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संडे व्यू: वंशजों से मुक्त हो पाएंगे नेहरू? नीतीश का कैसा दांव? 

वंदे मातरम,भारत-चीन और जेएनयू टैंक विवाद से लेकर देश दुनिया के अखबारों की बड़ी खबरें

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सीमित विकल्प में नीतीश का दांव

देश की राजनीति में पिछले तीन दिन बेहद हंगामेदार रहे. बिहार में राजद से अपना गठबंधन तोड़ एनडीए से गठजोड़ कर नीतीश कुमार ने राजनीति की वह चाल चली कि दुनिया देखती रह गई. द टेलीग्राफ में मुकुल केशवन ने लिखा – 2015 में उत्साही प्रगतिशीलों से यह पहचानने में कोई गलती नहीं हुई कि नीतीश कुमार सेक्यूलर हैं. वे ये समझ नहीं पाए कि नीतीश कुमार के सेक्यूलर कॉज अपने लिए हैं.

नरेंद्र मोदी के लिए आप क्या कहेंगे. वह हिंदुत्व से परिभाषित होते हैं और अपनी इस छवि से वह संतुष्ट हैं. इसके उलट नीतीश की छवि कई चैनलों से होकर परिभाषित होती है. दरअसल निजी तौर पर उनकी ईमानदार छवि ही उनका राजनीतिक कार्यक्रम है. जबरदस्त ढंग से इस भ्रष्ट देश में क्या यह एक सेक्यूलर प्रोजेक्ट नहीं है. आखिर नीतीश ने एनडीए का साथ छोड़ कर फिर इसका साथ क्यों पकड़ा. इसका जवाब 2015 के उस बयान में है, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी के अंदर केंद्र की कमान संभालने की क्षमता नहीं है.

नीतीश समझ रहे थे कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी कुछ सीटें जीत जाएगी और वह सत्ता संतुलन में अहम भूमिका निभा सकते हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अमित शाह के रथ को रोकने के लिए उन्हें राजद से गठजोड़ करना पड़ा. इस बार उन्होंने इसलिए पाला बदला कि उन्होंने देखा कि हिंदुत्व के नारे में वोटरों को आलोड़ित करने का जबरदस्त दम है. नीतीश के लिए इस विकल्प के साथ इसलिए भी जरूरी हो गया

कि उनकी पार्टी जैसी छोटी पार्टी के लिए लहर के खिलाफ जाकर सिद्धांत को पकड़े रखना मुश्किल था. क्या भविष्य में प्रगतिशील ताकतें फिर नीतीश का स्वागत करेंगी. शायद नहीं क्योंकि उन्हें उनके काले चश्मे के पीछे अमित शाह की आंखें ही दिखेंगी.

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वंदे मातरम् गाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस. अकंलसरैया ने मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले पर टिप्पणी की है, जिसमें स्कूलों, कॉलेजों, सरकार और निजी दफ्तरों में वंदेमातरम करने को कहा गया है. स्वामीनाथन कहते हैं कि यह अदालत के बढ़ते दायरे के सबसे खराब उदाहरणों में से एक है.

स्वामीनाथन लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को मद्रास हाई कोर्ट के इस फैसले को तुरंत रद्द कर देना चाहिए. अदालत के दायरे में यह है कि वह देखे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हो रही है या नहीं. इसमें गाने की स्वतंत्रता शामिल है न कि दबाव देकर किसी गाने की गवाने की स्वतंत्रता.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भले ही जन गण मन को सिनेमाघरों में बजाया जाना चाहिए लेकिन दर्शकों को इसे गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इसलिए वंदे मातरम जबरदस्ती गाने के लिए मजबूर करने का कोई तुक नहीं बनता. जब देश आजाद हुआ तो वंदे मातरम को राष्ट्रीय गान के तौर पर प्रस्तावित किया. लेकिन मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को इस पर आपत्ति थी. तो इसे राष्ट्र गान बनाने की अनुमति न देने वाले नेहरू, सरदार पटेल क्या देशभक्त नहीं थे.

क्या उनके मन में राष्ट्रीय हित नहीं था. तो फिर क्यों यह कोर्ट का काम होना चाहिए कि उन्हें ओवररूल करके संवैधानिक देशभक्ति कायम करने का आदेश दे. आजादी से जुड़े सभी गानों को लोकप्रिय बनाने की कोशिश होनी चाहिए लेकिन उन्हें अनिवार्य बनाना जरूरी नहीं. गांधी जी ऐसा बिल्कुल नहीं सोचते. उनका मानना था कि अहिंसा के सिद्धांत यही है कि किसी पर जबरदस्ती

कोई चीज मत लादो. अदालत को राष्ट्रपिता की इस नसीहत को ध्यान में रखना चाहिए.

