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Rohingya अवैध प्रवासी नहीं शरणार्थी हैं, दोनों में बहुत फर्क: कॉलिन गोंजाल्विस

वकील गोंजाल्विस ने कहा,भारत सरकार ने पारंपरिक रूप से शरणार्थियों के साथ बहुत ही आक्रामक भाषा का इस्तेमाल किया है

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बुधवार 17 अगस्त को आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदेव सिंह पुरी ने ट्वीट किया था कि दिल्ली में रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों को ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर तबके) फ्लैट्स में भेजा जाएगा और कि “भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी समझौते का सम्मान करता है और नस्ल, धर्म या संप्रदाय से इतर सभी लोगों को शरण देता है.” लेकिन इसके तुरंत बाद गृह मामलों के मंत्रालय ने ‘स्पष्ट किया’ कि रोहिंग्या लोगों को कहीं नहीं रखा जाएगा, और उसने कहा कि उन्हें वापस भेजा जाएगा.

इस सिलसिले में द क्विंट ने सुप्रीम कोर्ट के वकील और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) के फाउंडर कॉलिन गोंजाल्विस से बात की. उनसे शरणार्थियों और अवैध प्रवासियों के बीच के फर्क और रोहिंग्या शरणार्थियों पर सरकार के रुख के बारे में चर्चा की और पूछा कि भारत को शरणार्थियों पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन क्यों करना चाहिए. इस इंटरव्यू के कुछ हिस्से-

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दिल्ली में रोहिंग्या शरणार्थियों पर हरदेव पुरी और गृह मंत्रालय के बीच इन विरोधाभासी बयानों से आप क्या समझते हैं?

मंत्री महोदय एकदम सही हैं. भारत ने 1951 के शरणार्थी समझौते पर दस्तखत किए हैं या नहीं, संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में यह अपेक्षित है कि भारत शरणार्थियों पर अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करे.

इसका मतलब है कि जो भी देश कानून के शासन का पालन करते हैं, उन्हें “नॉन-रिफूलमेंट” का सिद्धांत मानना होगा. “नॉन-रिफूलमेंट” का मतलब यह है कि शरणार्थियों या शरण की मांग करने वाले लोगों को उस देश में लौटने को मजबूर नहीं किया जाएगा जहां उनके साथ उत्पीड़न होता है. इससे भी बढ़कर है, जूस कॉजेंस का सिद्धांत, यानी “कानून का यह सिद्धांत कि कोई भी देश उन लोगों का अपमान नहीं कर सकता.” कोई देश नहीं कह सकता है कि यह हमारे वैधानिक कानून में नहीं है या हमारे संविधान में नहीं है.

अगर आप कानून की सभ्य दुनिया के बाशिंदे हैं तो यह अंतरराष्ट्रीय कानून का एक सामान्य सिद्धांत है- कि आप उत्पीड़न के खतरे से भागने वाले किसी शरणार्थी को उस देश में नहीं लौटाएंगे जहां उनके मारे जाने या उत्पीड़न का खतरा है, अगर उसे वहां धकेला जाता है. कोई देश ऐसा नहीं कह सकता कि हम इसे नहीं मानते- जैसा कि भारत कह रहा है.

शरणार्थियों से संबंधित कानूनों पर अपने ‘रुख’ के लिहाज से भारत एक क्रूर देश है. लेकिन व्यावहारिक रूप से यह कहीं बीच में है. एक समय था, जब (गृह) राज्य मंत्री ने कहा था कि “हम सभी 60,000 (रोहिंग्या) शरणार्थियों को वापस भेजना चाहते हैं.”

इस बयान से भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय सकते में आ गए. लेकिन भारत ने ऐसा किया नहीं. यह कहा जाना चाहिए कि भारत ने जैसा कहा था, वैसी बदसलूकी नहीं की. लेकिन आगे वह ऐसा करता है या नहीं, अभी देखना बाकी है.

