सुशांत सिंह राजपूत, बिहार से दिल्ली आए. नामी दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से पढ़ाई की. एक्टिंग के लिए ये भी छोड़ा. टीवी में सुपरहिट हुए. बड़े परदे पर भी छाए. कामयाब. फिर भी सुसाइड.
सीसीडी के फाउंडर वीजी सिद्धार्थ ने इस मशहूर कैफे चेन के 1500 स्टोर खोले, हजारों लोगों को नौकरियां दी..कामयाब. फिर भी सुसाइड. पिछले साल अपने आखिरी नोट में लिखा-मैं नाकाम हो गया.
सुशांत और सिद्धार्थ जैसे केस बहुत हैं. और ये हमपर एक समाज और व्यक्तिगत तौर पर भी कई सवाल उठा रहे हैं.
कामयाब लोगों को कौन कर रहा नाकाम?
इन लोगों ने अपनी मेहनत, अपनी लगन से एक मुकाम हासिल किया था. कामयाबी के उनके पर्सनल पैमाने तो हम नहीं जानते लेकिन दुनियानवी मापदंडों के लिहाज से कामयाब थे, तो फिर क्यों सुशांत ने अपने आखिरी इंस्टा पोस्ट में बेचैनी दिख रही थी.
और क्यों वीजी सिद्धार्थ को अपने आखिर नोट में लिखना पड़ा-
‘’पिछले 37 साल की कड़ी मेहनत के दौरान हमने अपनी कंपनियों में 30,000 लोगों को रोजगार दिया. इसके अलावा 20,000 नौकरियां उन टेक्नोलॉजी कंपनियों ने दीं जिनमें मैं बड़ा शेयर होल्डर हूं. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं फायदेमंद बिजनेस खड़ा करने में नाकाम रहा. मैं कहना चाहता हूं कि मैंने इसे अपना सब कुछ दिया....मैं लंबे समय तक लड़ा लेकिन अब मैं अपने एक प्राइवेट इक्विटी पार्टनर के सामने हिम्मत हार गया हूं. वो मेरे ऊपर उन शेयरों को वापस खरीदने का दबाव बना रहे हैं. ये वो सौदा है जो 6 महीने पहले एक दोस्त से बड़ा कर्जा लेकर मैंने किसी तरह पूरा किया था. कई और कर्जा देने वालों के जबरदस्त दबाव ने मुझे हालात के सामने झुकने के लिए मजबूर कर दिया है. इनकम टैक्स के एक पूर्व डीजी ने भी हमारी ‘माइंड ट्री’ डील को रोकने के लिए दो अलग-अलग मौकों पर हमारे शेयर अटैच किए. उसके बाद हमारे कॉफी डे शेयर्स को भी अटैच कर दिया गया. जबकि हमने अपना संशोधित बकाया फाइल कर दिया था. ये नाजायज था जिससे हमारे सामने पैसे की बड़ी किल्लत खड़ी हो गई....... मुझे उम्मीद है कि आप एक दिन मुझे समझेंगे और माफ कर देंगे.’
हाल फिलहाल सुसाइड के जो केस हुए हैं, उसे देखकर सिर चकराता है. पिछले महीने टीवी एक्टर मनमीत ग्रेवाल और क्राइम पेट्रोल फेम प्रेक्षा मेहता की मौत ऐसे ही हुई. फिर पिछले साल टीवी एक्टर- कुशल पंजाबी, 2016 में बालिका वधू से मशहूर हुईं एक्टर प्रत्यूषा बैनर्जी...साल दर साल समस्या बनी हुई है लेकिन इसपर कोई बात नहीं करता.
आप याद करेंगे तो आपको फिल्म फेयर अवॉर्ड विनर तेलगू एक्टर उदय किरण, दिव्या भारती, जिया खान (हालांकि उसमें अभी जांच चल रही कि मौत की वजह क्या थी), मशहूर मलयाली एक्टर श्रीनाथ से लेकर सिल्क स्मिता और गुरुदत्त तक के नाम याद आएंगे. साउथ में हाल फिलहाल कई टीवी एक्टर की जान खुदकुशी की वजह से गई है. ये तमाम लोग जीते हुए थे, इन्हें किसने हराया?
