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संडे व्यूः New India बनाने का नुस्खा नहीं!कितनी बदली है कांग्रेस?

रविवार सुबह पढ़िए देश के अहम अखबारों के आर्टिकल

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यह ‘न्यू इंडिया’ बनाने का नुस्खा नहीं

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया लिखते हैं- पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्लियामेंट में आरोप लगाया कि कांग्रेस की खराब नीतियों की वजह से भारत की गरीबी बढ़ी और इसका विभाजन हुआ. उन्होंने कांग्रेस के ‘ओल्ड इंडिया ’ के प्रति हिकारत जाहिर करते हुए ‘न्यू इंडिया’ बनाने का ऐलान किया. यह सही है कांग्रेस ने कई पाप किए हैं और इसी वजह से इसका कद भी घटा है.

शशि थरूर ने हाल में एक लिस्ट निकाल कर दावा किया कि बीजेपी की 23 नई नीतियां में 19 वास्तव में कांग्रेस की नीतियों की कॉपी है. इसमें कोई गलत बात नहीं है. अपने विरोधी के अच्छे आइडिया को उठाना और उन्हें अपग्रेड करना समझदारी भरा कदम है. लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब आप उनकी वाहियात कदमों को भी लागू करने लगते हैं.

नेहरू को एक सेक्यूलर डेमोक्रेसी के निर्माण का श्रेय जाता है. लेकिन उनकी समाजवादी और अनुदार आर्थिक नीतियों ने भारत को रोजगार देने वाली और मैन्यूफैक्चरिंग ताकत वाली अर्थव्यवस्था बनाना चाहा. नतीजतन भारत को तीन फीसदी के ‘हिंदू ग्रोथ’ रेट से आगे बढ़ना पड़ा. इससे आजादी के 30 साल के अंदर ही गरीबों की संख्या दोगुनी हो गई.

मोदी संरक्षणवादी नीति अपना कर और एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा कर क्यों नेहरू की नीतियों को अपना रहे हैं. उन्हें याद रखना चाहिए कि चीन की अर्थव्यवस्था उदारीकरण अपना कर और संरक्षणवादी नीतियों को हटा कर आगे बढ़ी है.

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पुरानी लॉबी का मजबूत होना

पी चिदंबरम में मोदी सरकार की संरक्षणवादी नीतियों की आलोचना की है. दैनिक जनसत्ता में वह लिखते हैं- जुलाई 1991 को भारत को अहसास हुआ कि नई दिल्ली में सत्ता एक ध्वंसकारी टोली के हाथ में आ गई है. र्इंट-दर-र्इंट, पुराना ढांचा गिरा दिया गया, और र्इंट-दर-र्इंट, एक नई इमारत खड़ी की गई. सत्ताईस साल बाद, वह काम अब भी जारी है.

पर दुर्भाग्य से, अब एक दूसरा, ऐसा ध्वंसकारी दस्ता नई दिल्ली की सत्ता पर काबिज है, जिसने पिछले सत्ताईस सालों में बड़ी मेहनत से बनाई गई इमारत को तोड़ना और राज्य के नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था बनाना शुरू कर दिया है जो धीमी वृद्धि दर के भारत के लंबे इतिहास का कारण रही वरना कोई कैसे हाल में लिये गए तथा बजट में घोषित किए गए निर्णयों की व्याख्या कर सकता है?

क्या तथाकथित स्वदेशी लॉबी के दबाव में पुनर्विचार चल रहा है? बजट से ऐन पहले और बजट में भी सरकार ने कई ऐसी घोषणाएं कीं जो संरक्षणवादी (और कराधान) लॉबी के मजबूत होने का संकेत देती हैं.

संरक्षणवादी कदम उठाना यह कबूल करना है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान फ्लॉप हो गया है, कारोबारी सुगमता (इज ऑफ डूइंग बिजनेस) के सूचकांक में ऊपर चढ़ने की जो बात खूब जोर-शोर से कही गई वह एक भ्रांति है, और इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार का दावा खोखला है.

कितनी बदली है कांग्रेस?

