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संडे  व्यू: हिंदी के नाम पर फिर गोलबंदी, GST  से परेशानियां तय हैं

सिर्फ नसीहत से नहीं रुकेगी हिंसा, उम्मीद जगाते हैं हिंसा के खिलाफ होते प्रदर्शन

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हिंसा के खिलाफ उम्मीद जगाता प्रदर्शन

गो रक्षा के नाम पर लोगों की पीट-पीट कर हत्या के खिलाफ देश भर में लोगों का सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन करना आकार पटेल के लिए उम्मीद की किरण है. टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में पटेल लिखते हैं- पिछले सप्ताह वहशी भीड़ की हिंसा के खिलाफ ‘नॉट इन माई नेम’ से प्रदर्शन स्वतः स्फूर्त था. इसमें हजारों भारतीयों, जिनमें से ज्यादा युवा थे, ने सरकार से हिंसा रोकने की मांग की.

लेकिन सरकार से हिंसा रोकने की मांग का क्या कोई औचित्य था? मेरी राय में सरकार से इसे रोकने की मांग बिल्कुल वाजिब है. क्योंकि हिंसक भीड़ की ओर हत्याओं का सरकार की नीतियों से सीधा संबंध है. मैं इसके लिए सीधे सरकार को जिम्मेदार ठहराऊंगा. सामान्य समझ वाला को भी व्यक्ति यही करेगा. डाटा पत्रकारिता करने वाली वेबसाइट इंडिया स्पेंड के मुताबिक 2014 के बाद 90 फीसदी हिंसा गोरक्षकों की ओर से लोगों की पीट-पीट कर हत्या से जुड़े हैं.

पटेल लिखते हैं- मेरा मानना है कि किसी भी भारतीय की हत्या मवेशी के नाम पर नहीं होनी चाहिए. चाहे हिंसा के शिकार का मामला हो या फिर शहीद होने का. पीएम अगर हिंसा रोक नहीं सकते तो कम से कम इसे कम करने में मददगार तो हो सकते हैं. वह पार्टी से गोवध के मुद्दे को उछालने से रोक तो सकते हैं ताकि हिंसा का यह तांडव न हो. अगर वह इसकी अनदेखी करते हैं तो यही माना जाएगा कि यह हिंसा उन्हीं के नाम पर हो रही है.

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यह वह हिन्दुस्तान नहीं

हिंसक भीड़ की ओर की जा रही हत्याओं पर करन थापर बुरी तरह हिले हुए हैं. हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में वह लिखते हैं- मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा हूं. मैं बुरी तरह कन्फ्यूज हूं. अंदर से हिल गया हूं और बेहद परेशान हूं. ईमानदारी से कहूं तो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मेरे चारो ओर से उदास करने वाली खबरें आ रही हैं.

मुझे इससे पैदा आशंकाओं का अहसास है. लेकिन मुझे पता नहीं चल रहा है कि क्या किया जाए. बहरहाल, तमाम सीमाओं, विरोधाभास और गलतियों के बावजूद मेरा हमेशा मानना है कि हम (भारतीय) सहिष्णु लोग हैं. हमारे मतभेद हैं और हम झगड़ते हैं लेकिन जाति, भाषा और संस्कृति अलग-अलग होने के बावजूद हम पीढ़ियों से साथ रहते आए हैं.

जातीयता, धर्म, भाषा और भोजन हमें अलग पहचान देते हैं और हमारा भेद बताते हैं लेकिन हमने इन अलगावों का पाटने का तरीका निकाला है. स्कूल से हमे इस विविधता के बारे में पढ़ाया जाता रहा है और मैं कई बार दूसरे देशों में भारत की इस एकता के सूत्र बड़े गर्व से किया है.

लेकिन यह सूत्र लगता है कि कमजोर पड़ता जा रहा है. क्या कोई उपनगरीय ट्रेन में 15 साल के बच्चे की हत्या सिर्फ इसलिए कर सकता है कि वह देखने में मुस्लिम जैसा लग रहा है. क्या रमजान के पवित्र महीने में किसी पुलिस अफसर को पीट-पीट कर मारा जा सकता है. एक चीज साफ है, इस वक्त तो यह वह देश नहीं है, जो मेरी सोच में है. जिस भारत को मैं प्यार करता हूं और जो मेरी सोच में था वह अब धीरे-धीरे मिटता जा है.

जीएसटी : परेशानियां तय हैं

दैनिक जनसत्ता में पी. चिदंबरम ने जीएसटी पर होने वाली परेशानियों के प्रति आगाह किया है. वह लिखते हैं- बदलाव के आश्वासन से ज्यादा रोमांचकारी और कुछ नहीं हो सकता, खासकर जब बदलाव बेहतरी के लिए हो. जब पहली बार वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की घोषणा की गई थी, तो वादा बेहतरी का ही था.

यह अब भी बेहतरी के लिए बदलाव का अग्रदूत बन सकता है, मगर सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जो जीएसटी कल लागू हुआ वह एक दोषपूर्ण कर-कानून है और यह हमें परेशानी के एक लंबे दौर में ले जाएगा. हमें एक दोष रहित जीएसटी लागू करना चाहिए था.

*जीएसटी में कर की एक ही मानक दर होनी चाहिए थी (रियायती दर और नुकसानदेह चीजों पर लगने वाली अपेक्षया ऊंची दर के साथ), पर ऐसा नहीं है.

