राफेल डील पर चिदम्बरम के 10 सवाल
इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदम्बरम ने राफेल डील पर 10 सवाल जड़कर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन से जवाब मांगा है. उन्होंने रक्षा मंत्री से जाना चाहा है कि क्यों नहीं इस मामले में जांच का आदेश दिया जाए. चिदम्बरम का समूचा आलेख ही 10 सवाल के रूप में है -
1. रक्षा मंत्री बताएं कि राफेल डील पर पहले वाला एमओयू क्यों रद्द हुआ और नये समझौते की जरूरत क्यों पड़ी?
2. एयरफोर्स ने फाइटर जेट की जो जरूरत बतायी थी उसकी अनदेखी करते हुए सरकार ने क्यों 126 एयरक्राफ्ट की जगह केवल 36 की खरीद का फैसला किया?
3. क्या ये सच है कि नये समझौते में एक एयरक्राफ्ट की कीमत 1670 करोड़ है? (जैसा कि दसॉ ने खुलासा किया है) और, अगर ये सच है तो दाम तिगुना होने की वजह क्या है?
4. अगर सरकार का दावा सही है कि नये समझौते से एयरक्राफ्ट 9 फीसदी सस्ता मिला है तो सरकार ने 126 की जगह 36 एयरक्राफ्ट की खरीद वाले दसॉ के प्रस्ताव को क्यों स्वीकार किया?
5. जब पहला एयरक्राफ्ट समझौते के चार साल बाद सितम्बर 2019 को डिलीवर होना है और आखिरी 2022 तक, तो इसे ‘आपात खरीद’ कैसे कहा जा सकता है?
6. एचएएल को तकनीक हस्तांतरण करने वाले समझौते को रद्द क्यों किया गया?
7. भारत सरकार मना कर रही है कि उसने किसी ऑफसेट पार्टनर के नाम का सुझाव दिया है.अगर ऐसा है तो उसने एचएएल का नाम क्यों नहीं सुझाया?
8. 27 अक्टूबर 2017 को फ्रांस के रक्षा मंत्री नई दिल्ली में मिले.उसी दिन वे नागपुर गये जहां मिहान में एक फैक्ट्री की आधारशिला रखी गयी जहां से ऑफसेट सप्लाई होनी है. क्या इस बारे में भी रक्षा मंत्री को कुछ भी पता नहीं?
9. दसॉ और ऑफसेट पार्टनर ने अक्टूबर 2016 को प्रेस बयान जारी कर बताया था कि यह साझा उपक्रम “ऑफसेट दायित्वों को पूरा करने में अहम भूमिका निभाएगा.“ फिर भी रक्षा मंत्री क्या सच बोल रही हैं कि उन्हें नहीं पता कि दसॉ ने ऑफसेट पार्टनर के रूप में प्राइवेट सेक्टर की कम्पनी को चुना है?
10. रक्षा मंत्री ने एचएएल के पूर्व सीएमडी टीएस राजू के बयान का हाल में खंडन किया है. क्या सरकार का इरादा एचएएल के निजीकरण करने या इसे बंद कर देने का है?
अच्छाई और धैर्य की परीक्षा भी है बेमेल संबंध
टाइम्स ऑफ इंडिया में पूजा बेदी ने संबंधों में असहजता पर खुलकर लिखा है. वे लिखती हैं कि करोड़पति, खाकपति, लम्बा, छोटा, हैंडसम, सामान्य, युवा, बूढ़ा, कलाकार, कारोबारी, ईर्ष्यालु, खुले दिन वाला, मधुर हर तरह के लोगों के साथ उनके अनुभव रहे हैं. अपने-अपने समय में इन सबकी भूमिका रही. इस दौरान इतने अनुभव हुए और इसी वजह से वह खुद को भी जान सकीं.
पूजा बेदी लिखती हैं कि संबंध में रहकर कई बार व्यक्ति इतना कृतज्ञ हो जाता हैं कि वह मनोबल गिराने वाली, अपमानजनक, बोर और असंतुष्ट करने वाली परिस्थिति को भी स्वीकार कर बैठता है. बेमेल संबंध आपकी अच्छाई और धैर्य की परीक्षा होती है. आपकी अपनी असुरक्षा, खामियां और आत्मसम्मान का दर्पण हो जाती हैं. कई लोगों के साथ बातचीत के हवाले से पूजा लिखती हैं कि संबंध टूटने पर लोग बिखरा हुआ और खारिज कर दिया गया महसूस करते हैं. मगर, असल बात ये है कि यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि अपने संबंध को आप देखते कैसे हैं. वह लिखती हैं कि संबंध का मतलब जीवन का उन्नयन होता है, आत्मसम्मान को गिराना नहीं होता.