क्या कांग्रेस बदल चुकी है. क्या कांग्रेस का रिवाइवल वास्तविक है. क्या लोगों को लगता है कि बीजेपी सिर्फ बातें करती हैं और एंटी मोदी ब्रिगेड तमाम लोगों को परखने के बाद अपनी पसंदगी राहुल गांधी में जता रहे हैं. ये तमाम सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब जानना जरूरी है.

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं- राहुल गांधी के बारे में कभी उनकी पार्टी के लोगों ने कहा था कि वह राजनीति को पार्ट टाइम समझ रहे हैं. लेकिन अब अपने काम के प्रति उनका ध्यान ज्यादा केंद्रित है. वह राजनीतिक तौर पर ज्यादा समझदार दिख रहे हैं और अब उनका अंदाज ज्यादा आक्रामक हो गया है. गुजरात चुनाव में इसकी साफ झलक मिली, जहां पार्टी ने अपना वोट और सीटों का शेयर दोनों बढ़ाया. 2018 में उसकी यह लय बनी रही और इसने राजस्थान में में उपचुनाव जीत कर बीजेपी को नुकसान पहुंचाया.

गुजरात चुनाव के नतीजों से ठीक पहले राहुल ने के. राजू को अपनी कोर टीम में शामिल किया जो पूर्व ब्यूरोक्रेट और दलित समुदाय से आते हैं. समझा जाता है राजू की वही भूमिका होगी जो अहमद पटेल की सोनिया गांधी के लिए थी.

इसके साथ ही पार्टी ने हाल में इनवेस्टमेंट बैंकर से राजनीतिक अर्थशास्त्री बने प्रवीण चक्रवर्ती को पार्टी के डाटा एनालिटिक्स डिपार्टमेंट का हेड चुना है. लेकिन पार्टी कितनी बदली है यह कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव बताएंगे.

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हाशिये के लोगों का अर्थशास्त्री

मशहूर इतिहासकार और पब्लिक इंटेलक्चुअल रामचंद्र गुहा ने इस बार बेल्जियम से भारत आकर बस गए विकास अर्थशास्त्री ज्यां द्रीज के व्यक्तित्व और उनके काम पर लिखा है.

दैनिक हिन्दुस्तान में गुहा लिखते हैं- द्रीज की पहचान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी नरेगा (अब मनरेगा) की अवधारणा में उनकी केंद्रीय भूमिका से है. तो नरेगा का मसौदा तैयार करने के साथ ही इसके कार्यान्वयन पर पैनी नजर रखने के लिए भी. सूचना के अधिकार और खाद्य सुरक्षा कानूनों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है.

दरअसल लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ा चुका यह विकास अर्थशास्त्री इस मायने में भी अनोखा कि वह जमीन से जुड़े जिन लोगों की तरह काम करता है उन्हीं की तरह जीवन भी बिताता है. वह झोपड़ी में रहता है. ट्रेन के जनरल डिब्बे में सफर करता है और आदिवासी ग्रामीणों के बीच जिंदगी बिताता है. आजकल द्रीज रांची विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स से जुड़े हैं.

गुहा लिखते हैं- उनके लेखों का संग्रह सेंस ऐंड सॉलिडैरिटी शीर्षक किताब में हाल ही में आया है. इसमें खाद्य सुरक्षा से लेकर चिकित्सा सतर्कता, बच्चों के अधिकार से लेकर परमाणु युद्ध के खतरे जैसे वैविध्यपूर्ण विषयों की लंबी श्रृंखला है. किसानों, आदिवासियों, श्रमिकों और प्रवासियों के जीवन व संघर्ष को गहराई से समझने में यह खासी मददगार है.

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ऐसे करें सैनिकों का सम्मान

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने एक्ट्रेस अनुष्का शर्मा की ओर से सेना और सैनिक परिवार की तारीफ पर दिए गए बयान के बारे में अपनी राय जाहिर की है. करन लिखते हैं- हम सभी देशभक्त हैं. लेकिन एक आर्मी अफसर का बेटा होने के नाते में मैं यह कहना चाहता हूं कि एक आत्मविश्वास भरे लोकतंत्र में सेना का यह दावा नहीं बनता कि उससे प्यार किया जाए. यह पूरी तरह प्राथमिकता का सवाल है.

