रविवार की सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबारों के ओपिनियन आर्टिकल हों तो आपके विचारों को पंख लग जाते हैं. इस रविवार क्विंट हिंदी आपके लिए लेकर आया है देश के प्रतिष्ठित अखबारों के चुनिंदा ओपिनियन आर्टिकल. पढ़िए और अपनी बौद्धिक भूख को बेहतरीन खुराक दीजिए.
मजबूत रेल देगा मेक इन इंडिया को रफ्तार
संडे टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम स्वामीनोमिक्स में इस बार स्वामीनाथन एस अंकलेश्वरैया ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया है कि अब अलग से रेल बजट पेश नहीं किया जाएगा.
स्वामीनाथन कहते हैं कि इससे रेलवे लोकलुभावन फैसले और राजनीतिक संरक्षण का औजार बनने की तुलना में बेहतरीन फाइनेंशियल और टेक्निकल मैनेजमेंट वाले एक अनिवार्य इन्फ्रास्ट्रक्चर में उभर सकेगा. सालों से मैं रेलवे बजट खत्म करने की मांग कर रहा था. मेरे लिए अचरज की बात ये है कि सरकार ने अब इसे मान लिया है. रेल बजट एक औपनिवेशिक परंपरा है. उस दौरान रेलवे सबसे बड़ा कॉमर्शियल एंटरप्राइज था. लिहाजा इसका एक अलग बजट होना ही था. लेकिन अब तो कई सार्वजनिक कंपनियों का राजस्व इससे ज्यादा का है. इसलिए इसके लिए अलग से बजट का कोई मतलब नहीं है. अगर मोदी चाहते हैं कि दुनिया मेक इन इंडिया के लिए भारत आए तो रेलवे को राजनीतिक औजार नहीं बल्कि टेक्नोक्रेटिक बनाना होगा.
समाज को फिर झकझोरेंगे लेखक मुरूगन
पूर्व राजनयिक और जनता दल यूनाइटेड के नेता पवन के. वर्मा ने एशियन एज में लिखे अपने लेख में तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन को उन महान हस्तियों में शामिल कर लिया है, जिन्होंने 1947 के बाद के लोकतांत्रिक भारत को मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाई है.
हिंदुत्व के अराजक तत्वों की ओर से अपने एक उपन्यास का विरोध करने और जान से मारने की धमकी दिए जाने के बाद मुरूगन ने बड़े ही निराशा के अंदाज में कहा था कि लेखक मुरूगन मर चुका है और अब केवल शिक्षक मुरूगन जिंदा है. लेकिन अदालत ने 5 जुलाई 2016 को अपने एक फैसले से लेखक मुरूगन को जिंदा कर दिया. पवन ने अदालत की टिप्पणियों का जिक्र करते हुए कहा है- हिंदुत्व के अराजक तत्वों को लगता है कि वे सर्वशक्तिमान हैं. लेकिन वे भारतीय लोकतंत्र की खासकर न्यायपालिका की ताकत को कम करके नहीं आंक सकते. उन्होंने लेखक के कथित विवादास्पद उपन्यास के विषय वस्तु का जिक्र करते हुए कहा है कि लेखक मुरूगन फिर जिंदा हो चुके हैं और समाज को झकझोरने और चौंकाने के लिए तैयार हैं. चाहे हिंदुत्व की ये ताकतें कुछ भी क्यों न समझें.
हाइपर नेशनलिज्म से खफा दलित आंदोलनकारी
पी. चिदंबरम ने इस बार इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले अपने कॉलम अक्रॉस द आइल में उना की घटना के बाद देश भर में उभरे दलितों के आक्रोश और आंदोलन का विश्लेषण किया है.
