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संडे व्यू: ओलंपिक से उम्मीद, बजट में युवाओं-गरीबों से धोखा

पढ़ें इस रविवार करन थापर, रामचंद्र गुहा, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम और प्रभु चावला के विचारों का सार

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भारत
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सपना क्यों रहता है ओलंपिक में स्वर्ण?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि ओलंपिक खेलों को लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा ने उनसे एक बात कही थी जो आज भी महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा था कि हम शहरी मध्यवर्ग में ही अक्सर चैंपियन खोजा करते हैं. गांवों में अगर इस खोज को हम गंभीरता से शुरू करेंगे तो हर गांव में ऐसे बच्चे मिलेंगे जो किसी न किसी खेल में हुनर रखते हों. उदाहरण देते हुए बहुगुणा ने बताया था कि अक्सर बच्चे छोटी उम्र में ही घुड़सवारी सीख जाते हैं और कई दूसरे खेल भी. इन बच्चों को अगर उस तरह ट्रेनिंग मिले जैसे रूस, चीन अमेरिका में मिलता है, तो भारत हर ओलंपिक में उन देशों में जरूर पहुंच जाएगा जो सबसे ज्यादा पदक हासिल करते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि ओलंपिक में आगे रहने वाले देश कम उम्र में ही बच्चों की प्रतिभाओं की पहचान करते हैं और प्रशिक्षण देकर उन प्रतिभाओं को तराशते हैं. हमारे भारत महान में आज तक ऐसा कुछ नहीं होता है. हमारे गांवों में न खेल के मैदान अच्छे होते हैं और न स्टेडियम. क्रिकेट, बॉक्सिंग और पहलवानी में अब ऐसा होने लगा है.

क्रिकेट में जो सफलता हमने पाई है वह हर खेल में आसानी से हमको मिल सकेगी अगर हर राज्य में खेल मंत्री अपना काम ईमानदारी और गंभीरता से करने लगेंगे. हरियाणा, केरल जैसे प्रदेशों में ऐसा हुआ है. पिछले हफ्ते जब ओलंपिक की मशाल पेरिस पहुंची तो हमारे कुछ राजनेताओं ने कहा कि 2037 के ओलंपिक के लिए भारत को दावा करना चाहिए. यह अच्छी बात है लेकिन साथ में ये क्यों नहीं कहते कि अगले दशक में हर गांव में खेलकूद के स्टेडियमों का निर्माण भी होना चाहिए. हमसे छोटे देश हमसे ज्यादा पदक जीतते हैं क्योंकि उनके शासकों ने खेलकूद की जो महत्वपूर्ण व्यवस्था है, उसमें निवेश किया है. ये काम सिर्फ सरकारें कर सकती हैं. निजी क्षेत्र में कुछ बड़े उद्योगपति हैं जिन्होंने किसी एक या दो खिलाड़ियों को तैयार करने में पैसे लगाए हैं. लेखिका को यह महसूस करते हुए शर्म आती है कि 140 करोड़ के देश ने आज तक सिर्फ दो बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता है.

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युवाओं-गरीबों के साथ धोखा

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मोदी सरकार ने लेन-देन के चलन को उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है. चुनावी बॉन्ड की असलियत सभी को समझ में आ चुकी है. सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही इस योजना को रद्द कर दिया लेकिन सरकार के इरादे पर कोई टिप्पणी नहीं की. आम बजट को कुर्सी बचाओ बजट में बदल दिया गया. 16 वोट के बदले बिहार और आंध्र प्रदेश को कई तरह के अनुदान मिले. संबंधित राज्यों के सांसदों के अनुसार जिन राज्यों के साथ धोखा हुआ उनमें पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब और केंद्र शासिद प्रदेश दिल्ली शामिल हैं. धोखा युवाओं के साथ भी हुआ है. जून में बेरोजगारी दर 9.2 फीसदी पहुंच चुकी है. पढ़े लिखे लोगों में बेरोजगारी ज्यादा है. बजट में इंटर्नशिप योजना तो लाई गयी लेकिन 23 लाख खाली पड़े सरकारी पदों को भरने की चर्चा तक नहीं हुई.