फिलहाल उसका मौजूदा रवैया यह है कि हम शरणार्थियों के मानवाधिकारों या संवैधानिक अधिकारों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, और यह भारतीय कानूनों से एकदम उलट है. अदालतों ने म्यांमार और तिब्बत के शरणार्थियों पर जो फैसले दिए हैं, उनमें कहा गया है कि भारत को “अपनी अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं का पालन करना होगा.”

इसलिए सरकार गलत कहती है कि हमने 1951 के शरणार्थी समझौते पर दस्तखत नहीं किए तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता.

इस संबंध में हमने सुप्रीम कोर्ट में केंद्र के खिलाफ मुकदमा किया क्योंकि शरणार्थियों को पीडीएस अधिकार नहीं दिए जा रहे, सरकारी अस्पतालों में उनका इलाज नहीं किया जा रहा, उनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला नहीं दिया जा रहा. इस मामले में मुझे भारत के सॉलिसिटर जनरल को बधाई देनी चाहिए जिन्होंने कहा है कि "जो कुछ भी भारतीय नागरिकों पर लागू होता है, वह शरणार्थियों पर भी लागू होता है."

यह कानून है. संविधान का अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) भारतीय नागरिकों और गैर नागरिकों पर एक जैसा लागू होता है. यह भारत के परिक्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों पर लागू होता है.

जब मंत्री लोग कहते हैं कि रोहिंग्या विदेशी हैं और इसलिए संविधान उन पर लागू नहीं होता, तो वे गलती कर रहे होते हैं. बेशक, यह लागू होता है, खाना, शिक्षा और स्वास्थ्य, मौलिक अधिकार हैं.

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रोहिंग्या शरणार्थी हैं या अवैध प्रवासी”?

जो शरणार्थी उत्पीड़न, अत्याचार, बलात्कार, हत्या के खौफ से भागे हैं- जैसे म्यांमार से भागे रोहिंग्या लोग- वे लोग अपराधी नहीं है. उन लोगों ने वीसा के बिना सीमा पार की है और दूसरे देश में आ गए हैं लेकिन उन्होंने कानून नहीं तोड़ा है. क्यों? क्योंकि अंतरराष्ट्रीय और भारतीय कानून इस बात को स्वीकार करता है कि अपनी जान बचाने के लिए आप जो भी करें, मृत्यु या उत्पीड़न से बचने के लिए आप जो भी करें, वह कभी भी अपराध नहीं हो सकता.

सिर्फ यह सच्चाई कि वे लोग वीजा के बिना आए हैं, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं बनाती.

एक अवैध प्रवासी होने और एक शरणार्थी होने के बीच एक बहुत बड़ा फर्क होता है. इनके बीच सिर्फ एक बात एक जैसी है कि दोनों विजा के बिना आते हैं. लेकिन अवैध प्रवासी यहां अपनी मर्जी से आते हैं, और शरणार्थियों के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं होता.

अवैध प्रवासी आर्थिक वजहों से आते हैं इसलिए अगर आप सिर्फ एक अवैध प्रवासी हैं, तो आपको गिरफ्तार किया जा सकता है और वापस भेजा जा सकता है. उस पर बिल्कुल भी विवाद नहीं है. लेकिन एक रोहिंग्या अवैध प्रवासी नहीं है. वह एक शरणार्थी है

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रोहिंग्या लोगों को ईडब्ल्यूएस फ्लैट्स में शिफ्ट करने का स्पष्टीकरण देते हुए गृह मंत्रालय ने कहा किकानून के अनुसार अवैध विदेशियों को उनके देश निकाले तक डिटेंशन सेंटर्स में रखा जाना चाहिए.क्या केंद्र ऐसा कर सकता है?

अपने ही देश में उत्पीड़न से भागकर अगर शरणार्थी भारत आए, तो क्या उन्होंने अपराध किया है? नहीं.

हर लोकतांत्रिक देश को शरणार्थियो को उचित जगह देनी चाहिए. डिटेंशन सेंटर जेल की तरह होता है. यह अपराधियों के लिए होता है, शरणार्थियों के लिए नहीं.

