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कश्मीर में विधानसभा,लोकसभा चुनाव साथ न कराना बेतुका: डेविड देवदास 

जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव न कराने का कोई औचित्य नहीं

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जम्मू-कश्मीर में तनाव अपने चरम पर है, दूसरी ओर निर्वाचन आयोग ने फैसला किया है कि राज्य विधानसभा के चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ नहीं कराए जाएंगे. राज्य में राज्यपाल शासन की लोकप्रियता बढ़ रही है, कश्मीरी युवाओं में आक्रोश है और अलगाववादी नेताओं का असर कम होता जा रहा है. वरिष्ठ पत्रकार और लेखक डेविड देवदास ने द क्विंट के साथ इंटरव्यू में ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विस्तार से बातचीत की.

अपनी किताब में साल 1930 के बाद कश्मीर के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को एक सूत्र में पिरोने वाले देवदास ने बताया कि किस प्रकार पिछले कुछ सालों में राज्य की हालत बद से बदतर होती जा रही है. इसकी वजह है राज्य की उपेक्षा और राज्य के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से ठोस नीति का अभाव.

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‘जम्मू-कश्मीर में चुनाव न कराने का कोई औचित्य नहीं’

मौजूदा सुरक्षा हालात को देखते हुए निर्वाचन आयोग ने जम्मू और कश्मीर में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा का चुनाव न कराने का फैसला किया है. सियासी नेता और जानकार खुलकर इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं.

देवदास ने भी इस फैसले पर सवाल उठाए हैं. उनका मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराए जाते तो ये फायदेमंद ही रहता.

“एक समान सुरक्षा तंत्र का इस्तेमाल होता (लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए) और एक ही बार सुरक्षा तंत्र की तैनाती होती. चुनावों का जोखिम भी एक ही बार उठाना पड़ता.”
डेविड देवदास ने द क्विंट से कहा

‘कश्मीर में राज्यपाल शासन ज्यादा लोकप्रिय है’

पिछले साल जून में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार गिरने के बाद जम्मू और कश्मीर में सियासी संकट छा गया. नतीजा ये निकला कि राज्य में पहले राज्यपाल शासन और फिर दिसम्बर से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.

देवदास के मुताबिक, दिलचस्प बात ये है कि कश्मीर में पारम्परिक रूप से राज्यपाल शासन ही लोकप्रिय रहा है. कभी-कभी तो इसकी लोकप्रियता चुनी हुई सरकारों से भी ज्यादा रही है.

“विडंबना ये है कि साल 1986 के बाद से कश्मीर में हमेशा से राज्यपाल शासन लोकप्रिय रहा है. 1990 के दशक में, जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तब भी राज्यपाल शासन लोकप्रिय था. जब भी सत्ता में कोई चुनी हुई सरकार आती है तो लोग निराश होकर कहते हैं कि राज्यपाल शासन ही बेहतर था. इस बार भी राज्यपाल शासन लागू करने के फैसले पर कोई प्रदर्शन या विरोध नहीं हुआ. आमतौर पर लोगों ने इसे स्वीकार किया है.”
डेविड देवदास ने द क्विंट से कहा
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‘कश्मीरी युवाओं में है भारी आक्रोश’

देवदास पूरी कश्मीरी जनता को एक नजरिये से देखने को गलत बताते हैं. उनका कहना है कि मौजूदा हालात से सबसे ज्यादा तकलीफ युवाओं को है.

देवदास शिकायती लहजे में कहते हैं, “युवाओं में भी मैंने 1990 के आसपास और 2000 के आसपास जन्मे युवाओं की गतिविधियों में फर्क देखा है. खुलकर विरोध करने वालों में 17-18 साल आयु वर्ग के युवा हैं. जबकि 30 साल के आयु वर्ग के लोग खुलकर विरोध नहीं करते. अमूमन पत्थरबाजी करने वाले या बंदूक उठाने वाले नौजवान हैं या उनकी उम्र 20 साल के आसपास है. लेकिन नीति निर्धारक इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे. वो पूरी कश्मीरी अवाम को एक नजरिये से तौलते हैं.”

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‘अलगाववादी नेताओं का असर कम हुआ है’

देवदास की किताब The Story of Kashmir में अन्य बातों के अलावा 2002 में कश्मीरी अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन और 1990 में मीर वाइज मौलवी फारुक की हत्याओं का भी जिक्र है.

आज की तारीख में राज्य की राजनीति में दोनों नेताओं के परिवारों की अच्छी पैठ है. अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन हंदवाड़ा से विधायक हैं और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं, जबकि मीर वाइज मौलवी फारुक के बेटे मीर वाइज उमर फारुक ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं.

देवदास बताते हैं कि मौजूदा हालात में आम लोगों के बीच न तो अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी और न ही मीर वाइज उमर फारुक की पूछ है.

“आज के युवा इन नेताओं को कुछ नहीं समझते और उनका सम्मान नहीं करते हैं. ये स्थिति काफी समस्याजनक है. खुलकर विरोध करने वाली नई पीढ़ी में आक्रोश है और वो नेतृत्वहीन है. उसे ये नहीं मालूम कि भविष्य में क्या करना है और उसे किसी नेतृत्व पर भरोसा भी नहीं है.”
डेविड देवदास ने द क्विंट से कहा

(लेखक डेविड देवदास वरिष्ठ पत्रकार और ‘द स्टोरी ऑफ कश्मीर’ और ‘द जेनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’ के लेखक हैं. उनसे @david_devadas. पर संपर्क किया जा सकता है. इस लेख में उनके अपने विचार हैं. द क्विंट न उनके इन विचारों का समर्थन करता है और न इनके लिए जिम्मेदार है.)

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