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शीला दीक्षित: कटु राजनीति की कोमल वाणी मौन हो गईं

शीला दीक्षित जिन्हें अपनी दिल्ली से प्यार था, ये शहर उन्हें कभी भूल न पाएगा

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लिबरल कपूर फैमिली में परवरिश और पारंपरिक दीक्षित परिवार में शादी ने मुझे इस बात के लिए तैयार किया कि मैं अलग-अलग तरह के लोगों से तालमेल बिठा सकूं. दोनों परिवारों ने मुझे सिखाया कि नीयत अच्छी हो तो मतभेद मिटाए जा सकते हैं, चाहे वो जैसे भी हों
शीला दीक्षित की ऑटोबायोग्राफी ‘सिटिजन दिल्ली-माई टाइम्स, माई लाइफ’ से
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जिंदगी की ऐसी ही नर्सरी में शीला दीक्षित का व्यक्तित्व तैयार हुआ. शीला दीक्षित जब दिल्ली की सीएम बनीं तो उस वक्त भी बीजेपी के बनाए उपराज्यपाल थे, लेकिन उनके जमाने में कोई झगड़ा नहीं हुआ. सबको मिल मिलाकर चलने की सीख शायद उन्हें अपनी पर्सनल लाइफ से ही मिली.

ऐसा शायद ही कोई मौका आया हो जब उन्होंने किसी से कुछ कर्कश कहा हो. नाराज भी होती थीं, सामने वाले को लगता नहीं था. यही वजह है कि कटु राजनीति में कोमल वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाली शीला दीक्षित आज जब नहीं हैं तो उनके विरोधी भी उन्हें मृदु भाषी, मिलनसार और गर्मजोशी से भरी महिला के तौर पर याद कर रहे हैं.

उनके निधन पर दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष ने कहा- ‘’दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी के आकस्मिक निधन से दुखी हूं. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे. मैम, दिल्ली आपको याद रखेगी. आप मेरे जीवन में मां के समान थीं. ‘’

जिस दिल्ली को इतना दिया, वहां अपनी सीट भी न बचा पाईं

1998 से 2013 तक 15 साल दिल्ली की सीएम रहीं. ये वो शीला थीं, जिन्होंने दिल्ली को मेट्रो दिया, नई चमचमाती एसी, लो फ्लोर बसें दीं. 87 फ्लाईओवर और अंडरपास दिए, कॉमनवेल्थ गेम्स कराए. जब आईं तो दिल्ली का ग्रीन कवर महज 8 फीसदी था, गईं तो 33 फीसदी. कुल मिलाकर 15 सालों में शीला दीक्षित ने दिल्ली का कायाकल्प कर दिया. 2013 में जब सरकार गिरी तो अपनी नई दिल्ली सीट भी हार गईं.

बहुत आहत थीं शीला दीक्षित

2013 की हार पर एक इंटरव्यू में शीला दीक्षित ने कहा था - 'हमें लगा कि दिल्ली की जनता वास्तविकता समझेगी. कोई कैसे भरोसा करेगा कि फ्री बिजली और फ्री पानी मिल सकता है. ये व्यवहारिक नहीं था, और न है. खैर जनता ने उनके वादों पर भरोसा किया. लेकिन मैं कॉमनवेल्थ घोटाले की जांच के लिए बनी शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट से आहत हुई. क्योंकि मैंने कभी जिंदगी में एक पैसा किसी से नहीं लिया.

वोटिंग के एक-दो हफ्ते पहले ही लग गया था कि हम हार रहे हैं. मैं और केजरीवाल चुनाव प्रचार के दौरान एक बाजार से गुजरे. मुझसे ज्यादा उनके पीछे लोग थे. तभी मुझे लग गया था कि मैं हार रही हूं. अपनी सीट भी हार रही हूं.
शीला दीक्षित के इंटरव्यू से

केंद्र की नाकामी का बोझ भी उठाया

दिल्ली में तीन बार सरकार बना चुकीं शीला दीक्षित को केंद्र की अलोकप्रिय सरकार का खामियाजा भी भुगतना पड़ा. केंद्र में भी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी. हार के बाद उन्होंने खुलकर इस  बात को स्वीकार भी किया था. वो कहती थीं - 'मैं जानती थी कि केंद्र की नाकामी दिल्ली सरकार पर भी भारी पड़ेगी,लेकिन मैं अपनी जिम्मेदारी नहीं टालना चाहती.' उन्हें इस बात की तकलीफ थी कि निर्भया कांड के बाद केंद्र ने सारी जिम्मेदारी राज्य सरकार पर डाल दी. जबकि कानून-व्यवस्था और  पुलिस न तब राज्य सरकार के अधीन थी, न अब. आज सुरक्षा व्यवस्था को लेकर उठे किसी मसले पर केंद्र पर ठीकरा फोड़ने की परंपरा है, तब शीला जिम्मेदारी लेती थीं.