नर्सों, डॉक्टरों, पुजारियों, मौलवियों, किसानों और श्रमिकों के प्रति व्यक्त किए गए सम्मान की तुलना में सैनिकों के प्रति व्यक्त किया गया सम्मान बड़ा नहीं हो सकता. असल में जब भी हम मिलिट्री का डंका पीट कर यह कहते हैं कि हम खास हैं और बेहतर हैं तो एक डेमोक्रेसी के तौर पर हम अपनी अपरिपक्वता ही दिखाते हैं.

करन लिखते हैं- हमारे सैनिक और उनकी पत्नियां, बच्चे इंसान हैं. आप उनके सामने यह जता कर वे औरों अलग हैं, उनका सम्मान नहीं कर रहे होते हैं. ऐसा करके आम उन्हें काट देते हैं. अलग करते हैं. उनके सामने ऐसे पेश आते हैं जैसे वे इंसानों से अलग हैं.

दरअसल उन्हें भी चोट लगती है और आपकी तरह वे भी दर्द और डर का अनुभव करते हैं. अपनों का दर्द उन्हें भी होता है. अगर आप आम लोगों का सम्मान नहीं कर सकते तो सैनिकों को भी सम्मान नहीं कर पाएंगे.

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‘जूठन’ से परेशानी

प्रख्यात लेखक और विचारक श्योराज सिंह बेचैन ने इस बार ‘अमर उजाला’ में लिखे अपने कॉलम दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन को हिमाचल प्रदेश में सिलेबस से हटाने की मांग पर सवाल उठाए हैं. वह लिखते हैं कुछ लोग सामाजिक सच को स्वीकार कनरे के बजाय शब्दों को ही विवाद के पचड़े में डाल देते हैं.

ताजा उदाहरण ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को हिमाचल के सिलेबस से निकालने के मामला है. आरोप है कि यह उपन्यास हमारे समाज की सौ साल पुरानी बुराइयों को सामने लाकर नफरत फैलाता है.वाल्मीकि जी ने इसमें खास कर अपने छात्र जीवन के बारे में लिखा है.

बेचैन लिखते हैं- ‘जूठन’ को पाठ्यक्रम से हटाने के बजाय उन स्थितियों को बदला जाना चाहिए, जिनमें आज भी ग्रामीण भारत में वाल्मीकि समाज को बचा हुआ खाना पड़ता है. देश में स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है लेकिन वाल्मीकि समाज के लोग आज भी बिना सुरक्षा उपकरणों के सीवरों में उतरते हैं और बेमौत मरते हैं. ‘जूठन’ को लेकर भ्रम पैदा करने की स्थिति क्यों बन रही है? जूठन के खिलाफ अभियान को दरअसल दलितों के खिलाफ चल रहे व्यापक अभियान के संदर्भ में देखने की जरूरत है.

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राज्यसभा की सीट और बीजेपी

और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर. इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले अपने कॉलम इनसाइ ट्रैक में वह लिखती हैं- बीजेपी में राज्यसभा की सीटों कि लिए धक्कामुक्की शुरू हो चुकी है. राज्यसभा में अप्रैल में 58 सांसद रिटायर होंगे.

बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा फायदा यूपी में होगा जहां दस सीटें खाली होंगी. चूंकि बीजेपी ने 403 सीटों में से 312 पर जीत हासिल की है इसलिए उससे यहां राज्यसभा की आठ सीटों पर जीत की उम्मीद है.

कयास लगाया जा रहा है कि क्या जया बच्चन राज्यसभा में वापसी करेंगी क्योंकि उनकी पार्टी समाजवादी पार्टी सिर्फ एक सीट जीत सकती है. यूपीए की ओर से नामित तीन सांसद इस बार अपना टर्म पूरा कर लेंगे.

बहरहाल बीजेपी की ओर से राज्यसभा में नामित किए जाने वाले सांसदों के नाम चौंका सकते हैं क्योंकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस मामले में लीक पर नहीं चलते हैं. आरएसएस भी अपनी पसंद थोपेगा. इसलिए यह देखना होगा कि बीजेपी में अपनी लॉबिंग तेज कर चुके किन-किन लोगों की किस्मत चमकती है.

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