*जीएसटी को एक ही एकीकृत कर-प्राधिकरण के तहत होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं है. *जीएसटी के तहत कमतर रिटर्न भरने का प्रावधान होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं है. *जीएसटी को वर्गीकरण के झगड़ों को समाप्त कर देना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ.

*जीएसटी को कर-प्रशासक के विवेकाधिकार को कम करना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ. इसके विपरीत, ‘मुनाफाखोरी निरोधक प्राधिकार’ को काफी निष्ठुर शक्तियां दे दी गई हैं. जिसने भी यह विचित्र परिकल्पना तैयार की हो, उसे अर्थशास्त्र या करोबार या बाजार या प्रतिस्पर्धा का तनिक ज्ञान नहीं है. जीएसटी को अंतिम तौर पर लागू करने से दो महीने पहले इसका परीक्षण यानी प्रायोगिक क्रियान्वयन होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ.

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भीड़ की हिंसा : सिर्फ नसीहतों से कुछ नहीं होगा

दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने हिंसक भीड़ द्वारा हत्याओं का सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है- साबरमती आश्रम में पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी ने गोरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा की सख्त निंदा की. स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा कि गोरक्षा के बहाने इंसानों की जान लेना गोरक्षा नहीं माना जा सकता.

हिंसा से कुछ अच्छा नहीं हो सकता, मोदी ने कहा, लेकिन सवाल है कि क्या उनके इस भाषण के बाद गोरक्षा के नाम पर हिंसा रुक जाएगी? मैं उनमें से हूं जिन्होंने बहुत बार लिखा है कि अगर प्रधानमंत्री ने मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद आवाज उठाई होती, तो शायद गोरक्षक इतने बेकाबू न होते जो आज हो गए हैं. प्रधानमंत्री अपना भाषण दे ही रहे थे कि झारखंड से खबर आई एक नई हत्या की. यथार्थ यह है कि अपने देश में हिंसा जब राजनीतिक रूप धारण कर लेती है तो उसको कोई रोकता नहीं है.

यही कारण है कि सांप्रदायिक दंगों के बाद बहुत कम लोग पकड़े जाते हैं. आज तक हम नहीं जानते कि 1984 में सिखों के कत्लेआम में शामिल कौन थे. गोरक्षकों की हिंसा को अगर वास्तव में रोकना चाहते हैं मोदी, तो उनको साबित करना होगा कि जो लोग कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं उनको कड़ी से कड़ी सजाएं होंगी. क्या ऐसा कर सकते हैं?

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हिंदी के नाम पर फिर गोलबंदी

अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने उड़िया को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घटना का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति मुखर्जी के फाइल पर दस्तख्त करते हुए उड़िया तमिल संस्कृत, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम के बाद छठी शास्त्रीय भाषा बन गई. गुहा ने पिछले सप्ताह वेंकैया नायडू के उस बयान का जिक्र किया है, जिसमें कहा गया था कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और हिंदी के विस्तार किए बिना भारत का विकास संभव नहीं है.

इस पर भाजपा के समर्थक एक पत्रकार ने ही बेहद कड़ी आपत्ति जताई थी. वेंकैया की टिप्पणी के बाद सुषमा स्वराज का ऐलान हुआ कि कि अब पासपोर्ट धारकों की जानकारी हिंदी में छपेगी. भाजपा का पूर्ववर्ती जनसंघ यह मानता था कि एक राष्ट्र तभी एकजुट और मजबूत हो सकता है, जब इसके नागरिक एक धर्म से बंधे हों और एक भाषा बोलते हों. यह विडंबना है कि पाकिस्तान इसका सबसे खराब और पुराना पड़ चुका उदाहरण है.

जिससे जनसंघ नफरत करता है और भाजपा उससे कहीं अधिक. जनसंघ का नारा हिंदी,हिंदू, हिन्दुस्तान जिन्ना के उस विचार से मिलता है कि जो मुसलमान है और उर्दू बोलता है वही सच्चा पाकिस्तानी हो सकता है. भाजपा के अनेक नेताओं को मालूम होगा कि भारत की अनेक भाषाओं के पास हिंदी से अधिक समृद्ध साहित्यिक विरासत है और इन भाषाओं को बोलने, पढ़ने और लिखने वाले करोड़ों भारतीय इस पर गर्व करते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि नायडू और स्वराज की टिप्पणियां सिर्फ तात्कालिक थीं या फिर सत्तारूढ़ दल की ओर से हिंदी राष्ट्रवादका नया उभार पैदा करेगी.

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राष्ट्रपति दलित या गैर दलित नहीं होता

अमर उजाला में श्योराज सिंह बेचैन ने दलित बनाम दलित राष्ट्रपति के मुद्दे पर टिप्पणी की है. बेचैन लिखते हैं- राष्ट्रपति दलित या गैर दलित नहीं होता. वह केवल राष्ट्रपति होता है. यह सवाल आज से करीब पच्चीस साल पहले उठा था, जब दलित उत्पीड़न की शिकायत लेकर सौ से अधिक दलित सांसद तत्कालीन राष्ट्रपति से मिलने गए थे.

तब उन्होंने इस मुद्दे पर उनसे मिलने से इनकार कर दिया था. दलित समुदायों में गरीबी, अशिक्षा, उत्पीड़न , पलायन, बेरोजगारी जैसे मुद्दे बरकरार रहेंगे क्योंकि दलित समस्या का समाधान करना किसी के एजेंडे में नहीं है. वैसे भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री न दलित होते हैं और न सवर्ण. वह सबके प्रतिनिधि होते हैं. इसलिए दलित नेता भी सबका होता है.

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