न तार्किक न नैतिक
अंग्रेजी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन अंकलसरैया अय्यर ने रतन टाटा-साइरस मिस्त्री विवाद में एक नया सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है- रतन टाटा और साइरस मिस्त्री की ओर से टाटा की कुछ कंपनियों पर कब्जे की इस लड़ाई में एक मूल सवाल से ध्यान नहीं हटना चाहिए. और यह सवाल है- क्या चैरिटी ट्रस्ट जो आयकर के दायरे से बाहर हैं, को बड़े बिजनेस घरानों में हिस्सेदारी लेने या उन्हें नियंत्रित करने की इजाजत मिलनी चाहिए? क्या यह खराब कॉरपोरेट गवर्नेंस और टैक्स छूट नियमों का दुरुपयोग नहीं है?
टाटा ट्रस्ट अपने जनकल्याणकारी कार्यक्रमों की वजह से टैक्स से छूट हासिल करता है. लेकिन दिक्कत यह है कि टाटा ट्रस्ट के पास टाटा समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा सन्स के दो तिहाई शेयर हैं. कहने का मतलब है कि जनकल्याण के कामों के लिए बनाए गए ट्रस्टों का इस्तेमाल बड़े बिजनेस घरानों के नियंत्रण के लिए किया जा रहा है. यह न तार्किक है और न ही नैतिक. दशकों पहले ऐसा खूब होता था. कई बिजनेस समूह के नियंत्रणकारी शेयर टैक्स से मुक्त ट्रस्टों के पास होते थे. बाद में सरकार ने इस नियम को प्रतिबंधित कर दिया. फिर भी टाटा और बिरला ट्रस्ट जैसे कुछ पुराने ट्रस्टों को इससे छूट दे दी गई.
आज की तारीख में अगर नंदन नीलकेणी या अजीम प्रेमजी चैरिटीबल ट्रस्ट बना कर अपने समूह पर नियंत्रण करना चाहें तो उन्हें रोक दिया जाएगा. क्या यह भेदभाव तार्किक और नैतिक है? क्या पुराने ट्रस्टों को नए ट्रस्टों पर तरजीह दी जानी चाहिए. बिल्कुल नहीं.
एक गुणी भारतीय का संदेश
हाल के दिनों में उग्र हिंदुत्व की जो लहर देखने को मिली है उसमें जयप्रकाश नारायण के हिंदू धर्म के बारे में दिया गया एक भाषण नई राह दिखा सकता है.
मशहूर इतिहासकार और पब्लिक इंटेलक्चुअल रामचंद्र गुहा ने हिंदी दैनिक अमर उजाला में लिखा है- दिल्ली विश्वविद्यालय एक दीक्षांत समारोह में जेपी ने कहा था, ‘हम हिंदू धर्म की सहिष्णुता पर धाराप्रवाह बोलते हैं लेकिन जब पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को किसी अपराध की वजह से नहीं बल्कि दूसरे धर्म का होने के कारण पीटा जाता है, तब हमारी भवें नहीं तनतीं.’
गुहा लिखते हैं- जेपी ने जब यह हिदायत थी, तो उस वक्त वे प्रासंगिक थीं, कदाचित वे आज भी कहीं अधिक प्रासंगिक हैं. एक हिंदू के रूप में उन्होंने देखा कि उनकी आस्था के जीवन को मजबूती देने वाले पहलू पर नए सिरे से जोर देने की जरूरत है. अगर उन्हें अफसोस हुआ कि, ‘अभी जो पुनरुत्थान हो रहा है वह हिंदू समाज को और पीछे ले जाएगा और हो सकता है हमने एक राष्ट्र के रूप में जो अर्जित किया है उसे नष्ट कर दे. ’
गुहा लिखते हैं- जेपी सत्तारुढ़ कांग्रेस को आड़े हाथ लेने में साहसी थे और उससे कहीं अधिक अपने धर्म के कट्टरपंथी लोगों के मामले में. उनका यह भाषण संतों और साधुओं द्वारा गोवध पर प्रतिबंध को लेकर संसद की ओर निकाले गए जुलूस की पृष्ठभूमि में हुआ था. उस जुलूस के कारण भारी हिंसा हुई थी और ऐसी हिंसा 1947 के काले दिनों के बाद शहर में नहीं देखी गई थी.
राहुल का खोखला दावा
कई किताबों की लेखिका, पत्रकार और स्तंभकार शोभा डे ने अंग्रेजी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने स्तंभ में संसद में बोल कर भूकंप लाने और फिर चुप्पी साध लेने के राहुल गांधी के कदम की खिल्ली उड़ाई है. वह कहती हैं- अगर आप (राहुल) के पास नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ विस्फोटक बातें थीं तो उसे बोलने में क्या दिक्कत थी. क्या जरूरत थी कि पहले तो आपने नोटबंदी के मामले में नरेंद्र मोदी के खिलाफ बड़े रहस्य खोलने के लंबे-चौड़े दावे किए और फिर पीछे हट गए.