और ये तो वो मामले हैं जो शो बिजनेस से जुड़े हैं, लिहाजा लाइमलाइट में आते हैं. दरअसल सुसाइड के आंकड़े डरावने हैं. देश में अपराध का रिकॉर्ड रखने वाली संस्था NCRB के मुताबिक 2018 में हर घंटे एक स्टूडेंट की मौत सुसाइड से हुई. हर दिन 28 सुसाइड. साल में दस हजार से ज्यादा. जिस IIT में एडमिशन, मतलब करियर सेट माना जाता है, उनमें 2014 से 2019 के बीच 27 छात्रों की मौत खुदकुशी से हो गई. अब जरा सोचिए जिन छात्रों ने अभी जिंदगी की परीक्षा दी ही नहीं, वो फेल हो रहे हैं तो दरअसल फेल वो हो रहे हैं या कोई और? इसी तरह पिछले 2016-2018 के बीच करीब तीस हजार किसानों की जान सुसाइड से गई. अब जरा सोचिए जो किसान तमाम दुश्वारियों का सामना कर देश को भूखे रहने से बचाता है, वो मेहनती किसान क्यों हिम्मत हार जा रहा है? कौन उनके पसीने को पानी में बहा रहा है?
महामारी के लक्षण साफ नजर आ रहे
2018 में देश में कुल मिलाकर 1.34 लाख सुसाइड के सामले सामने आए. याद रखिएगा कि 2017 तक देश में सुसाइड कानून अपराध था, इसमें कुछ बदलाव हुए हैं, लेकिन स्थिति काफी कुछ वैसी ही है. अब भी इसको लेकर सोशल टैबू बना हुआ है, तो अंडर रिपोर्टिंग की पूरी आशंका है. 2016 में NCRB के मुताबिक देश में 1.31 लाख सुसाइड हुए थे, लेकिन लांसेट का दावा था कि ये मामले दरअसल 2.57 लाख थे.
सुसाइड की महामारी हमारे लिए कितनी बड़ी हो गई है इसको समझने केलिए आप बस ये जान लीजिए कि 1978 में यहां प्रति एक लाख की आबादी पर 6.3 लोग सुसाइड कर रहे थे, वहीं 2018 आते-आते ये तादाद 10.2 हो गई. ये तो NCRB का डेटा है. WHO तो ये संख्या इससे भी ज्यादा बताता है
रेड जोन में भारत
WHO के मुताबिक दुनिया में हर साल करीब 8 लाख सुसाइड होते हैं. हर दो सेकंड में एक सुसाइड अटेम्पट हो रहा है. युद्ध से ज्यादा मौतें सुसाइड के कारण हो रही हैं. लेकिन इसमें भी भारत की स्थिति बेहद खराब है. WHO के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रति एक लाख 10.5 लोग सुसाइड करते हैं लेकिन भारत में ये संख्या 16.5 है. पूरे साउथ ईस्ट एशिया में सबसे ज्यादा सुसाइड भारत में हो रहे हैं. महिला सुसाइड के मामले में तो भारत पूरी दुनिया में तीसरे नंबर पर है. ये भी याद रखिएगा कि नंबर एक और दो पर लेसोथो और साउथ कोरिया जैसे छोटे देश हैं.
अब इस महामारी का टीका चाहिए
सुसाइड का जिक्र आते ही डिप्रेशन का जिक्र आता है. मनोचिकित्सक कहते हैं कि जिसमें सुसाइड के लक्षण दिखें उनसे बात करें, उसका दर्द साझा करें. लेकिन यहां तो ज्यादातर मामलों में लोग डिप्रेशन को समस्या मानने से ही इंकार देते हैं. किसी को पागलपन का फतवा सुना दिया जाता है तो किसी को मूडी करार दे दिया जाता है. हमें इन मामलों में अपना बर्ताव सुधारने की जरूरत है. और फिर डिप्रेशन एक मेडिकल स्थिति भी हो सकती है, इसे कब स्वीकार करेंगे? और फिर क्या डिप्रेशन के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलू नहीं हैं?
