करण थापर ने इस हफ्ते पीएम मोदी के न्यूज18 को दिए इंटरव्यू पर ओपिनियन लिखा है
हिंदुस्तान टाइम्स में करण थापर ने इस बार पीएम नरेंद्र मोदी के टीवी इंटरव्यू का हवाला देकर मीडिया के प्रति सरकार के बेरुखी की याद दिलाई है. पीएम ने नेटवर्क18 को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि सरकार के कामकाज का कठोर से कठोर एनालिसिस होना चाहिए, क्रिटिसिज्म होना चाहिए. वरना, लोकतंत्र चल नहीं सकता. इस पर करण सवाल करते हैं – लेकिन असलियत क्या है. असलियत यह है कि सरकार के लोगों ने मीडिया का एक तरह से बायकॉट कर रखा है. सरकार के मंत्रियों और नेताओं ने इंटरव्यू देना बंद कर रखा है. वे बुलाने पर भी नहीं आते. एक तरह का अघोषित नियम है कि मीडिया को ज्यादा तवज्जो न मिले . मीडिया से सरकार के व्यवहार के बारे में आम पत्रकारों के बीच राय है कि ये सवाल पूछा जाना पसंद नहीं करती. इसे आलोचना पसंद नहीं है और जब आलोचना की जाती है तो वह इसे गंभीरता से शायद ही लेती है. करण लिखते हैं - मुझे खुशी हुई कि पीएम ने यह बात मानी कि मीडिया को सरकार के कामकाज का कड़ा विश्लेषण करना चाहिए और उसके कामकाज पर सवालिया निशाना लगाया जाना चाहिए. क्या चीजें बदलेंगी. अब जब पीएम ने खुद मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया है, तो मुझे उम्मीद है कि मेरी लिखी चिट्ठियों का जवाब आएगा. बहरहाल, अब वादा निभाने की जिम्मेदारी पीएम पर है.
आकार पटेल ने इस हफ्ते दहेज हत्याओं की खबरों को मीडिया द्वारा न छापे जाने पर टिप्पणी की है
एशियन ऐज के अपने कॉलम में आकार पटेल ने इस बार मीडिया की खबर ली है. देश में लगातार बढ़ती दहेज मौतों का हवाला देते हुए उन्होंने लिखा है, कुछ साल पहले तक ऐसी खबरें खूब छपती थीं. सरकार ने कड़े दहेज कानून बनाए. इसके बाद ऐसी खबरों का सिलसिला कम हो गया. इसका मतलब क्या दहेज हत्याएं बंद हो गईं. यह सच नहीं है. सच तो यह है कि इन मौतों की बढ़ती संख्या के बावजूद मीडिया इसे कवर नहीं करता. दरअसल, मीडिया खासकर नेशनल मीडिया और उसमें भी इंग्लिश मीडिया ऐसी घटनाओं को अब रिपोर्ट नहीं करता. उनकी दिलचस्पी अमीरों से वास्ता न रखने वाली ऐसी अपराध और ह्यूमन इंटरेस्ट स्टोरी में नहीं है.हकीकत यह है कि देश की एक बड़ी आबादी को जान बूझ कर मीडिया कवरेज से बाहर कर दिया गया है. अखबारों की तरह फिल्मों का भी यही हाल है. अब उनमें गरीब कैरेक्टर नहीं होते. हमारी फिल्में और हमारेअखबार जानबूझ कर बहुसंख्यक आबादी को अपने दायरे से बाहर रखते हैं. क्या उनकी स्टोरी सचमुच कवर लायक नहीं होती. ऐसा नहीं है. हमारे अखबार और फिल्में अब ये मानने लगी हैं कि भारत की शहरी, ऊंची जाति और अपर क्लास रीडरशिप या व्यूअरशिप दहेज हत्याओं और इस तरह के दूसरे अपराधों की परवाह नहीं करती.
रामचंद्र गुहा ने इस हफ्ते रिलायंस जियो के एड में पीएम मोदी की तस्वीर छपने पर सवाल उठाया है
अमर उजाला में इस बार रामचंद्र गुहा ने रिलायंस जियो के विज्ञापन में प्रधानमंत्री की तस्वीर का मुद्दा उठाया है. जनता का माल,अपना मुनाफा से लिखे अपने लेख में गुहा में कहा है - नरेंद्र मोदी की कुछ व्यवसायियों से कथित करीबी के बावजूद उनके सबसे कटु आलोचक भी मानते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर पीएम ईमानदार हैं. मगर एक ताजा विज्ञापन में उनकी तस्वीर का इस्तेमाल ठीक नहीं था. प्रधानमंत्री का रिलायंस जियो का प्रचार करना दुर्भाग्यपूर्ण है. इससे जो संदेश जाएगा, वह यह कि जो कम ईमानदार राजनेता हैं, वे सहजता से व्यावसायिक हितों और दबाव के लिए खुद को पेश कर सकते हैं. रिलायंस के विज्ञापन में मोदी के नाम और उनके फोटो का उपयोग सार्वजनिक शिष्टाचार का उल्लंघन है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में कभी कोई प्रधानमंत्री किसी निजी व्यावसायिक संस्थान के इस तरह करीब नहीं दिखा.