सड़क हादसे लील लेते हैं डेढ़ लाख जानें
हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने तथ्यपरक आलेख के जरिए सुझाव दिया है कि सरकार को सड़क सुरक्षा की प्राथमिकता से जुड़ना चाहिए. वे चिन्ता जताते हैं कि सिर्फ एक साल में सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होकर डेढ़ लाख लोगों ने अपनी जान गंवा दी. सर्वाधिक चिन्ता की बात ये है कि 15 से 25 साल की उम्र वालों की तादाद 74 हजार है.
थापर लिखते हैं कि आप जितने युवा हैं सड़क दुर्घटना के लिहाज से ख़तरा उतना ज्यादा है. इंटरनेशनल रोड फेडरेशन के इंडियन चैप्टर के हवाले से वे बताते हैं कि देश के 12 राज्यों में ही 80 फीसदी दुर्घटनाएं होती हैं. सड़क पर सिर्फ गड्ढों की वजह से 2017 में हर दिन दस लोगों की जानें गईं. इसके मुकाबले माओवादी समेत आतंकी घटनाओं में 803 लोग मारे गये, जिनमें आतंकी, सुरक्षा बल और नागरिक सभी शामिल हैं.
करन थापर लिखते हैं कि पैदल चलने वालों की तो शामत है. 2014 में 12, 330 के मुकाबले 2017 में 20,457 राहगीर दुर्घटनाओं में मारे गए. यानी हर दिन हर दिन 56 लोगों की जानें गईं. अगर 134 दोपहिया चालक और 10 साइकल सवारों की हर दिन मौत को जोड़ दें तो यह आंकड़ा सड़क दुर्घटना में मरने वालों की संख्या के आधे से अधिक हो जाता है.
सर्जरी करने वालों के लिए होता है सर्जिकल स्ट्राइक
टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर ने स्वामीनॉमिक्स में लिखा सर्जिकल स्ट्राइक का ज़िक्र करते हुए रोचक बात लिखी है कि यह मरीज के बजाए सर्जन के लिए अधिक होता है. अपनी स्पाइनल आर्थराइटिस और इससे निजात के लिए गत वर्ष सर्जरी का वे ज़िक्र करते हैं. ऑपरेशन के बाद जब-जब वे डॉक्टर के पास गये, उन्होंने एक्स रे देखी और अपने काम को प्रशंसा भरी निगाहों से देखते हुए उसे बेहतरीन बताया. मगर, जब मरीज ने अपने दर्द की हालत में सुधार नहीं होने की बात कही, तो डॉक्टर ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं. एक्स-रे बता रहा है कि सबकुछ ठीक-ठाक जा रहा है, जल्द ही स्पाइनल का दर्द ठीक हो जाएगा.
लेखक 2016 में हुए सर्जिकल स्ट्राइक पर शेखी बघारती सरकार को भी इसी नज़रिए से देखते हैं. वे कहते हैं कि मरीज यानी कि कश्मीर के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ है. वह बिगड़ती चली गई है. मुठभेड़ बढ़े हैं, मुठभेड़ों में मौत बढ़ी है, घुसपैठ बढ़े हैं, सीज़ फायर का उल्लंघन बढ़ा है, जान देने वाले जवानों की संख्या बढ़ी है, इलाके में असंतोष बढ़ा है...और इन सबके बावजूद सर्जिकल स्ट्राइक करने वाले कह रहे हैं कि सर्जरी शानदार थी. सबकुछ ठीक हो जाएगा.
आज का अल्पमत असंतोष कल बहुमत की राय
सोली जे सोराबजी ने इंडियन एक्सप्रेस में ‘द नोबल डिसेन्टर्स’ यानी ‘आदर्श असंतोष’ नाम से विचारोत्तेजक लेख लिखा है. इसमें उन्होंने हाल के दो फैसले उठाए हैं- एक सबरीमाला केस और दूसरा भीमा कोरेगांव में गिरफ्तारी का केस. दोनों ही मामलों में बहुमत जज के ख़िलाफ़ असंतोष सामने आए हैं. लेखक ने विश्वविख्यात जजों जूरी मेम्बर बेन्जामिन कार्डोजो, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस चार्ल्स इवान्स हग्स और जस्टिस फ्रैंक फर्टर के अनुभवों को उद्धृत करते हुए बताया है कि बहुमत जजों से असहमति ही बाद में बहुमत की राय में बदल जाया करती हैं. यही लोकतंत्र की खूबसूरती है और स्वस्थ लोकतंत्र कभी भी असहमति को दबाने की कोशिश नहीं करता.