सुसाइड के सिर्फ 50% मामले डिप्रेशन से जुड़े होते हैं. NCRB के मुताबिक 2018 में देश में जितने लोगोंकी मौत सुसाइड से हुई, उनमें सबसे बड़ा समूह था दिहाड़ी मजदूरों का. ऐसे दिहाड़ी मजदूर जिन्होंने सेकंडरी लेवल तक पढ़ाई की थी और जिनकी आमदनी एक लाख रुपए सालान से कम थी. तो क्या शोषण, आगे बढ़ने की तमन्ना का कुचला जाना, गैरबराबरी, असुरक्षा और आर्थिक तंगी ने भी उनका दम घोंटा?
अभी जब से लॉकडाउन लगा है कि तब से सुसाइड प्रिवेन्शन हेल्पलाइंस पर कॉल की संख्या में 80% का इजाफा हुआ है. लॉकडाउन से पहले ज्यादातर कॉल पढ़ाई और वैवाहिक जीवन से जुड़ी समस्याओं पर आती थीं, अब अकेलापन, नौकरी जाना, EMI, रेंट वगैरह में दिक्कतों से जुड़ी कॉल भी बड़ी संख्या में आ रही हैं. इसे कौन ठीक करेगा? किसकी गलती है? हम कब तक सिर्फ इस महामारी के लक्षणों के इलाज पर ध्यान देंगे? असल बीमारी का टीका कौन खोजेगा? शुरुआत हम सबको एक व्यक्ति और समाज के तौर पर करनी होगी.
सपनों का सुसाइड कब तक?
पिछले साल सुशांत ने अपने पचास सपनों की लिस्ट सोशल मीडिया पर शेयर की थी. इनमें से कुछ अधूरे सपने ये हैं-
- बच्चों को स्पेस के बारे में सीखने में मदद करन
- बच्चों को वर्कशॉप के लिए इसरो/नासा भेजना
- फ्री एजुकेशन के लिए काम करना
- बच्चों को डांस सिखाना
- इंडियन डिफेंस फोर्स के लिए छात्रों की पढ़ाई में मदद करना
इन ख्वाबों की खुदकुशी का जिम्मेदार कौन है? और ये सपने किसके लिए देखे जा रहे थे, उसी समाज के लिए जिसने सुशांत का जीना दूभर कर दिया? तो क्या ये पूरे समाज को खुदकुशी की ओर धकेलने का केस नहीं है? ट्रान्सेंडेंटल मेडिटेशन के बारे में कहा जाता है कि इससे फायदा इसलिए होता है कि क्योंकि ये इंसान को बंधन तोड़ने में मदद करता है. हम अपने घरों में, दफ्तरो में, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के पैटर्न में बंध कर रह जाते हैं, जबकि हर इंसान का बेसिक स्वभाव होता है कि वो लगातार ग्रो करना चाहता है, लगातार आगे बढ़ना चाहता है. एक पौधे की तरह, एक पेड़ की तरह. ट्रान्सेंडेंटल मेडिटेशन में इन्हीं बंधनों को छोड़ ऊपर उठने का मौका मिलता है.
क्या समाज में भी सबको ऊपर उठने, अपनी पूरी क्षमता तक पूरा ग्रो करने का मौका नहीं मिलना चाहिए? सुशांत सिंह राजपूत और वीजी सिद्धार्थ जैसे कामयाब लोगों का अंत देख, कामयाबी के लिए दिन रात मेहनत कर रहे लोगों के मन में कुछ तो आता होगा? कुछ हसरतें की हत्या तो होती होगी?
बेईमानी, गैरबराबरी, नाइंसाफी. ये कैसा समाज बना रहे हैं हम? फिल्म थ्री इडियट्स के एक गाने की लाइनें याद आ रही हैं- गिव में सम सनसाइन, गिव में सम रेन, गिव मी अनदर चांस, आई वान अ ग्रो अप अगेन.
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