दलितों के खिलाफ हमारे मौजूदा समाज में जो माहौल है, उसे बताने के लिए चिदंबरम ने रोहित वेमुला के उस सुसाइड नोट का जिक्र किया है, जिसमें उन्होंने लिखा था- मेरा जन्म लेना एक भयानक दुर्घटना थी. दलितों के मौजूदा आंदोलन का जिक्र करते हुए वह कहते हैं- दलित मौजूदा हाइपर नेशनलिज्म के इस खोखलेपन पर नाराज हैं , जहां भारत की हर चीज को महान कहा जा रहा है और जहां इसकी हर आलोचना राष्ट्रवाद का विरोधी मानी जा रही है. वे इस बात को लेकर भी खफा हैं कि उनके आंदोलन को इक्का-दुक्का होने वाली घटना और राजनीतिक साजिश बताया जा रहा है. चिदंबरम कहते हैं कि अति हिंदू राष्ट्रवादी हिंदू राष्ट्रवाद को संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य से श्रेष्ठ विचार मानते हैं. उनका मानना है कि हिंदू राष्ट्रवाद के इस विचार के जरिये दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ओर से चुकाई जाने वाली कीमत की बात छिपाई जा सकती है. चिदंबरम का यह कॉलम बेहद संतुलित अंदाज में दलितों के आंदोलन से पैदा सवालों का विश्लेषण करता है.... जरूर पढ़ें.
अल्ताफ हुसैन के दिन लद गए
पाकिस्तानी अखबार डॉन के पूर्व संपादक अब्बास नासिर ने इसी अखबार में शनिवार को अपने लेख में मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट के नेता अल्ताफ हुसैन के पाकिस्तान विरोधी गतिविधियों का जिक्र करते हुए कहा है कि क्या यह हुसैन का खेल खत्म होने के संकेत हैं.
नासिर लिखते हैं कि अल्ताफ हुसैन ने अपने समर्थकों को मीडिया दफ्तरों पर हमले को उकसा कर और देश के खिलाफ भड़का कर रेडलाइन क्रॉस कर दी है. भारत, ईरान और कुछ अन्य देशों के सहयोग से उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ जंग लड़ने की अपील कर अपनी सुसाइड बेल्ट का बटन दबा लिया है. कराची पर अल्ताफ हुसैन के जबरदस्त असर का जिक्र करते हुए नासिर कहते हैं कि अफसोस की बात है कि हुसैन का असर इस शहर पर बरकरार है. इसकी सबसे बड़ी वजह इस शहर का जातीय आधार पर बंटा होना है. लेकिन अब तय है कि देश के खिलाफ खुलेआम विद्रोह की अपील के बाद अल्ताफ की ताकत पहले जैसी नहीं रहेगी. उस कराची में उनका असर पहले जैसा नहीं होगा, जब वहां मरना-जीना उन्हीं के इशारे पर होता था. क्या अल्ताफ हुसैन का खेल अब खत्म हो चुका है. अल्ताफ हुसैन के मौजूदा विवादित बयान और हंगामे की पृष्ठभूमि में यह नासिर का बेहतरीन विश्लेषण है, जिसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए.
बढ़ती कामकाजी आबादी और नदारद रोजगार
एमनेस्टी इंडिया के हेड और लेखक आकार पटेल ने इस बार एशियन एज में लिखे अपने लेख में अक्सर भारतीय युवा आबादी की ताकत जिसे डेमोग्राफी डिविडेंड भी कहा जाता है पर सवाल उठाए हैं.