शोभा लिखती हैं- असली दिक्कत तो यह है कि राहुल गांधी को कोई गंभीरता से लेता ही नहीं है. यहां तक कि उनके पार्टी के सदस्य भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेते. यह सिर्फ उनकी नहीं भारत की त्रासदी है. फिर भी अगर कोई हम पर थोपे जा रहे फैसले का विरोध कर सकता है तो वह राहुल बाबा ही हैं. चाहे अच्छा हो या बुरा हम राहुल से जुड़े रहने को मजबूर हैं क्योंकि विपक्ष में होने की वजह से वही पीएम नरेंद्र मोदी का सामना कर सकते हैं.
राहुल गांधी सचमुच विजेता बन कर उभरते अगर वह करोड़ों लोगों की सामूहिक चिंता और गुस्से को आधार बना कर संसद में नरेंद्र मोदी से टकराते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. बहरहाल संसद शीतकालीन सत्र खत्म हो चुका है. अब संसद के महानुभावों के लिए आराम करने और खाते-पीते, सैर-सपाटा करते हुए सर्दियों का मजा लेने का वक्त है. लेकिन नोटबंदी की वजह से ठनठन गोपाल जनता इस चिंता में परेशान है कि इन सर्दियों में रोटी-पानी, गर्म कपड़ों के बगैर उसका बेड़ा पार कैसे होगा.
डी फॉर डीमोनेटाइजेशन, डब्ल्यू फॉर व्हाई
जानी-मानी टीवी पत्रकार बरखा दत्त ने इस साल अंग्रेजी के डी अक्षर के वर्चस्व को याद करते हुए- डी फॉर डोनाल्ड ट्रंप, डी फॉर डिमोनेटाइजेशन और डी फॉर डिसरप्शन के बाद डी फॉर डम्ब का जिक्र किया है. जाहिर है, वह नोटबंदी को मूर्खता भरा कदम साबित करना चाहती हैं.
अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में बरखा लिखती हैं-
यह साल डिसरप्टिव फैसले के नाम रहा- पहले डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने ने चौंकाया और अब अपने देश में नोटबंदी के फैसले (अनाम रहने की इच्छा रखने वाले एक नेता के मुताबिक) को विभाजन के बाद सबसे नाटकीय परिवर्तन बताया जा रहा है. भले ही यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों न हो लेकिन नोटबंदी नाम के आफत ने कहर बरपाया है उसके असर की गहराई और विस्तार के बारे में कम ही लोग बता सकते हैं. मुझे समझ में नहीं आता क्यों इस (नोटबंदी) डंब (डी फॉर डम्ब) फैसले को लाया गया?
इसे तर्कों की कसौटी पर कसें तो आप पूछेंगे आखिर यह फैसला क्यों? जैसे- सरकार ने पहले कहा कि नोटबंदी से ब्लैकमनी खत्म हो जाएगी. लेकिन देश की 86 फीसदी करेंसी को एक झटके से बाजार से वापस लेने के बाद सरकार अब ब्लैकमनी की बात नहीं कर रही है.वह लगातार गोलपोस्ट बदल रही है और अब वह सिर्फ डिजिटल अर्थव्यवस्था की बात कर रही है.
सिर्फ छह फीसदी ब्लैकमनी के लिए करोड़ों लोगों को आपने लाइन में खड़ा कर दिया. दूसरे, आपने बड़े नोटों को ब्लैकमनी की वजह बताया लेकिन 2000 रुपये के नोटों को बाजार में पेश कर दिया. इससे ब्लैकमनी की पुरानी कहानी फिर शुरू हो सकती है. तीसरी बात यह है कि क्या नोटबंदी ने काला धन रखने वालों को इसे सफेद बनाने का बड़ा मौका नहीं दे दिया.
जनधन योजना में 37,000 करोड़ रुपये का अचानक इजाफे से क्या साबित होता है. और आखिर में मोदी सरकार के मिनिमम गर्वनमेंट, मैक्सिमम गर्वनेंस के नारे का क्या हुआ? नोटबंदी के फैसले से राज्य की ताकत इतनी ज्यादा दिखी जिसकी कल्पना नहीं की गई थी. एक तरफ तो बेटी की शादी में 100 करोड़ रुपये खर्च करने वाला खनन कारोबारी और ड्राइवर का यह खुलासा करता हुआ सुसाइड नोट है कि ब्लैकमनी को व्हाइट किया गया था और दूसरी ओर बेटी की शादी के लिए 2.5 लाख निकालने के लिए लाइन में खड़ा नगरपालिका कर्मचारी है. आप खुद ही फैसला कर लीजिए कि नोटबंदी क्या कर रही है और किसकी कीमत पर?
अच्छे फैसले के लिए अच्छी जानकारी और ज्ञान जरूरी
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम ने कॉलम की शुरुआत में ऐलान कर दिया है कि उनके लिए इस सप्ताह भी नोटबंदी के फैसले पर लिखना जरूरी है.