क्या वंशजों से मुक्त हो सकते हैं नेहरू?

अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पहले भाषण में जवाहरलाल नेहरू का जिक्र न करने से कांग्रेस में भड़की नाराजगी के सवाल पर टिप्पणी की है. गुहा लिखते हैं- राष्ट्रपति (या उनका भाषण तैयार करने वाले) के भारत के पहले प्रधानमंत्री का जिक्र नहीं करने का मुख्य कारण यह है कि उन्हें इस सर्वोच्च पद पर भेजने वाला संघ परिवार सैद्धांतिक रूप में नेहरू का विरोध करता है.

वे पहले भी चाहते थे कि और अब भी चाहते हैं कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना हो. वहीं नेहरू जोर देते थे कि भारत चाहे कुछ भी हो जाए, हिंदू पाकिस्तान नहीं हो सकता. वे हमारे अतीत और प्राचीन धर्मग्रंथों का महिमामंडन करते हैं, नेहरू तर्क और विज्ञान के आधार पर आधुनिक समाज के निर्माण के पक्षधर थे. यहां तक कि संघ परिवार ने लोकतंत्र तक का विरोध किया था. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 1952 में लिखा था कि नेहरू को भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की नाकामी पर अफसोस होगा. वे ये मानते हैं कि पुरुष महिलाओं के संरक्षक हैं जबकि नेहरू मानते थे कि हर दृष्टि से महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं.

कोई नेहरू को पसंद करे या न करे या वास्तव में उनके प्रति दोनों तरह का भाव रखे, यह निर्विवाद है स्वतंत्र भारत पर जवाहरलाल नेहरू का चमत्कारिक प्रभाव

था. मैंने अपनी किताब पैट्रियट्स एंड पार्टिजैन्स में हमारे इतिहास में नेहरू के स्थान को लेकर आकलन किया है. यह अब व्यापक रूप में दिख रहा है कि परिवार का कोई सदस्य या पूरा परिवार मिलकर भी कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित नहीं कर सकता. और जब तक उनके वंशज सार्वजनिक जीवन में रहेंगे, जवाहरलाल नेहरू की प्रतिष्ठा को दोबारा स्थापित नहीं किया जा सकता.

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जंग में न बदले जुबानी जंग

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने भारत-चीन में जारी तनातनी पर टिप्पणी की है. वह लिखते हैं- भारत और चीन के बीच एक युद्ध हुआ था, 1962 में. युद्ध खत्म होने के बाद कायम हुई शांति बहुत नाजुक थी. चीन ने 1988 में राजीव गांधी को आमंत्रित किया. वह ऐतिहासिक यात्रा थी. देंग शियाओ पेंग के साथ देर तक उनके हाथ मिलाने के मशहूर वाकये को याद करें! इधर के वर्षों में, डेपसांग (2013) और डेमचोक व चूमर (2014) में सैनिक टकराव को टालने के प्रसंग उल्लेखनीय हैं. आपसी ‘समझ’ दिखाई दी. सैनिक टकराव टालने का लाभ दोनों देशों को हुआ, दोनों को आर्थिक विकास पर ध्यान देने का मौका मिला.

चीन ने इस बीच 138 करोड़ की अपनी आबादी के लगभग पांच फीसद हिस्से को गरीबी से बाहर निकाला है. यह दुनिया की फैक्टरी बन गया है और इसने अपने निर्यात के सहारे 3000 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा का भंडार बना लिया है. यह एटमी ताकत से लैस है; इसके पास दुनिया की सबसे विशाल स्थायी सेना है; इसके पास दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में गहरे में जाकर खतरा मोल लेने की क्षमता है, और यह माना जाता है कि चीन बहुत दूर की जगहों पर भी हमला कर सकने में सक्षम है. भारत ने भी उल्लेखनीय प्रगति की है, इस हो-हल्ले के बावजूद कि 2014 से पहलकुछ नहीं हुआ था (जिसमें वाजपेयी सरकार का 1998 से 2004 का कार्यकाल भी शामिल है).