पटेल लिखते हैं कि चार साल में भारत में कामकाजी आबादी बढ़ कर 87 करोड़ हो जाएगी. सामान्य तर्क यह है कि जब इतनी बड़ी आबादी काम करेगी तो आर्थिक विकास होना तय है. भारत जल्द ही इस स्थिति को प्राप्त कर लेगा. लेकिन वह सवाल उठाते हैं कि क्या लगातार बढ़ती कामकाजी आबादी के लिए हम रोजगार पैदा कर पा रहे हैं. अपने इस सवाल को पुख्ता करने के लिए वह इंडिया स्पेंड की एक महीने एक रिपोर्ट का जिक्र करते हैं. इसमें कहा गया है कि संगठित क्षेत्र में हम काफी कम रोजगार दे पा रहे हैं. जो रोजगार पैदा हो रहे हैं, वे ज्यादातर असंगठित क्षेत्रों में हैं, जहां न तो औपचारिक मासिक वेतन और न ही सामाजिक सुरक्षा है. कृषि क्षेत्र में मजदूरी दशक के न्यूनतम पर पहुंच गई है. नई कंपनियों का गठन नहीं हो रहा है वित्तीय कंपनियां और बैंक दबाव में हैं. कुल मिलाकर हालात खराब हैं. यहां चीन का उदाहरण दिया गया है, जहां 1991 से 2013 के बीच काफी रोजगार सृजन हुआ, जबकि कामकाजी आबादी इसकी तुलना में कम बढ़ी. पटेल कहते हैं कि 25 साल से जो चला आ रहा है, उससे हट कर हम कुछ नया नहीं करेंगे तो रोजगार में बढ़ोतरी नहीं होगी. मैन्यूफैक्चरिंग में निवेश न होने और इन्फ्रास्ट्रक्चर में कमी की वजह से पर्याप्त नौकरियां नहीं पैदा हो पा रही हैं. भरपूर आंकड़ों और रिपोर्टों का हवाला देकर लिखा गया पटेल का यह लेख रोजगार के मोर्चे पर मौजूदा हालात का बारीक विश्लेषण करता है.
आईएएस को विदाई देने का वक्त
अमर उजाला में मशहूर इतिहासकार और पब्लिक इंटेलक्चुअल रामचंद्र गुहा ने आईएएस के प्रभुत्व से छुटकारा पाने की अपील की है.
गुहा लिखते हैं- सामान्यकृत सिविल सेवा के प्रभुत्व का तब शायद कुछ मतलब था, जब भारत एक उपनिवेश था या फिर स्वतंत्रता मिलने के शुरुआती वर्षों में जब देश को एकजुट होना था. लेकिन जब सरकार को प्रभावी तरीके से टेक्नोलॉजी के लिहाज से जटिल और तेजी से बदलती दुनिया की चुनौतियों का सामना करना है, तब सिविल सर्विस का कोई मतलब नहीं है. यदि हमारे देश में शासन की गुणवत्ता और प्रभाव को बेहतर बनाना है तो हमें आईएएस के प्रभुत्व से छुटकारा पा लेना चाहिए. किसी समाज में ऐसा नहीं होता कि कोई व्यक्ति, जिसने 35 साल पहले किसी परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया हो उसे खुद ही ऊंची हैसियत मिल जाए, उसका रूतबा बने और उसे इस आधार पर सरकार में महत्वपूर्ण ओहदा मिल जाए.
राम्या कहीं नहीं भागेगी
टाइम्स ऑफ इंडिया में मशहूर स्तंभकार शोभा डे ने दक्षिण की अभिनेत्री और कांग्रेस नेता राम्या का जबरदस्त बचाव किया है.
डे ने इस सप्ताह रिलीज हुई फिल्म हैप्पी भाग जाएगी की तर्ज पर लिखा है – राम्या भाग जाएगी का सवाल ही पैदा नहीं होता. ‘पाकिस्तान नर्क नहीं है’ वाले उनके बयान पर हंगामा खड़ा करने और उन्हें पाकिस्तान जाने की मांग करने वालों को राम्या ने कड़ा जवाब दिया है. लेकिन क्या असहमति के सवाल खड़े करने वाला हर भारतीय इतना ही मजबूत है. राम्या के पास राजनीतिक संरक्षण है इसलिए उन्होंने इतनी मजबूती से अपनी बात कही. लेकिन आम भारतीय सार्वजनिक विमर्श पर हावी कट्टरता का निशाना बन रहा है. यह अच्छी बात है कि हमारी फिल्में इस तरह की कट्टरता से दूर हैं. क्या स्वर्ग है और क्या नर्क, यह तब तक नहीं जाना जा सकता, जब तक हम वहां से गुजरे न हों. सुन रहे हैं मिस्टर पर्रिकर. शोभा डे ने अपने इस कॉलम में खास अंदाज में कट्टरपंथियों की खिंचाई की है.
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