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राजस्थान उपचुनाव में कांग्रेस की धाकड़ जीत की वजह कहीं ये तो नहीं

अब इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव में क्या रणनीति बनाएगी बीजेपी?

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राजस्थान उपचुनाव में बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी है. तीनों सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा जमा लिया है. वो भी पूरी तरह खम ठोक कर. अलवर लोकसभा सीट पर कांग्रेस ने करीब दो लाख वोट से और अजमेर लोकसभा सीट पर 80 हजार वोट से धमाकेदार जीत दर्ज की है. अलवर से डॉ. करण सिंह यादव विजयी हुए हैं, वहीं अजमेर से रघु शर्मा ने जीत हासिल की है. मांडलगढ़ से विवेक धाकड़ ने बीजेपी के शक्ति सिंह हाड़ा को मात दी है.

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राजस्थान में इसी साल नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में इन उपचुनावों पर हर राजनीतिक दल की पैनी नजर बनी हुई थी. उपचुनाव के नतीजों को बीजेपी के लिए बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. ये वसुंधरा सरकार के लिए खतरे की घंटी है जिन्हें पहले ही सूबे में जनता की भारी नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है.

अलवर में ऐसा क्या हो गया?

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने रिकॉर्ड तोड़ जीत हासिल की. राजस्थान में जहां 25 की 25 सीट खाते में आ गिरीं तो वहीं अलवर सीट पर तो जैसे कमाल हो गया. महंत चांदनाथ ने ये सीट 2 लाख 83 हजार वोट के अंतर से जीती थी. 2017 में चांदनाथ के निधन के बाद ये सीट खाली हुई. बीजेपी को राजस्थान की अहमियत भली-भांति पता है. यही वजह है कि उसने उपचुनाव से पहले 41 स्टार प्रचारकों की जो लिस्ट जारी की उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से लेकर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के नाम शामिल रहे. पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी. लेकिन कुछ काम नहीं आया.

करण सिंह यादव ने 1 लाख 96 हजार वोटों से बंपर जीत दर्ज की है. उन्हें 57.8 फीसदी वोट मिले. ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इस सीट पर कांग्रेस को 2.80 लाख वोट की हार का सामना करना पड़ा था. यानी, कांग्रेस ने करीब 5 लाख वोटों के बड़े अंतर को हासिल किया है. अलवर में करण सिंह यादव की अच्छी साख है. मेडिकल डॉक्टर होने के नाते शहर उन्हें अच्छी तरह जानता भी है और पहचानता भी है. वो दो बार विधायक और एक बार सांसद भी रह चुके हैं. बीजेपी ने यादव के सामने यादव कार्ड खेलना मुनासिब समझा. करण सिंह के सामने जसवंत सिंह यादव को उतारा गया लेकिन मामला बना नहीं.

जसवंत सिंह यादव, वसुंधरा सरकार में कैबिनेट मंत्री भले हैं लेकिन इसका कुछ फायदा उन्हें मिला हो, ऐसा लगता नहीं.

क्या पहलू खान केस भी बना मुद्दा?

अलवर में बीजेपी के खिलाफ माहौल तो बीते साल अप्रैल से ही बनने लगा था. पहलू खान को कथित गौरक्षकों ने पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया था. उसके अलावा उमर मोहम्मद भी कथित गौरक्षकों का शिकार बने. अलवर में मुस्लिम वोटरों की तादाद करीब साढ़े तीन लाख बताई जाती है. यूं तो मुस्लिम वोटर, परंपरागत तौर पर भी बीजेपी के खिलाफ रहा है लेकिन इस घटना ने रुख पूरी तरह मोड़ दिया. इस माहौल में बीजेपी के सामने सीट बचाने की चुनौती वाकई कड़ी हो चली थी. और नतीजे देखकर लगता है कि पहलू खान फैक्टर ने भी बीजेपी की हार में एक धक्का देने का काम किया.

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अजमेर में ऐसा क्या हुआ?

