एक कहावत है कि वहम का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था. ऐसे तो इस बीमारी का इलाज अब तक नहीं ढ़ूंढा जा सका है. अब हकीम लुकमान तो रहे नहीं, लेकिन वहम और अंधविश्वास ने राजनीति में अपना डेरा जमा रखा है. पीढ़ी दर पीढ़ी ये अंधविश्वास का वायरस फैलता जा रहा है. अब लालू प्रसाद यादव के बड़े पुत्र और बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव का मामला ही देख लीजिये.
तेज प्रताप ने अपना सरकारी बंगला छोड़ने के लिए अजीबो-गरीब तर्क दिया है. उन्होंने बिहार के सीएम नीतीश कुमार पर इल्जाम लगाते हुए कहा कि नीतीश कुमार ने उनके बंगले में भूत छोड़ दिया है और भूत उन्हें परेशान कर रहे हैं.
लेकिन तेज प्रताप अकेले नहीं हैं जो अंधविश्वास पर विश्वास करते हैं. आम लोगों के भविष्य के लिए नीति बनाने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों का हाल कुछ ऐसा ही है. आइये देखते हैं सियासत में अंधविश्वास पर विश्वास का क्या हाल है.
उज्जैन में रात गुजारने से नेता जी का छिन जाता है चैन
ऐसे तो उज्जैन को धर्म की नगरी कहा जाता है. चुनाव के वक्त उज्जैन का महाकाल मंदिर आम भक्तों से कम, वीआईपी और नेताओं से ज्यादा भरा रहता है. भले ही नेता यहां आशीर्वाद लेने के मकसद से आते हों, लेकिन मुख्यमंत्री यहां रात में रुकने से कतराते हैं.
अब लोगों की बात सुनें तो कहा जाता है कि महाकाल और शिव उज्जैन के राजा हैं और ऐसे में कोई और राजा या शासक शहर में रात में रुक नहीं सकता है.
बस इस मिथक का हाल ये है कि मौजूदा सीएम शिवराज सिंह चौहान ने मंदिर के दर्शन से लेकर पूजा पाठ तक किया है लेकिन रात में रुके कभी नहीं.
नॉर्थ नहीं साउथ में भी फैला है अंधविश्वास
तमिलनाडु में एक जगह है तंजावुर. इसी तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर है. लोगों का भगवान में विश्वास है इसलिए मंदिर जाते हैं लेकिन यहां उलटे ही मंदिर से जुड़े अंधविश्वास में घिरे हैं नेता.
अब इस मंदिर को लेकर नेताओं में एक मिथ है कि मेन गेट से एंट्री करने पर या तो सत्ता चली जाती है या फिर कोई हादसा हो जाता है या कोई बीमारी हावी हो जाती है. इस अंधविश्वास के पीछे भी कहानी गढ़ी गई है.
करुणानिधि भी पड़े इस फेर में
कहानी ये है कि साल 1984 में यहां तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी आई थीं. इसके कुछ ही दिन बाद उनकी हत्या कर दी गई थी. वहीं तमिलनाडु के तत्कालीन सीएम एमजी रामचंद्रन ने भी मंदिर के मेन गेट से एंट्री की थी, जिसके कुछ दिन बाद उन्हें स्ट्रोक झेलना पड़ा. यही नहीं पांच बार सीएम रहे करुणानिधि ने भी कभी मुख्य द्वार से मंदिर में प्रवेश नहीं किया. साल 1997 में बृहदेश्वर मंदिर में आग लग गई थी. तब उस वक्त करुणानिधि मंदिर पहुंचे थे. लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उस वक्त भी उन्होंने मुख्य द्वार से मंदिर में प्रवेश नहीं किया था.
नोएडा से नेता जी को लगता है डर
देश के सबसे बड़े राज्य यूपी का सबसे चर्चित शहर नोएडा, जहां मीडिया घरानों के ऑफिस से लेकर कॉर्पोरेट जगत का बोलबाला है. इसे लेकर भी यूपी के मुख्यमंत्रियों में अलग ही डर देखने को मिला है. हालांकि सीएम योगी आदित्यनाथ ने नोएडा आकर इस अंधविश्वास को तोड़ने का दावा किया है.