चिदंबरम लिखते हैं- बदलाव लाने के दौरान कुछ लोगों को फायदा होगा तो कुछ को घाटा. बुद्धिमता यह कहती है ऐसे में यह देखना चाहिए कि ऐसे फैसलों की वजह से विजेताओं को बहुत ज्यादा फायदा न हो और जो हारने वाले सिरे पर खड़े हैं वो पूरी तरह बरबाद न हो जाएं. लेकिन ऐसी बुद्धिमता तब ही आती है जब आपको किसी चीज की पूरी जानकारी और ज्ञान हो.
दिल्ली में टुकड़ों-टुकड़ों में मिल रही जानकारी (खास कर सरकार और बीजेपी के सूत्रों से) इकट्ठा कर जो बात सामने आई है उसके मुताबिक प्रधानमंत्री को ये चीजें नहीं बताई गईं –
- 1. 500 और 1000 के नोट देश में मौजूद पूरी मुद्रा के 86 फीसदी हैं. इन्हें वापस लेने पर लगभग सारा करेंसी प्रवाह ही खत्म हो जाएगा.
- 2. नोट छापने की क्षमता सीमित है. अगर सभी पुराने नोटों के उसी मूल्य के नए नोटों से बदला जाए तो भी पूरे सात महीने लग जाएंगे. अगर पुराने नोटों को छोटे नोटों से बदला जाए तो इससे भी ज्यादा वक्त लगेगा और 2000 के नोटों से बदला जाए तो कम वक्त लगेगा.
- 3. अगर नोट पर्याप्त तौर पर मौजूद हों तो भी देश के 2,15,000 एटीएम को री-कैलिब्रेट करने में एक महीने से या ज्यादा वक्त लगेगा.
बगैर जानकारी के फैसले लागू करने के नतीजे सामने आ रहे हैं- मोदी ने आखिरी बार 50 दिनों के लिए धैर्य रखने को कहा था. पिछले सप्ताह तक मोदी का पलड़ा भारी था. लेकिन अब उनका हर वादा झूठा साबित हो रहा है. और हमारे सामने यही है कि करोड़ों लोगों की जिंदगी पूरी तरह बरबाद हो गई है. इस पूरे मामले में विजेता कौन रहा? जाहिर है जमाखोर, जिन्होंने अपनी तिजोरी में रखे एक-एक नोट को वैध बनाया. कालेधन को सफेद बनाने वाले कमीशनखोर, जिन्होंने भारी रकम लेकर नोट बदले. बरबाद कौन हुए- तिरुपुर में टेक्सटाइल श्रमिक जैसे लोग. पाव-भाजी और सब्जी बेचने वाले लोग. छोटा-मोटा धंधा करने वाले या कारीगर. किसी प्राकृतिक आपदा से भी ऐसे कहर की आशंका नहीं होती है.
अपनी सिविल सर्विस के बारे में सोचे सरकार
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में मेघनाद देसाई लिखते हैं - नोटबंदी का फैसला सदिच्छा से शुरू किया गया था. पहले की कई सरकारों ने इसके बारे में सोचा होगा लेकिन लागू करने का साहस नहीं कर पाईं. मोदी सरकार के इस फैसले की कुछ शुरुआती दिक्कतें हैं. लेकिन एक बार दिक्कतें भुला दी जाएंगी तो सरकार विजेता बन कर उभरेगी.
नोटबंदी को लेकर इकोनॉमी में पड़ने वाले विपरीत असर के न दिखने पर सरकार को वाहवाही मिलेगी. लेकिन 70 साल के दौरान इस मजबूत फैसले से हमें कुछ अलग किस्म के सबक भी मिले हैं और इन्हें याद रखना जरूरी है. पहला सबक तो यह है कि पीएमओ में इलिट सिविल सर्विस के लोग फिट नहीं बैठते. इन्हें पता ही नहीं था कि इस देश के साधारण लोग कैसे रहते हैं. कैसे कारोबार करते हैं और कहां से पैसा लाते हैं?
नंदन नीलकेणी इस बात के उदाहरण हैं कि कैसे किसी प्राइवेट सेक्टर का स्मार्ट आदमी बड़ी समस्याओं को हल कर सकता है. हमें ऐसे कई और नीलकेणी की जरूरत है. नोटबंदी का असली मकसद काला धन बाहर निकालना था. इस मामले में इसे काफी सफलता मिली. फिर भी काला धन रखने वालों ने कई जुगाड़ निकाल लिए. इनमें जनधन अकाउंट में पैसा जमा करने से लेकर प्रॉपर्टी में इनवेस्टमेंट शामिल है. पिछले एक महीने के दौरान बड़ी तादाद में ब्लैक मनी को वैध बनाया गया है. पीएमओ में मौजूद इलिट सिविल सर्विस इस तरह के छेदों को भांपने में नाकाम रही. पीएम को अभी कई और क्रांतिकारी आर्थिक सुधार करने हैं. इसलिए अच्छा होगा कि वे अपनी योजनाओं को लागू करने के लिए बेहतर सिविल सर्विस की सेवा लें.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)