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संडे व्यू : मजबूत सरकार जरूरी या मजबूत देश? दिल्ली से जगी उम्मीद

“COVID-19 से महिलाएं परेशान : अण्डाणु से कोख तक की बोली”

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भारत
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मजबूत सरकार नहीं, मजबूत देश जरूरी

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि मजबूत सरकार होने से बेहतर होता है मजबूत राष्ट्र. वे लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार में महत्वाकांक्षा और अपनी क्षमताओं पर विश्वास की कोई कमी नहीं है. 2014 में दोहरे अंक में आर्थिक विकास का लक्ष्य और परिवर्तनकारी पहल इसके प्रमाण हैं. भारत को आर्थिक रूप से आगे ले जाना, आम लोगों तक सेवाओं की पहुंच और विश्वस्तर पर भारत को खड़ा करने का एजेंडा स्पष्ट रहा है. मगर, इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी रही है विफलताओं को स्वीकार नहीं करना.

उम्मीद से हटकर नतीजे आने पर सरकार चुप हो जाती है जैसा कि कोविड-19 की बढ़ती संख्या के संदर्भ में है या फिर जीडीपी के आंकड़ों को लेकर. खुद को राष्ट्रीयता से जोड़ना और आलोचकों को राष्ट्रविरोधी और गद्दार बताना इस सरकार की बड़ी खामी है. समस्या इसी वजह से बढ़ रही है.

निनान लिखते हैं कि मोदी सरकार ने अच्छी पहल की है तो बड़ी भूल भी. विशेषज्ञों की सलाह के खिलाफ नोटबंदी लागू करना, घातक जीएसटी, जिस वजह से राजस्व कम हो गया (जीडीपी के मुकाबले) और 24 मार्च को लागू किया गया लॉकडाउन ऐसी ही बड़ी भूलें हैं. अन्य गलतियों में सार्वजनिक बैंकों और एअर इंडिया की खामियां को दूर नहीं कर पाना, रेलवे में भारी निवेश के बावजूद नुकसान, मैन्युफैक्चरिंग का खराब ब्रदर्शन, रक्षा क्षेत्र की अनदेखी शामिल हैं. जैसे-जैसे समय बीतता गया है सरकार का प्रदर्शन खराब होता गया है और असफलताएं हावी होती चली गयी हैं.

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विश्व स्तर पर भारत के लिए चुनौती बढ़ी

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि भारत के लिए वैश्विक माहौल पहले से अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है. नयी सदी के पहले डेढ़ दशक में जो अनुकूल वैश्विक माहौल था, वह अनायास नहीं था बल्कि इसके पीछे मूल वजह रही 90 के दशक के आखिर से लगातार होता रहा प्रयास. अटल बिहारी वाजपेयी के दूरदर्शी नेतृत्व को मनमोहन सिंह ने आगे बढ़ाया और फिर नरेंद्र मोदी ने उस कोशिश को जारी रखा. 1998 में भारत को परमाणु परीक्षण के बाद अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध झेलना पड़ा था, मगर इसने दुनिया के साथ संवाद का भी हमें अवसर दिया.

स्ट्रोब टालबोट-जसवंत सिंह वार्ता, बिल क्लिंटन का भारत दौरा, वाजपेयी का भारत-अमेरिका को रणनीतिक साझेदार बताना ऐसी घटनाएं हैं जिसने दोनों देशों के बीच रिश्ते को दोबारा परिभाषित किया. मनमोहन सिंह के दौर में वैश्विक व्यापार संधि, परमाणु समझौता बड़ी उपलब्धियां रहीं. वहीं, नरेंद्र मोदी सरकार में मेडिसन स्क्वॉयर में मोदी की मौजूदगी से लेकर गणतंत्र दिवस में बराक ओबामा को मुख्य अतिथि बनाना और बाद में डोनाल्ड ट्रंप के साथ रिश्ते ने नयी ऊंचाई को छुआ.

चाणक्य लिखते हैं कि वाजपेयी काल में तिब्बत और चीन की ओर से सिक्किम को मान्यता देने के बाद भारत-चीन में कारोबारी संबंध मजबूत हुए. यूपीए काल में यह और मजबूत हुआ. नरेंद्र मोदी के समय भी शी जिनपिंग के साथ यह रिश्ता उसी रूप में आगे बढ़ता दिखा. मगर, कोरोना काल में बनी अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति नयी हैं.

बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के विस्तार से भारत के लिए चीन की ओर से स्पर्धी माहौल तीखा होने लगा है. चीन और पाकिस्तान दोनों ही सीमाओं पर अब खतरा वास्तविक है. चीन के साथ स्पर्धा अब खुलकर है और पड़ोसी देशों में भी यह स्पर्धा देखने को मिलेगी. बांग्लादेश और श्रीलंका से संबंध बेहतर हुए हैं, भूटान मजबूती से साथ खड़ा है. मगर, पाकिस्तान अपने भारत विरोधी नीतियों की वजह से दुश्मन बना हुआ है.