मैं केंद्रीय गृहमंत्री से मिली. उनसे रिक्वेस्ट की कि आप ये बात साफ कीजिए कि पुलिस और कानून व्यवस्था दिल्ली सरकार के अधीन नहीं लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया. लेकिन मैं इसपर  हल्ला नहीं मचा सकती थी. मैं चुप रही. क्योंकि जिम्मेदारी टालना नहीं जानती थी.
शीला दीक्षित के इंटरव्यू से
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चुनौतियों से कभी नहीं डरीं

1997-1998 में जब शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष का काम संभालने के लिए कहा गया तो बहन पैम ने उनसे पूछा था- 'हे भगवान, दीदी ये तुम क्या करने जा रही हो?' ये वो जमाना था जब दिल्ली में बीजेपी का बोलबाला था. सुषमा स्वराज जैसी तेज तर्रार नेता यहां की सीएम थीं. तब शीला ने अपनी बहन को जवाब दिया था - 'मुझे कुछ काम सौंपा जा रहा है, और मुझे चैलेंज पसंद है.'

शीला दीक्षित ने न सिर्फ ये चैलंज स्वीकार किया बल्कि बीजेपी को दिल्ली से उखाड़ फेंका. उनके जाने के बाद भी बीजेपी यहां पैर नहीं जमा पाई है. वो गईं तो केजरीवाल आए. इसकी वजह ये हो सकती है कि उन्होंने दिल्ली को ऐसे संवारा जैसे ये उनका घर आंगन हो. और दरअसल सच भी यही था. आखिर नई दिल्ली की सड़कों पर उन्होंने न जाने कितने किलोमीटर साइकिल चलाई थी, पूरा बचपन बिताया था.

  • सुप्रीम कोर्ट  कह चुका था कि दिल्ली को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने के लिए सीएनजी लागू करनी होगी. शीला दीक्षित ने इसमें पर्सनल रुचि ली. केंद्र में बीजेपी की सरकार थी. शीला दीक्षित थीं तो अच्छे तालमेल से काम हुआ. वो खुद तब के पेट्रोलियम मंत्री राम नाइक से मिलीं. गैस गुजरात से लाया जाना था. बहुत बड़ा काम था. बड़ी चुनौती थी. शीला दीक्षित ने पर्सनली इस काम को देखा और पूरा किया. आज दिल्ली की हवा थोड़ी बहुत सांस लेने लायक बची है तो इसके पीछे शीला दीक्षित का भी योगदान है.
  • जिस भागीदारी योजना को लागू करने के लिए सिंगापुर से कॉमनवेल्थ और संयुक्त राष्ट्र तक ने दिल्ली की तारीफ की, उसके पीछे सबसे बड़ा हाथ शीला दीक्षित का ही था. हर इलाके के RWA से मिलना, घंटों उनकी बात सुनना. शीला खुद कहती थीं कि तब के सांसद और एमएलए इसमें रुचि नहीं लेते थे, लेकिन वो पूरे समय बैठकर लोगों की बातें सुनती थीं. उसमें जो हो सकता था, करती थीं.
  • ये वो जमाना था जब दिल्ली में घंटों बिजली जाती थी. शीला दीक्षित सरकार ने  बिजली वितरण का निजीकरण किया. जमकर विरोध हुआ. आज ज्यादातर दिल्ली पावर कट भूल चुकी है. और दाम भी देश में सबसे कम हैं. इसके पीछे भी शीला दीक्षित थीं.
आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि मिरांडा हाउस में पढ़ी और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली शीला दीक्षित शादी कर ससुराल गईं तो कमर तक घूंघट निकाले तीन तीन सबके लिए खाना पकाती रहीं. झुक-झुक कर सबके पैर छूती रहीं. जगह की कमी थी तो स्टोर रूम में बर्तनों के बीच सोईं. लेकिन आखिर में सबका दिल जीत लिया.

जीवन से भरपूर थीं शीला

एक किस्सा है कि अपने IAS पति विनोद दीक्षित के साथ उन्होंने एक ही फिल्म 'माई फेयर लेडी' के तीन लगातार शो एक ही दिन देखे. शो के बाद दोनों बाहर आते, नाश्ता-पानी करते और फिर शो के लिए चले जाते. एक बार पति की ट्रेन छूट गई तो 80 किलोमीटर तक कार भगा दी ताकि पति ट्रेन पकड़ पाएं.

शादी से पहले दोनों साथ कॉलेज में पढ़ते थे. प्यार हुआ, यहीं दिल्ली की एक बस में इजहार हुआ और फिर घरवालों को मनाने के लिए दो साल इंतजार हुआ, फिर शादी हुई. 49 साल की उम्र में पति विनोद का देहांत हो गया.

मेरा एक हिस्सा विनोद के साथ चला गया. मैं आज भी इससे उबर नहीं पाई हूं. हम एक दूसरे के कायल थे. कभी झगड़ा या किसी विषय पर हमारे विचार भी अलग नहीं हुए.  
शीला का इंटरव्यू

कुल मिलाकर पॉलिटिक्स की तरह उनकी भरी-पूरी पर्सनल लाइफ भी थी. कभी किसी चीज का गिला नहीं रहा. न खुद, न अपनों से, न बेगानों से और न उनसे जिन्होंने प्यार के बदले प्यार नहीं दिया.

''मेरे ससुर उमाशंकर दीक्षित कांग्रेस के बड़े नेता थे. मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू , इंदिरा और राजीव के करीब थे. लेकिन मेरा मानना है उन्हें वो नहीं मिला, जिसके वो भागी थे, लेकिन उन्होंने कभी इसकी शिकायत नहीं की. मैंने उनकी तरह विनम्र व्यक्ति नहीं देखा. मेरे मेंटर वही थे. वही मुझे राजनीति में लाए. उनकी तरह मुझे भी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं''

ऐसी थीं शीला दीक्षित. दिल से दिल्ली वाली.

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