सबरीमाला केस में सुप्रीम कोर्ट के बहुमत जजों ने जिस तरह से मंदिर में खास उम्र सीमा के अंतर्गत आने वाली महिलाओं के प्रवेश पर रोक में छुआछूत को महसूस किया, उससे जस्टिस इन्दु मल्होत्रा बिल्कुल असहमत दिखीं. उन्होंने इसे अनिवार्य धार्मिक परम्परा में हस्तक्षेप के रूप में देखा। लेखक सोली सोराबजी ने सुप्रीम कोर्ट में नयी जज इन्दु मल्होत्रा के तर्क से असहमत होते हुए भी उनकी हिम्मत की तारीफ की कि उन्होंने सीनियर जजों के विरुद्ध असंतोष को प्रकट किया.
भीमा कोरगांव केस में सुप्रीम कोर्ट के बहुमत के फैसले पर जो असहमति जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने रखी है उसका भाव ये है कि यह फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता में न्यायिक हस्तक्षेप है. जस्टिस चंद्रचूड़ को लेखक ने उद्धृत किया है- “असंतोष जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक है. विरोध की आवाज़ को लोकप्रिय कारणों से दबाया नहीं जा सकता.”
सही मायने में कॉस्मोपॉलिटन सिटीज़ हैं मुंबई, लंदन और न्यूयॉर्क
हिन्दुस्तान टाइम्स में रामचंद्र गुहा ने दिलचस्प आर्टिकल लिखा है- द थ्री ट्रूली कॉस्मोपोलिटन सिटीज़ ऑफ द वर्ल्ड. दस साल पहले लिखी अपनी रचना को याद करते हुए उन्होंने नये सिरे से मुम्बई, लंदन और न्यूयॉर्क के बहुसांस्कृतिक चरित्र को सामने रखा है. भाषा, पहचान, व्यापार, वित्त, उद्यमिता और सांस्कृतिक जीवन के नज़रिए
से इन शहरों में जो साम्य है उसकी तुलना में वे किसी शहर को नहीं पाते. चाहे वह पेरिस, शंघाई, सिडनी और केपटाउन ही क्यों न हो. लेखक की पसंद और नापसंद का आधार संकीर्णता और आज़ादी दोनों है.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि मुम्बई को उन्होंने बचपन से जाना, 20-25 साल की उम्र में न्यूयॉर्क और 30-35 की उम्र में लंदन पहली बार गये. फिर तो ये रिश्ता लाइब्रेरी, रेस्तरां, सिनेमा, म्यूज़ियम हर माध्यम से जुड़ा रहा. अब 60 साल की उम्र में लेखक के जीवन में पहली बार ऐसा मौका आया जब वे अपनी पसंद के तीनों शहर बारी-बारी से पहुंचे हैं. मुम्बई से लंदन और एक हफ्ते बाद न्यूयॉर्क.
लेखक को जो रोमांच बचपन में यमुना ब्रिज पार करते समय लालकिला देखने पर होता था अब पालम से नयी दिल्ली आते हुए नहीं होता या फिर वह छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एयरपोर्ट से दक्षिण मुंबई जाते समय वैसा महसूस नहीं करते. इसी तरह हीथ्रो से सेंट्रल लंदन या जेएफके से मैनहट्टन ड्राइव करते समय उन्हें वैसा रोमांच नहीं मिलता.
लेखक खुश हैं कि एक ऐसे समय में जब अमेरिका ट्रंपमय हो गया है. न्यूयॉर्क निराश है, जब इंग्लैंड यूरोपीय यूनियन से अलग हो गया है, लंदन की राय यूरोपीय यूनियन के साथ रहने की है. ऐसे ढेरों कारण रामचंद्र गुहा ने गिनाए हैं कि क्यों यही तीन शहर सही मायने में दुनिया के स्तर पर बहुसांस्कृतिक हैं.
Metoo Metoo हो गया है देश
जनसत्ता में सुधीश पचौरी ने बाख़बर करते हुए लिखा है कि समूचा देश मैं भी मीटू तू भी मीटू हो गया है. दस साल पहले तनुश्री और नाना पाटेकर के बीच हुई घटना को मीडिया और खासकर अंग्रेजी मीडिया ने तिल का ताड़ बना दिया. अगर यूपी में विवेक मर्डर केस नहीं आया होता, तो यह और जोर-शोर से चल रहा होता. मीडिया पर तंज कसते हुए सुधीश पचौरी ने लिखा है कि राज्यों से ख़बरों के नाम पर चुनाव सर्वेक्षण ही राष्ट्रीय मीडिया पर रह गये हैं.
समीक्षक ऐसे हैं जो कहते हैं कि 5 राज्यों का सर्वे कीजिए तभी कुछ बताया जा सकता है. लेखक ने ओपिनियन पोल को ‘चुनाव का स्टॉक एक्सचेंज’ और ‘राष्ट्रीय एप्रूवल रेटिंग्स’ बताए जाने का भी ज़िक्र किया है. इसके साथ ही यह बताने की कोशिश की है कि मीडिया अपनी जिम्मेदारी से अलग इन दिनों किसी और काम में मशरूफ है.
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