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सिंधिया की घटना से राजस्थान में कांग्रेस ने ली सीख

स्वपन दासगुप्ता ने द टेलीग्राफ में लिखा है कि अगर कोविड-19 के शुरुआती दौर में मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार को गिराने में बीजेपी सफल नहीं होती, तो राजस्थान में गहलौत सरकार अपने अंदरुनी कलह की वजह से खुद गिर गयी होती. भोपाल की गलती से सीख लेते हुए कांग्रेस ने राजस्थान में इम्फाल और पणजी वाली गलती नहीं दोहराई. कांग्रेस आलाकमान ने पार्टी के दिग्गज नेताओं को आपात प्रबंधन में लगा दिया, जिन्होंने सभी राजनीतिक और प्रादेशिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए गहलौत सरकार को बचा लिया. पूरी उम्मीद है कि फ्लोर टेस्ट होने पर गहलौत सरकार बच जाएगी.

स्वपनदास गुप्ता लिखते हैं कि सचिन पायलट ने 6 साल तक राजस्थान में पार्टी के लिए खूब मेहनत की लेकिन वक्त आने पर वे अशोक गहलौत की पीढ़ियों की मेहनत के सामने खुद को खड़ा नहीं रख पाए.

कांग्रेस अब ऐसे लोगों पर निर्भर पार्टी हो गयी है जिनके पास व्यक्तिगत नेटवर्क है और जो कुनबों के नेता हैं. एक तरह से कांग्रेस का ढांचा संघीय हो गया है जिसमें क्षेत्रीय क्षत्रप प्रभावशाली हो गये हैं. वहीं, आलाकमान की पकड़ कमजोर हो गयी है. दासगुप्ता याद दिलाते हैं कि राजीव गांधी ने भी अपने जमाने में कांग्रेस को बदलने की कोशिश की थी, लेकिन उनके आसपास के लोगों की राजनीतिक जमीन ही इतनी मजबूत नहीं थी कि वे ओल्ड गार्ड को दरकिनार कर पाते. वे लिखते हैं कि प्रदेशों में कांग्रेस का लगातार बेहतर करते जाना और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का कमजोर होना यह बताता है कि आलाकमान में वोट जोड़ने की क्षमता खत्म हो गयी है.

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राष्ट्रपति प्रणाली में ही लोकतंत्र जिंदा रह सकेगा

शशि थरूर ने कर्नाटक, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सत्ता पलट समेत विधायकों की खरीद-फरोख्त की घटनाओं का जिक्र करते हुए द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अमीर सत्ताधारी पार्टी का अवसरवाद बढ़ा है. अंग्रेजों से जो संसदीय व्यवस्था हमने हासिल की थी, उसमें बदलाव का वक्त आ गया है. हमारी संसदीय व्यवस्था ने ऐसे जनप्रतिनिधि तैयार किए हैं जो नीतियों को लेकर कम और सत्ता बचाने की सियासत को लेकर अधिक बेचैन रहते हैं. मतदाता अब उम्मीदवार चुनने को प्राथमिकता नहीं देते, वह पार्टी को प्राथमिकता देते हैं. सरकार की कोशिश शासन देने के बजाए शासन करने की हो गयी है.

थरूर लिखते हैं कि विविधता लोकतंत्र की ताकत रही थी लेकिन अब यही बड़ी कमजोरी के रूप में दिख रही है. जनप्रतिनिधि ये जानते हैं कि कैसे इस व्यवस्था में रहना है. उनकी इच्छा व्यवस्था में बदलाव की दिखती ही नहीं है. जहां मतदाता पार्टी से अलग अपने उम्मीदवार को उनके काम, पहचान, जाति जैसे आधारों पर चुना करते थे, वहीं अब वे जानते हैं कि ये उम्मीदवार उस समूह का हिस्सा होंगे जिनकी सरकार होगी.

इसलिए पार्टी का महत्व बढ़ गया है. अब वे जानते हैं कि वे जिसे भी एमपी या एमएलए चुनेंगे वो या तो नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार बनाएंगे या फिर प्रांतों में ममता बनर्जी, जगन मोहन रेड्डी की. थरूर का मानना है कि दलबदल विरोधी कानून ने समस्या घटायी नहीं, बढ़ायी है. वे लिखते है कि कानून बनाने में विधायिका की भूमिका लगातार घटी है. ह्विप का पालन बिल पास कराने के लिए होता है. बिल पर बहस करने की परंपरा खत्म हुई है. लेखक लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था में फर्क बताते हुए कहते हैं कि राष्ट्रपति प्रणाली ही लोकतंत्र को बचाने के लिए जरूरी है. क्षेत्रीय स्तर पर भी यही व्यवस्था संघीय ढांचे में लोकतंत्र को सुनिश्चित करेगी.