मैं मंत्री जी (हरदेव पुरी) को बधाई देना चाहूंगा जिन्होंने दूरंदेशी दिखाई और वह कहा, जो किया जाना चाहिए. जबकि गृह मंत्री हमेशा की तरह, कड़ा रुख अपना रहे हैं- जिसे शरणार्थियों के प्रति एक पुलिसिया नजरिया कहा जा सकता है.

शरणार्थी पुलिसिया समस्या नहीं है. हां, अगर वे भारत का कानून तोड़ते हैं तो यह पुलिसिया समस्या बन जाती है. शरणार्थी मानवाधिकार का मामला है, पुलिस का नहीं.

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रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ भारत के बर्ताव के बारे में आपका क्या कहना है?

भारत सरकार ने पारंपरिक रूप से (रोहिंग्या) शरणार्थियों के बारे में बहुत ही अभद्र और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल किया है, और इसकी वजह उन्हें डराना है. मैंने रोहिंग्या लोगों की आपराधिकता की पड़ताल की है. मैं एक टीवी कार्यक्रम में गया था, जिसमें सुब्रमण्यम स्वामी भी आए थे.

उस कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि 'हम रोहिंग्या लोगों की आपराधिक जड़ों और आपराधिक इतिहास को लेकर बहुत डरे हुए हैं. इसके जवाब में मैंने कहा था कि मैं जम्मू-कश्मीर में रोहिंग्या लोगों की सभी 19 बस्तियों में गया था. वहां मैं निकटवर्ती पुलिस थानों के पुलिस अधिकारियों से मिला और उनसे पूछा कि क्या उनके इलाके का कोई रोहिंग्या किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल है. उन सभी ने कहा था- नहीं. आपराधिक गतिविधि का मतलब मामूली अपराध नहीं, मानव तस्करी और दूसरे गंभीर अपराध हैं.

एक हफ्ते बाद जम्मू-कश्मीर के डीजी पुलिस ने एक बयान जारी करके कहा था कि जम्मू-कश्मीर में किसी रोहिंग्या की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है.

क्या यह प्रणालीगत है? नहीं. क्या रोहिंग्या आम तौर पर अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं? नहीं, क्या यह कानून-व्यवस्था की समस्या है? नहीं.

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पहले शरणार्थियों पर भारत का क्या रुख रहा है?

तिब्बतियों के लिए भारत सरकार बहुत न्यायसंगत रही है. श्रीलंकाई लोगों के लिए, यह न्यायसंगत से कुछ कम था. वे भारत आते हैं लेकिन वे शरणार्थी शिविरों में रहते हैं, और एक दशक से ज्यादा समय हो गया है. उनके हालात भयानक हैं. उन्हें श्रीलंका में और फिर भारत में उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. यह दर्द और भारत सरकार के निरंकुश व्यवहार की गाथा है.

अफ्रीकी देशों के शरणार्थियों के लिए हमारे देश का रवैया भयंकर है. इसकी कुछ वजह भारतीय प्रशासन का नस्लवादी रुख है. वे डिटेंशन सेंटर्स में हैं. रोहिंग्या लोगों के अपने देश में बहुत ज्यादा उत्पीड़न है.

जहां तक भारत सरकार का रिकॉर्ड है, वह बहुत ही मिलाजुला है. तिब्बतियों को छोड़कर, इसका रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. अगर आप एक हिंदू शरणार्थी हैं, तो आपके साथ अलग व्यवहार किया जाता है. अफगान हिंदुओं के साथ, अफगान मुसलमानों से अलग व्यवहार किया जाता है.

उसकी प्रतिक्रिया बहुत अलग-अलग और अस्पष्ट है, और इसके लिए ईश्वर का शुक्रिया है. वरना, लोग कहते, 'चलो उन्हें सीमा पार धकेल दो.' तो नौबत यहां तक नहीं पहुंची है.हम बहुत साल पहले म्यांमार वासियों को वापस धकेल चुके हैं, जब उन्होंने सरहद पार की थी. भारतीय सैन्यबलों ने उन्हें आधी रात के वक्त वापस जाने को मजबूर किया था.

ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें सरहद पार लौटाया गया है. रोहिंग्या लोगों को वापस धकेला गया है और उन्हीं जगहों पर भेजा गया है, जहां लोगों के घर जलाए गए, औरतों का बलात्कार हुआ. हमारा रवैया मिला-जुला रहा है. भारत सरकार की प्रतिक्रिया कभी-कभी लड़ाकू रही है. यह शत्रुतापूर्ण रवैया है, लोकतांत्रिक नहीं.

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रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए भारत सरकार ने जिस हमलावर भाषा का इस्तेमाल किया है, उसका नतीजा क्या होता है?

सरकार की इस हमलावर भाषा का असल में यह नतीजा हुआ है कि भारत में लोग कानून अपने हाथों में लेने लगे हैं. मुझे याद है कि जम्मू-कश्मीर में मैंने ऐसे कई पोस्टर देखे थे जिसमें लिखा हुआ था- “इन लोगों को यहां से खदेड़ने के लिए तैयार हो जाएं.”

फिर, न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि दिल्ली में झुग्गी झोपड़ियों को जलाया गया. दिल्ली में मैं एक कैंप में गया था और साफ था कि हुड़दंगी लोग कानून अपने हाथ में ले रहे हैं और रोहिंग्या कैंप्स को जला रहे हैं. यह खतरनाक है. इस दौरान लोग मर सकते हैं.

अपनी दादागिरी के चलते हमें नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं. हमारे नेता लोग खुद दादागिरी दिखा रहे हैं. असली दिलेरी, असली ताकत फिजूल की, खोखली दादागिरी में नहीं होती, लेकिन भारतीय राजनेता इसके शौकीन हैं. दक्षिणपंथियों को यही समझ में आता है क्योंकि वे लोग स्थानीय स्तर पर दादागिरी करते हैं.

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इस मुद्दे पर न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

जहां तक सुप्रीम कोर्ट का सवाल है, जस्टिस दीपक मिश्रा के समय से वह संतुलित रही है. सुप्रीम कोर्ट इसका व्यापक नतीजा समझती है- राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर. अदालत को जिस बात ने डराया है, और जो सही भी है, वह यह कि जब आप अपना न्यायिक ठप्पा लगा देंगे और लोगों को म्यांमार वापस भेज देंगे, और अगर वहां उन्हें मार दिया जाता है, या बलात्कार होते हैं तो वह न्यायपालिका की अंतरात्मा को बुरी तरह कचोटेगा. इसलिए भारत की सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दूरंदेशी दिखाई. हां, सरकारी वकीलों के आक्रामक रुख की वजह से कुछ अनिश्चय और घबराहट है लेकिन कुल मिलाकर वह संतुलित ही है.

लेकिन देश के कई हिस्सों में जजों ने देश निकाले का फैसला दिया है. और कोई नहीं जानता कि जो लोग लौटाए गए, उन लोगों का क्या हुआ. जजों की समझ एकदम सरल और बुनियादी है- “अगर आप विदेशी हैं तो आपको यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है.”

सुप्रीम कोर्ट का एक पुराना फैसला है, 'एक विदेशी को यहीं रहने पर जोर देने का कोई अधिकार नहीं है' लेकिन यह फैसला आर्थिक प्रवासियों के संदर्भ में दिया गया था. एक आर्थिक प्रवासी भारत आया और उसने कहा, “मेरा वीजा बढ़ाओ.” इस पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, “एक विदेशी हमें वीजा बढ़ाने के लिए नहीं कह सकता.”

लेकिन यह फैसला उन शरणार्थियों के संदर्भ में नहीं दिया गया था जो उत्पीड़न से भाग रहे हैं. एक आर्थिक प्रवासी को कल वापस भेजा जा सकता है क्योंकि जब उसे वापस भेजा जाता है, तो उसके साथ बलात्कार नहीं किया जाता या उसकी हत्या नहीं की जाती.

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