चिदंबरम लिखते हैं कि धोखा गरीबों के साथ भी हुआ है. 71 करोड़ लोग प्रतिदिन 100-150 रुपये या उससे कम पर जीवन यापन कर रहे हैं. सबसे निचले 10 फीसदी लोग प्रतिदिन 70-100 रुपये और सबसे निचले 10 फीसदी लोग 60-90 रुपये पर जीवन यापन कर रहे हैं. इन्हें बजट में कोई राहत नहीं दी गयी है. वेतनभोगी और पेंशनभोगियों को मामूली राहत मिली है. आबादी के सबसे निचले 50 फीसद में 71 करोड़ लोग न तो वेतनभोगी कर्मचारी हैं और न ही सरकारी पेंशनभोगी. इनके लिए कुछ सोचा न जा सका. न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर चार सौ रुपये प्रतिदिन की जा सकती थी. मनरेगा के तहत काम के दिनों को 50 से बढ़ाकर 100 दिन के करीब किया जा सकता था. प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को याद रखना चाहिए कि युवाओं और गरीबों के साथ-साथ अन्य नागरिकों के हाथ में वोट के रूप में शक्तिशाली हथियार है. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कड़ी चेतावनी मिली है. जून 2024 के उपचुनाव में सत्ता पक्ष को करारी शिकस्त मिली है. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड में विधानसभा चुनाव करीब है. युवा और गरीब भूल नहीं पाएंगे कि उनके साथ धोखा हुआ.

जो बाइडन का उचित फैसला

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि राष्ट्रपति जो बाइडन ने एक बेहतरीन काम किया. उन्होंने अमेरिका में ट्रंप के वर्षों के भयंकर ध्रुवीकरन को पीछे छोड़ दिया. फिर भी उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मांगना चाहिए था. इसके बजाए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार चुनने का मौका देना चाहिए था. अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ. डोनाल्ड ट्रंप के साथ बहस में प्रतिष्ठा गंवाने के बाद आखिरकार जो बाइडन को अपना पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. सुनील गावस्कर को याद करते हुए लेखक उन्हें अपवाद बताते हैं जिन्होंने विश्व कप में अच्छी बल्लेबाजी करने के बाद खेल छोड़ दिया था. यह काम न गुंडप्पा विश्वनाथ कर पाए, न ही कपिल देव और सचिन तेंदुलकर.

रामचंद्र गुहा इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली ईपीडब्ल्यू का भी जिक्र करते हैं जिसकी प्रतिष्ठा इस बात के लिए थी कि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श तय करती थी. अब ईपीडब्ल्यू की प्रतिष्ठा पहले जैसी नहीं रही. यह जिस ट्रस्ट के हाथों संचालित होती है उनके आठ ट्रस्टियों में सबसे कम उम्र के व्यक्ति की आयु अड़सठ साल है. औसत आयु 80 के करीब है. ईपीडब्ल्यू ने बौद्धिक संस्थान के नवीनीकरन की जरूरत से मुंह मोड़ लिया और यही इसके पतन का कारण है.

लेखक ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की शाखा एनसीबीएस का उदाहरण भी सामने रखा. 1960 के दशक में जीव विज्ञानी ओबैद सिद्दीकी इस संस्थान में नियुक्त हुए. 20 साल तक मुख्य परिसर में काम करने के बाद वे बैंगलोर चले गये. उन्होंने नये लोगों को मौका देने के लिए खुद को रास्ते से हटाया. डायरेक्टर के रूप में अपना कार्यकाल खत्म होने के बाद वे अपने पद से चिपके नहीं रहे. आज एनसीबीएस पदानुक्रम के लिए नहीं वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान के लिए जाना जाता है. एनसीबीएस बोर्ड के सदस्य का कार्यकाल ठीक तीन साल का होता है. इसे एक बार या दो बार बढ़ाया जा सकता है. इससे ज्यादा नहीं. राजनीति, खेल, व्यापार, नागरिक समाज और शिक्षा जगत में अनगिनत भारतीय पुरुषों ने वैसा ही काम किया है और आगे भी करते रहेंगे जैसा कि वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति करना चाहते थे.

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नए अखिलेश का उदय

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मुलायम सिंह यादव ऐसे पहलवान थे जो दांव-पेंच के माहिर थे. समाजवादी पार्टी बनाकर मुलायम ने उत्तर प्रदेश के विश्वासघाती राजनीतिक अखाड़े में बड़ी कुश्ती लड़ी और जीती. बाद में कई राष्ट्रीय राजनीतिक प्रतियोगिताओं में मुलायम ने रेफरी की भी भूमिका भी निभाई. बेटे अखिलेश यादव ने स्टारडम को समझा. जंतर-मंतर पर एनडीए के खिलाफ क्षेत्रीय दलों के धरने में शामिलकर होकर अखिलेश ने यह साबित कर दिया कि क्षेत्रीय ही राष्ट्रीय हैं. सीएम जगन मोहन रेड्डी के निमंत्रण को स्वीकार कर अखिलेश ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया. 2029 तक समाजवादी पार्टी के लिए राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करना उनका लक्ष्य है. यूपी में 37 लोकसभा सीटें जीतने के बाद से अखिलेश पार्टी और बाहर बहुत सक्रिय हैं. यूपी से बाहर यात्रा करते समय वे ऐसे लोगों से मिलते हैं जो इनपुट और जानकारी दे सकते हैं.