क्या है नोएडा से जुड़ा अंधविश्वास
नोएडा जो सीएम आता है, कुर्सी से उतर जाता है. ये अंधविश्वास सालों पुराना है. इस अंधविश्वास की शुरुआत हुई, 23 जून 1988 को, जब उस वक्त के सीएम वीर बहादुर सिंह नोएडा आए थे. वीर बहादुर सिंह के नोएडा से लौटने के दूसरे ही दिन ऐसे हालात बने कि उनको अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.
इसके अगले ही साल 1989 में एनडी तिवारी बतौर सीएम एक पार्क का उद्घाटन करने नोएडा पहुंचे और उनकी सरकार भी गिर गई. इसी के बाद से नोएडा को लेकर ये अंधविश्वास शुरू हो गया.
- साल 1995- मुलायम सिंह यादव नोएडा आए और उनकी कुर्सी चली गई
- साल 1999- कल्याण सिंह प्रचार के लिए नोएडा आए और दोबारा उनकी सरकार नहीं बन पाई.
- साल 2000 - सीएम राम प्रकाश गुप्ता नोएडा आए और उनकी कुर्सी चली गई
इस डर का आलम ये हुआ कि साल 2000 में जब राजनाथ सिंह सीएम बने तो वो नोएडा नहीं आए. 2003 से 2007 तक मुलायम सिंह यूपी के सीएम रहे, लेकिन वो भी नोएडा नहीं आए. बतौर मुख्यमंत्री सिर्फ मायावती ही नोएडा आईं, लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती को हार का सामना पड़ा.
अब इन सबके बाद डिजिटल सीएम कहे जाने वाले अखिलेश यादव ने भी नोएडा की तरफ रुख नहीं किया. वो अलग बात है अखिलेश यादव बिना नोएडा आए ही सत्ता से बाहर हो गए.
अशोक नगर और इच्छावर से सीएम शिवराज की दूरी
मध्यप्रदेश की राजनीति में अंधविश्वास के कई किस्से मशहूर है. मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सिहोर में एक जगह है इच्छावर. इस जगह को लेकर अंधविश्वास है कि जो सीएम यहां आया, उसकी कुर्सी चली गई. कहा जाता है कि इसी वजह से शिवराज अपने ही जिले के इस शहर में नहीं जाते है.
साल 1962 में सीएम कैलाशनाथ काटजू, 1967 में द्वारका प्रसाद मिश्रा, 1977 में कैलाश जोशी, 1979 में वीरेंद्र कुमार सकलेचा और 2003 में दिग्विजय सिंह ने इच्छावर आने के बाद अपनी कुर्सी गंवा दी.
इतना ही नहीं साल 2003 में दिग्विजय सिंह ने इच्छावर का दौरा किया था और कहा कि मैं यहां इस मिथक को तोड़ने आया हूं, लेकिन दिग्विजय अगला चुनाव हार गए.
यही हाल अशोक नगर का भी है. यहां की कहानी भी कुछ ऐसी ही है कि जो भी सीएम अशोक नगर आता है, उसकी कुर्सी चली जाती है. इसीलिए अपने 14 साल के कार्यकाल में शिवराज अब तक अशोक नगर नहीं गए.
कहते हैं कि साल 1970 में प्रकाश चंद सेठी मुख्यमंत्री हुआ करते थे, वह अशोक नगर आए, लेकिन यहां से लौटने के बाद वो पद से हटा दिए गए. 1975 में इसी कस्बे का दौरा करने के तुंरत बाद श्याम चरण शुक्ला भी अपना मुख्यमंत्री पद खो बैठे. 1984 में अर्जुन सिंह, 1993 में सुंदरलाल पटवा और 2003 में दिग्विजय सिंह ने अपनी कुर्सियां गंवा दीं.
हालांकि योगी आदित्यनाथ के नोएडा दौरे के बाद शिवराज सिंह ने ऐलान किया था कि वो अशोक नगर जाकर इस अंधविश्वास को तोड़ देंगे. लेकिन फिलहाल अब तक ऐसा नहीं हुआ है.
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