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खबरों के जोखिम से बचने के लिए हमने भी बनाया प्रोजेक्ट ‘सशक्त’

बैंकों के NPA की समस्या से निपटने के लिए प्रोजेक्ट सशक्त का ऐलान किया है.

Published
भारत
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सरकार बैंकों के फंसे हुए कर्ज (NPA) की समस्या से निपटने के लिए प्रोजेक्ट सशक्त का ऐलान किया है. इसके तहत पांच सूत्रीय फॉर्मूला पेश किया गया है. सरकार इसे एनपीए से निपटने के लिए लांग ट्रम स्ट्रेटजी बता रही है. सरकार एनपीए की समस्या से निपटने के लिए बैड बैंक नहीं बनाने जा रही है लेकिन वह इसके लिए असेट मैनेजमेंट कंपनियों और स्टीयरिंग कमेटियों का गठन करेगी.

पीएनबी के चेयरमैन सुनील मेहता की अध्यक्षता में बैंकरों की कमेटी ने अल्टरनेटिव इनवेस्टमेंट फंड आधारित हल सुझाया था. इस फॉर्मूले के तहत पीएनबी के चेयरमैन सुनील मेहता की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी. कमेटी ने 500 करोड़ रुपये के ऊपर के कर्ज के लिए अल्टरनेटिव इन्वेस्टमेंट फंड बनाने की सिफारिश की थी.

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प्रोजेक्ट सशक्त के जरिये एनपीए की समस्या को दुरुस्त करने की सरकार की कोशिश से प्रेरणा लेकर ब्लूमबर्ग क्विंट की मेनका दोशी भी अपने न्यूजरूम के कामकाज को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाने से खुद को रोक नहीं सकीं.आइए उन्हीं से जानते हैं कि एनपीए पर सरकार की सशक्त योजना से प्रेरित होकर उन्होंने क्या कदम उठाए.

मेनका लिखती हैं-

न्यूजरूम में हम हर दिन यह तय करते हैं कि कौन सी स्टोरी की जाए और कौन सी नहीं. अक्सर ये स्टोरीज कंपनियों की ओर से अपने आंकड़े छिपाने, निवेशकों को अंधेरे में रखने या बिजनेस को नुकसान पहुंचाने वाली सरकार की नीतियों से जुड़ी होती हैं. लिहाजा न्यूज रूम में हमारा फैसला हमारी विश्वसनीयता की कसौटी होता है.

एक गलत फैसला हमारी साख और नौकरी दांव पर लगा सकता है. फेक न्यूज, फर्जी वीडियो और तस्वीरों के इस जमाने में सही खबर पर फैसला मुश्किल हो जाता है. कौन जानता है हमारी किस खबर पर कोई हम पर कई सौ करोड़ का दावा ठोक दे. एक कंपनी ने तो हम पर कई हजार करोड़ रुपये का दावा ठोक दिया.

इस तरह किया जोखिम से किनारा

इसलिए दोस्तों, अब हमने इस समस्या से निपने के ले रिटायर्ड जर्नलिस्टों की एक बॉडी बनाने का फैसला किया है. आप इसका नाम स्टोरी मैनेजमेंट कमेटी दे सकते हैं. हर स्टोरी अब पहले इनके पास जाएगी और वे इसे करने के रिस्क का आकलन करेंगे. फिर हम इन खबरों को फ्रीलांसर के संगठन को भेजेंगे. इसे ऑल इंडिया फ्रीलांसर्स का नाम दे सकते हैं. फिर ये रिस्क का आकलन करेंगे हमें भेजेंगे और हम फिर बिड जारी करेंगे. स्टोरीज पर हमारी सहमति बनेगी और फिर हम एक फ्लोर प्राइस पर उन्हें स्टोरी करने के लिए देंगे.

और इस तरह न्यूज रूम में संपादकों की ओर से लिए जाने वाले फैसलों का जोखिम खत्म हो जाएगात. जोखिम एडीटरों, एसएमसी और एआईएफ और न्यूज रूम के सदस्यों के बीच बंट जाएगा. संपादक निश्चित हो जाएंगे कि जोखिम का आकलन किसी बाहरी बॉडी न कर ली है. दूसरी बॉडी ने इस जोखिम की कीमत तय कर दी है. और फिर पत्रकारों ने स्टोरी करने का फैसला किया. अब उन्हें स्टोरी से पैदा जोखिम के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. और न ऐसी जोखिम भरी स्टोरी करने के लिए पत्रकारों को नौकरी जाने का डर सता सकता है.

क्यों? आपको हमारा यह आइडिया झकास नहीं लग रहा. लेकिन यह ओरिजिनल आइडिया नहीं है. भारत के बैंकर पहले ही इस आइडिया को ले उड़े हैं.

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