पी. चिदंबरम ने अपने कॉलम अक्रॉस द आइल में इस बार कॉलेजियम को लेकर सरकार और ज्यूडीशियरी के बीच के विवाद को विषय बनाया है
पी. चिदंबरम ने अपने कॉलम अक्रॉस द आइल में इस बार कॉलेजियम को लेकर सरकार और ज्यूडीशियरी के बीच के विवाद को विषय बनाया है. वह लिखते हैं - पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने संविधान एक्ट (99वां संशोधन), 2014 रद्द कर दिया था. इस संशोधन के जरिये न्यायपालिका में जजों कि नियुक्तियों के लिए नेशनल ज्यूडीशियल अप्वाइंटमेंट कमेटी बननी थी. लेकिन इस एक्ट को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्तियों पर एक मात्र अधिकार जजों के कॉलेजियम पर है. पांच में से चार जजों ने इसे सही माना. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर में संशोधन की मांग की. चिदंबरम लिखते हैं कि सरकार भले ही आदर्श एमओपी तलाश रही हो लेकिन उसे इस मामले में टकराव छोड़ना चाहिए और दांव-पेंच बंद करना चाहिए. क्यों सरकार और कॉलेजियम का यह टकराव ठीक नहीं है. यह टकराव जारी रहा तो ज्यूडीशियरी डिलीवरी सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा.
टाइम्स ऑफ इंडिया में इस बार चिदानंद राजघट्टा ने 9/11 के हमले की 15वीं बरसी के मौके पर एक अहम सवाल उठाया है.
वह इस हमले के ठीक बाद भारत से अमेरिका जा रहे एक भारतीय मुस्लिम अर्थशास्त्री, रिसर्चर अबुसालेह शरीफ से अपनी मुलाकात को याद करते हुए सवाल करते हैं कि क्या अमेरिका में मौजूद सहिष्णुता को डोनाल्ड ट्रंप बदल डालेंगे. वह लिखते हैं कि हर पांच साल में मैं शरीफ से फोन कर पूछता हूं क्या अमेरिका में उन जैसे लोगों के प्रति सहिष्णुता में कमी आई है. इस बार उन्होंने जब यह सवाल पूछा तो शरीफ का जवाब था कि इस बार उन्होंने अपने बेटे के साथ अमेरिका में ही बसने के लिए ग्रीन कार्ड आवेदन दिया है. राजघट्टा याद दिलाते हैं कि ट्विन टावर्स पर इस्लामिक आतंकियों के इतने बड़े हमले के बाद भी वहां के लोगों ने बराक हुसैन ओबामा को राष्ट्रपति चुना. यह महान लोकतंत्र की निशानी है. अमेरिकी मतदाताओं की यह उदारता और खुलापन काबिलेतारीफ है. कम उदार लोकतंत्र में यह संभव नहीं है. बड़ा सवाल यह है अमेरिकी समाज में जो चीज 9/11 नहीं बदल सका क्या उसे डोनाल्ड ट्रंप बदल देंगे.
इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने कश्मीर में चल रही मौजूदा रस्साकशी पर अपनी बेबाक टिप्पणी की है.
देसाई लिखतें हैं कि 50 साल पहले उनके अमेरिका पहुंचने के दो साल के भीतर वहां युवा आंदोलन उभर आए थे. युवाओं ने वियतनाम युद्ध पर सवाल किए थे. गृहयुद्ध शुरू हो गया था. अमेरिकी बुजुर्ग समाज और राजनीतिज्ञों ने युवाओं की नहीं सुनी. लिहाजा वियतनाम युद्ध में अमेरिका की हार हुई. हमारे यहां कश्मीर में यही हो रहा है. किसी को गोली लगती है. उसके बाद जुलूस निकलता है. फिर गोली चलती है. फिर कर्फ्यू लगता है. उसका उल्लंघन होता है और मौतें बढ़ती जाती हैं.अलगाववादी पाकिस्तान की तारीफ करते हैं. पार्लियामेंट में इस पर गुस्सा बढ़ता है. पूछा जाता है कि आखिर वे क्या चाहते हैं. वही पुराना दोहराव. यह इसलिए कि कोई भी कश्मीर समस्या को नहीं सुलझाना चाहता. क्या किसी ने यह सुझाया कि कश्मीर में बातचीत के लिए बुजुर्ग सांसदों की जगह बाकी भारत के युवाओं को भेजो ताकि वे कश्मीरी युवाओं से संवाद कर सकें. क्या कोई सर्वे हुआ, जिसमें कश्मीरी युवाओं की इच्छा पूछी गई. क्या कोई राउंड टेबल नहीं हो सकता, जिसमें यह पूछा जाए कि कश्मीर का युवा क्या चाहता है. ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखता. ऐसे सवालों पर सोचने की कोई जरूरत नहीं. बस नारे लगाते रहिये- कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और फिर गोली दाग दीजिये.
द टाइम्स में ऑफ इंडिया में शोभा डे ने अपने कॉलम पॉलिटकली इनकरेक्ट में भारतीय ग्रामीण समाज में अपराध, अत्याचार और दूसरी मौजूदा सामाजिक विकृतियों के बीच व्यक्तिगत जीवट और जद्दोजहद का जिक्र किया है.
शोभा लिखती हैं कि ग्रामीण इलाकों में ब्लैकमेलिंग, हिंसा, एसिड अटैक, दलितों के खिलाफ अत्याचार के बीच जगमगाते उदाहरण भी हैं. उन्होंने झांसी के भगवानदास अहीरवार का उदाहरण दिया है, जिन्होंने 1978 में अपने 165 रुपये के वेतन के बावजूद अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा देने का संकल्प लिया. आज उनके पांचों बच्चे पीएचडी हैं और उनके परिवार का नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में आ चुका है. शोभा ने महाराष्ट्र के उस परिवार का भी जिक्र किया है, जो जाति पंचायत के बहिष्कार के बावजूद अपना विरोध जताने महाराष्ट्र के सीएम के घर पहुंचगया और उनके साथ गणेश पूजा की. शोभा कहती हैं कि हमारे ग्रामीण समाज में ऐसे लोगों को न खाट की जरूरत है और न उन्हें खाप पंचायतों का डर है. ऐसी मिसालें उम्मीद जगाती हैं.
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