2014 में बीजेपी की लहर में प्रो. सांवरलाल जाट ने कांग्रेस के युवा और लोकप्रिय नेता सचिन पायलट को शिकस्त दी थी. जब सांवरलाल जाट के निधन के बाद सीट खाली हुई तो माना ये गया कि राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष और राहुल गांधी के करीबी समझे जाने वाले सचिन पायलट खुद यहां से ताल ठोकेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उनकी तलाश रघु शर्मा पर रुकी और उन्हें मौका देना ही मुनासिब समझा. बीजेपी को अपने उम्मीदवार को लेकर कुछ खास सोचना नहीं था. पार्टी ने जाट के बेटे रघु शर्मा ने कांग्रेस आलाकमान को निराश नहीं किया. उन्होंने सांवरलाल जाट के बेटे रामस्वरूप लांबा को करीब 85 हजार वोट से हरा दिया है. उन्हें 51 फीसदी वोट मिले. कहा जा सकता है कि या तो लांबा के लिए कोई सहानुभूति लहर थी ही नहीं या फिर रघु शर्मा की रणनीति उस लहर पर भारी पड़ गई.

सचिन पायलट का डबल धमाका

राजनीतिक चौसर के हर दांव-पेच पर करीब से नजर रखने वाले जानकारों की मानें तो अजमेर में सचिन पायलट की रणनीति धमाकेदार रही है. उन्हें, साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल माना जा रहा है. ऐसे में अगर वो अजमेर से चुनाव लड़ते और हार जाते तो उनके पूरे राजनीतिक करियर पर ही संकट के बादल मंडरा सकते थे. चुनाव जीतने की सूरत में 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर होती. उधर, रघु शर्मा को आगे कर जातीय गणित साधने की बात भी कही जा रही है. अजमेर में मुख्य तौर पर जाट और गुर्जर वोटर हैं. इसके अलावा राजपूत, ब्राह्मण और वैश्य वोटरों की संख्या भी ठीक-ठाक है.

गुर्जरों के बीच पायलट पहले ही लोकप्रिय हैं. लेकिन, रघु शर्मा को उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस ने ब्राह्मण और वैश्य वोटरों को भी अपनी तरफ खींचने में कामयाबी हासिल की, जो बीजेपी के परंपरागत वोटर रहे हैं. उधर, आनंदपाल सिंह एनकाउंटर मामले का असर भी राजपूत वोटरों के बीजेपी से छिटकने के तौर पर हुआ लगता है. कांग्रेस अपने प्रचार के दौरान बराबर इन मुद्दों के जरिए राजपूत वोटरों को अपने पाले में मोड़ने की कोशिश करती दिखी थी. इसके अलावा ‘पद्मावत’ मुद्दे की वजह से भी राजपूत वोट बीजेपी से छिटके हैं. लगता है राजपूत वोटरों को ‘पद्मावत’ मुद्दे पर बीजेपी की रणनीति खास पसंद नहीं आई. 

मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर 'धाकड़' निकले विवेक

रसुबह जब रुझानों का सिलसिला शुरू हुआ तो 12 राउंड तक बीजेपी के शक्ति सिंह हाड़ा ने बढ़त बरकरार रखी. लेकिन उसके बाद फिसलन शुरू हो गई. हर गुजरते राउंड के साथ कांग्रेस के विवेक धाकड़ ने पकड़ मजबूत की. कांटे की टक्कर में विवेक ने शक्ति सिंह को करीब 13 हजार वोट से मात दी. विवेक को 70,146 वोट मिले, वहीं शक्ति सिंह को 57,70 वोट से संतोष करना पड़ा. धाकड़ को 39.5 फीसदी वोट मिले तो शक्ति सिंह को 32.19% वोट मिले.

माना जा रहा था कि मांडलगढ़ में कांग्रेस के बागी गोपाल मालवीय, धाकड़ का खेल बिगाड़ सकते हैं. नतीजों को देख कर इस बात में दम भी नजर आता है. मालवीय को करीब 40, 000 वोट मिलें हैं यानी, अगर मालवीय मैदान में नहीं होते तो धाकड़ की जीत का अंतर कहीं ज्यादा हो सकता था.

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