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COVID-19: दिल्ली से जगी उम्मीद

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि कोविड-19 को लेकर आखिरकार दिल्ली से ही खुशखबरी आती दिख रही है. 9 जून को मनीष सिसौदिया ने जुलाई के अंत तक साढ़े पांच लाख कोरोना संक्रमण का अनुमान सामने रखा था. दिल्ली के स्वास्थ्यमंत्री सत्येंद्र जैन ने कहा था कि आधे लोगों को संक्रमण का स्रोत पता नहीं है और दिल्ली सामुदायिक संक्रमण की ओर है. 23 जून को एक दिन में सबसे ज्यादा 3,947 मामले सामने आए थे. मगर, जुलाई के आखिरी हफ्ते में तस्वीर अलग है. बीते 14 दिन में 2000 से कम और बीते 8 दिन में 1500 से कम कोरोना संक्रमण के मामले सामने आए हैं. एक्टिव केस घटकर 13 हजार के स्तर पर आ चुके हैं.

थापर लिखते हैं कि अच्छी खबर यह भी है कि दिल्ली की 23 फीसदी आबादी को कोरोना हुआ और उनमें एंटी बॉडी बन चुकी है. यह तथ्य सीरो के सर्वे में सामने आया है. चिकित्सा विशेषज्ञों के हवाले से वे बताते हैं कि दिल्ली में आंकड़ों का ग्राफ सपाट होने लगा है.

कोरोना के मामलों में गिरावट का दौर अगर चार हफ्ते जारी रहता है तो इस वायरस के और बढ़ने का खतरा कम हो जाएगा. लेखक ध्यान दिलाते हैं कि दिल्ली में प्रति 10 लाख पर 47,828 टेस्ट हुए हैं. इनमें से 93 प्रतिशत पॉजिटिव पाए गये हैं. यह आंकड़ा सीरो के उस सर्वे से मेल नहीं खाता है जिसमें कहा गया है कि 23 फीसदी आबादी को कोरोना का संक्रमण हो चुका है. फिर भी मामले घटे हैं यह एक सच्चाई है.

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COVID-19 से महिलाएं परेशान : अण्डाणु से कोख तक की बोली

शोभा डे द एशियन एज में लिखती हैं कि कोविड के इस दौर में महिलाओं को दुनिया भर में सबसे ज्यादा परेशान होना पड़ा है. युवतियां अपने अण्डाणु बेचने को मजबूर हैं तो वह अपने कोख भी किराए पर रखने को तैयार दिख रही हैं. अण्डाणु की कीमत 50 हजार है जिससे कुछ महीने तक परिवार का भरण-पोषण हो सकता है. वहीं एक लाख रुपये में कोख किराए पर लिए जा रहे हैं जिसमें खाना-पीना, दवा और ठहरने की व्यवस्था सबकुछ शामिल है. बीते जमाने की तरह ये महिलाएं बिल्कुल गरीब नहीं, बल्कि मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि से हैं. शोभा डे लिखती हैं कि मुम्बई में एक रिसर्च स्कॉलर महिला सब्जी का ठेला लगाती दिखी. म्यूनिसिपल वालों के भगाए जाने पर वह अंग्रेजी में चिल्लाती दिखी. रायसा नाम की उस लड़की ने बताया कि उसके पास इसके अलावा विकल्प नहीं थे.

शोभा डे ने मिज्गा और फैय्याज शेख की भी कहानी भी उजागर की है. मिज्गा स्कूल चलाती है और उसके पति इत्र कंपनी में काम करते हैं.

बच्चों की फीस माफ करने के बाद उनके परिजनों के सामने भूख की समस्या थी. दोनों ने मिलकर सबको भोजन कराने का बीड़ा भी उठाया. इस कोशिश में घर बनाने के लिए रखे 4 लाख रुपये खत्म हो गये. मगर उनका उत्साह कम नहीं हुआ. वे इस काम को जारी रखे हुए हैं. शोभा डे लिखती हैं कि बाजार को उम्मीद है. त्योहार आने वाले हैं मगर आम लोग और खासकर महिलाओं की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं. रक्षा बंधन में रक्षा सूत्र खरीदने के भी लाले पड़े हुए हैं. लेखिका का कहना है कि एक ऐसे दौर में जब सबकुछ वर्चुअल होने लगा है तो शादी भी वर्चुअल हो सकती है. मगर, वो सवाल करती हैं कि युवा दंपती सुहागरात कैसे वर्चुअल मनाएं?

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