प्रभु चावला लिखते हैं कि अखिलेश ने खुद को लखनऊ तक सीमित रखने के अतीत को पीछे छोड़ दिया है. कोलकाता, पटना, चेन्नई और मुंबई का दौरा करते हुए उन्होंने अपनी राजनीतिक शैली में बड़ा बदलाव किया है. ममता बनर्जी, एमके स्टालिन और तेजस्वी यादव ने लोकसभा चुनाव के बाद से अपने-अपने राज्यों तक खुद को सीमित रखा है. अखिलेश इन सबसे अलग हैं. अखिलेश एक मात्र भारतीय राजनेता हैं जिनके पास कोई सलाहकार नहीं है. अखिलेश ने पिता के एमवाई के राजनीतिक गठबंधन को कमजोर कर दिया है. उन्होंने नया नारा गढ़ा है पीडीए का, जो गेमचेंजर साबित हुआ. पांच सांसदों वाली एसपी अब 37 पर पहुंच चुकी है. फिर भी अखिलेश जल्दबाजी करते नहीं दिखते. वे अपनी राजनीतिक पहचान पर कायम हैं. वे लाल टोपी में बने हुए हैं. अखिलेश दोस्त और दुश्मन, दोनों के खिलाफ खेल रहे हैं. राजनीति में कुछ स्थाई दुश्मन और दोस्त होते हैं लेकिन स्थाई हितों पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता.

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गर्मी में ब्रिटेन से बेहतर नहीं है दूजा

करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि गर्मी के दिनों में ब्रिटेन से बेहतर कोई देश नहीं है. मौसम ही नहीं, बल्कि यह जगह भी बदली हुई लगती है. वास्तव में रमणीय. स्थानीय लोग लंदन के पार्कों में आते हैं, धूप में खेलते और उछलकूद करते हैं. पुरुष आम तौर पर शॉर्ट्स में और अक्सर कमर तक नंगे होते हैं. महिलाएं और भी कम कपड़ों में हो सकती हैं. बीते शुक्रवार को हफ्तों की तेज बारिश के बाद लंदन दिल्ली से ज्यादा गर्म था. विरोधाभासी सच्चाई यह है कि लंदन में आपको गर्मी का अहसास कहीं ज्यादा होता है. घर के अंदर सांस फूलना लाजिमी है. चाहे आप कितनी भी खि ड़कियां खोल लें, अंदर आने वाली हवा आपको ठंडक नहीं देती. चाहे आप कितने भी कम कपड़े पहनें, फिर भी ऐसा लगता है जेसे आपने बहुत ज्यादा कपड़े पहन लिए हैं.

थापर लिखते हैं हॉलैंड पार्क में आइसक्रीम वैन के चारों ओर लगातार भीड़ लगी हुई थी. मैदान में बेफिक्र जोड़े जो भी छाया पा सकते थे, उसमें पिकनिक मना रहे थे. हर जगह बच्चे हंस रहे थे और खेल रहे थे, उनकी मस्ती की मधुर ध्वनि हरी घास पर गूंज रही थी. लेखक अफसोस जताते हैं कि हमारे बीच के देसी लोग ऐसे सुखों के आदी नहीं हैं. घर के अंदर रहना पसंद करते हैं. इस लेखक को ब्रिटिश और हमारे बीच एक सूक्ष्म लेकिन स्पष्ट अंतर का अहसास होता है. अंग्रेज धूप का आनंद लेते हैं. वे जितना हो सके उतना चाहते हैं. भले ही बहुत गर्मी हो. हम इससे बचते हैं. हम ताजी गर्मियों की हवा की तुलना में एयर कंडीशनर को ज्यादा पसंद करते हैं. लेखक बताते हैं कि अगली सुबह गर्मी खत्म हो चुकी थी. बादल वापस आ गये थे, बारिश शुरू हो गयी थी. शॉर्ट्स की जगह जर्सी ने ले ली थी. ब्रॉली ने रिवर्स बेसबॉल कैप की जगह ले ली थी. लेखक खुश हैं कि गर्मी के उस एक दिन वे वहां थे.

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