अहमियत दी गई, क्योंकि साल 2009 में बीजेपी का इस सीट से बताने लायक कोई दावेदार तक नहीं था और साल 2014 में 4 लाख के ऐतिहासिक अंतर से बालियान ने जीत हासिल की.

स्थानीय लोगों के मुताबिक, 2013 के दंगों का असर उन गावों में सबसे ज्यादा रहा था, जो गांव मलिक और बालियान खाप के अंतर्गत आते हैं.

बालियान (जाट) समुदाय के सबसे बड़े नेता की हैसियत में संजीव ने दंगा प्रभावित इलाकों में हिंसा में शामिल हिंदुओं को समर्थन देने का प्रचार किया. इस संबंध में तमाम रिपोर्ट्स सामने आती रही हैं.

साथ ही इस पूरे इलाके में हिंदू-मुस्लिम एकता का नारा बुलंद करने वाले लोकप्रिय किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के समर्थक अब हरी टोपियां लगाए संजीव बालियान की रैलियों में शिरकत करते हैं. उन्हें किसान मसीहा कहते हैं. यह जानते हुए भी कि बालियान और टिकैत के विचारों में भारी मतभेद है.

हर चुनाव में अपना नेता बदलने वाले मुजफ्फरनगर सीट के वोटर्स पर फिलहाल बालियान का दबदबा कायम है. वो इस पूरे इलाके की समस्याओं को केंद्र सरकार तक ले जाने की क्षमता रखते हैं और इसका प्रचार भी करते हैं.

कुल मिलाकर, बालियान की चमक के पीछे रालोद नेता अनुराधा चौधरी, कांग्रेसी नेता हरिंदर सिंह मलिक और बीएसपी नेता कादिर राणा जैसे कई नामी चेहरे लोगों की नजर से उतर चुके हैं.

दंगा भड़काने का आरोप गुर्जर नेता और कैराना लोकसभा सीट से सांसद हुकम सिंह पर भी लगा था. लेकिन कांग्रेस से बीजेपी में पहुंचे हुकम सिंह पार्टी को ज्यादा संभावनाएं नहीं दिखा पाए, जबकि हुकम सिंह के पास हिंदुओं समेत मुस्लिम गुर्जरों का भी समर्थन रहा है. फिलहाल पार्टी को कम असरदार दिख रहे हुकम सिंह का कद आज की तारीख में काफी सीमित है.
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बगैर जनाधार के सांसद बने सत्यपाल सिंह

दंगों की बदौलत ही बीजेपी को सत्यपाल सिंह के तौर पर दिल्ली-मुजफ्फरनगर बेल्ट का एक और सांसद मिला, क्योंकि दंगों से आहत समाजवादी नेता सोमपाल सिंह शास्त्री ने बागपत लोकसभा सीट से 2014 का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था. शास्त्री उस वक्त इस सीट के लिए सबसे मजबूत प्रत्याशी थे.

इसका सीधा फायदा मिला मुंबई के रिटायर्ड पुलिस कमिशनर और बीजेपी में एंट्री लेते ही चुनावी मैदान में उतर रहे सत्यपाल सिंह को, जिनका कभी कोई राजनीतिक आधार नहीं रहा था.

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मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हिंदू नेताओं का वर्चस्व बढ़ा और मुस्लिम नेता हाशिए पर चले गए. यह कह देना बदलते चुनावी गणित का कमजोर आकलन होगा. ऐसा कतई नहीं हुआ है.

क्योंकि हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करने वाले महेंद्र सिंह टिकैत और चौधरी चरण सिंह की विचारधारा पर चलने वाले तमाम हिंदू नेताओं को भी पटकनी लगी है. इसलिए दंगों का अस्वाभाविक राजनीतिक फायदा एक खास विचारधारा को सबसे ज्यादा हुआ. और यह महज एक इत्तेफाक नहीं है.

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