पर भारत, चीन से कुछ पीछे है. लेकिन भारत परमाणु शक्ति संपन्न है. इसके पास दुनिया की दूसरी सबसे विशाल स्थायी सेना है, और किसी भी बाहरी शक्ति के हमले से यह अपनी रक्षा कर सकने में सक्षम है. इन कारणों से, भारत और चीन को युद्ध में उलझने से बचना ही चाहिए. हर बार, हां हर बार, कूटनीतिक तरीकों से काम लिया जाए और तलवारें म्यान में ही रहें. जुबानी जंग, जंग में न बदले.

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भ्रष्टाचार इधर भी उधर भी

वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह में दैनिक जनसत्ता में बिहार और पाकिस्तान में शरीफ की गद्दी जाने के मामले में टिप्पणी है. वह लिखती हैं- गुजरा सप्ताह अच्छा रहा भारतीय उप-महाद्वीप वासियों के लिए और बहुत बुरा रहा राजनेताओं के लिए. सीमा के उस पार एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री को गिराया भ्रष्टाचार के आरोपों ने और सीमा के इस पार पटना में एक ऐसे महगठबंधन को तोड़ा, जिस पर टिकी हुई थीं विपक्ष की सारी उम्मीदें.

नवाज शरीफ ने जब इस्तीफा दिया तो हमारे कुछ अति-राष्ट्रवादी टीवी पत्रकार ऐसे पेश आए जैसे ऐसी चीजें हमारे देश में नहीं हो सकती हैं. अपने गिरेबान में झांकने के बाद बात किए होते तो उनको फौरन दिख जाता कि भ्रष्टाचार के मामलों में सीमा के इस पार के राजनेताओं और सीमा के उस पार के राजनेताओं में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं है.

लालू पर चारा घोटाले का मुकदमा अभी तक चल रहा है, लेकिन इसके बावजूद जब छापा मारने पहुंचे आयकर विभाग वाले उन आलीशान कोठियों में, जो लालू यादव और उनके बच्चों की हैं, तो दुनिया हैरान रह गई. इतनी आलीशान थीं ये कोठियां कि अगर किसी अंबानी या अडानी की होतीं तो ताज्जुब न होता.

अफसोस की बात यह है कि अपने इस भारत महान में ऐसे कई राजनेता हैं, जो इससे भी आलीशान कोठियों के मालिक हैं और जिनकी संपत्ति उनकी आमदनी से मेल नहीं खाती. तेजस्वी यादव से जो सवाल आयकर विभाग वालों ने पूछे उनकी आमदनी के बारे में वही सवाल कई अन्य राजनेताओं के बच्चों से भी पूछे जा सकते हैं.

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सेना का टैंक नहीं किसान का हल चाहिए

पिछले दिनों जेएनयू फिर चर्चा में रहा. जेएनयू के वाइस चासंलर राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने के लिए वहां एक टैंक रखवाना चाहते हैं ताकि स्टूडेंट्स देश सेना की शहादत से सबक ले सकें. हिन्दुस्तान टाइम्स में नमिता भंडारे लिखती हैं कि आखिर वहां किसानों का हल क्यों नहीं रखा जा सकता.

नमिता लिखती हैं कि क्या देश की धरती पर हमारे लिए अनाज उगाने वाले किसान सैनिकों से कम बलिदान करते हैं. जो लोग हमारे सीवेज साफ करते हुए मर जाते हैं उनके लिए कौन सा प्रतीक स्थापित करना चाहिए.

नमिता कहती हैं कि यूनिवर्सिटी में भविष्य के नागरिक तैयार करने का वह तरीका नहीं है जो सरकार के मंत्री अपना रहे हैं. धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि चूंकि देश में लोकतंत्र है इसलिए सेना पर सवाल उठाने का लोग साहस कर रहे हैं. मैं समझती हूं कि प्रधान का मकसद यह नहीं होगा कि हम डेमोक्रेसी को छोड़ दें. लेकिन अगर कोई मंत्री इस तरह के बयान दे रहा है तो यह बेहद खतरनाक है. कोई देश सिर्फ टेरटरी नहीं हो सकता. यहां सूचनाओं और विचारों की रफ्तार तेज बनाए रखनी होगी. विश्वविद्यालयों को भविष्य के नागरिकों की पौधशाला होनी चाहिए न कि राष्ट्रवाद के इस तरह के हंगामे का अड्डा.

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