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टेक्नोलॉजी कहीं खा न जाए आपकी नौकरी, स्किल डेवलपमेंट की जरूरत

मेकेंजी का दावा है कि दुनिया में अभी जितनी तरह की नौकरियां हैं, उनमें से 50% साल 2035 तक खत्म हो जाएंगी.

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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ऑटोमेशन और मशीन लर्निंग जैसे शब्द इन दिनों काफी सुनने में आते हैं. दरअसल, ये सारे शब्द अब सूचना तकनीकी का अहम हिस्सा बन चुके हैं और इनकी मौजूदगी हम अपने आस-पास महसूस भी कर सकते हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सिद्धांत कोई नया नहीं है बल्कि पचास साल से भी ज्यादा पुराना है, लेकिन इसका इस्तेमाल अब हर तरह के उद्योग-धंधों में होना शुरू हो गया है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का मतलब है कंप्यूटर प्रोग्रामों की मदद से विकसित की गई बौद्धिक क्षमता. ये कंप्यूटर प्रोग्राम उन्हीं तर्कों और परिस्थितियों के आधार पर डिजाइन किए जाते हैं, जिनके आधार पर इंसानी दिमाग चलता है. कोशिश होती है कि कंप्यूटर उसी तरह से सोच पाए, जैसे इंसान सोच सकता है. हम आए दिन जिन रोबोट के कारनामे सुनते रहते हैं, वो इसी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नमूने हैं. और आज इस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का इस्तेमाल इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, एजुकेशन, बैंकिंग, ऑटो जैसे तमाम सेक्टरों में होने लगा है.

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जानी-मानी कंसल्टिंग फर्म मेकेंजी का दावा है कि दुनिया में अभी जितनी तरह की नौकरियां हैं, उनमें से 50% साल 2035 तक खत्म हो जाएंगी.

मेकेंजी के मुताबिक इस वक्त दुनिया में 800 तरह की नौकरियां हैं, जिनमें से 30% मशीनें कर सकती हैं. दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में पेश एक रिपोर्ट में इस कंसल्टिंग फर्म ने अनुमान जताया है कि 2035 तक दुनिया की 90% गाड़ियां सेल्फ-ड्राइविंग होंगी जिनकी वजह से ड्राइवरों को रखने की जरूरत खत्म हो जाएगी.

अगर इस रिपोर्ट के अनुमान को पूरी तरह व्यावहारिक नहीं भी मानें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन जॉब मार्केट में कदम रखने वालों के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा है.

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एंड रोबोटिक्स-2017 में कहा गया है कि जिन सेक्टरों पर रोबोटिक सिस्टम और मशीन लर्निंग का ज्यादा असर होगा उनमें आईटी, मैन्युफैक्चरिंग, एग्रीकल्चर और फॉरेस्ट्री शामिल हैं. इसका नतीजा ये होगा कि नई नौकरियां उतनी पैदा नहीं हो पाएंगी जितनी जरूरत है. ऐसे में कम कार्यकुशल कर्मचारियों को दूसरे स्किल्स सिखाने की जरूरत होगी.
एसोचैम और पीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट

क्या हो सकते हैं साइड इफेक्ट?

कंपनियों का मानना है कि इन आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर वो ना सिर्फ अपनी लागत कम कर सकती हैं, बल्कि कार्यकुशलता भी बढ़ा सकती हैं. लेकिन इससे एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है लोगों की नौकरियों पर, खासकर उन नौकरियों पर जिनके काम ये मशीनें या रोबोट कर सकेंगे. हालांकि ऐसा नहीं है कि कंपनियां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन के संभावित दुष्प्रभावों को लेकर अनजान या संवेदनहीन हैं. आईटी कंपनियां खासतौर पर अपने कर्मचारियों को नई तकनीक की ट्रेनिंग दे रही हैं. टीसीएस करीब एक लाख लोगों को डिजिटल टेक्नोलॉजी सिखाने जा रही है. वहीं विप्रो ने वित्त वर्ष 2016-17 के शुरुआती 9 महीनों में अपने 30,000 कर्मचारियों को बिग डाटा, एडवांस्ड एनालिटिक्स, क्लाउड और डिजिटल सिक्योरिटी जैसी टेक्नोलॉजी की ट्रेनिंग दी है. इंफोसिस और दूसरी आईटी कंपनियां भी इस काम में पीछे नहीं हैं.लेकिन इन कंपनियों के अपने कर्मचारियों को रि-स्किल करने का एक साइड इफेक्ट भी होना तय है. अब ये कंपनियां कैंपस रिक्रूटमेंट में कमी कर रही हैं.

पिछले साल देश की दिग्गज आईटी कंपनी इंफोसिस ने एक इंटेलिजेंस प्लेटफॉर्म ‘मन’ लॉन्च किया था जो कंपनियों के फिजिकल और डिजिटल एसेट्स के रख-रखाव का खर्च काफी कम कर देता है. लेकिन इस ‘मन’ ने कई लोगों की नौकरियों के मौके खा लिए. इंफोसिस ने 2015-16 में 9000 से ज्यादा कर्मचारियों को जाने को कह दिया था.वहीं 2016-17 के शुरुआती नौ महीनों में कंपनी ने सिर्फ 5,700 नए कर्मचारी भर्ती किए, जबकि पिछले साल की इस अवधि में उसने करीब 17,000 कर्मचारी रखे थे. इसी तरह विप्रो ने भी अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्लेटफॉर्म ‘होम्स’ पर दांव लगाया है और कंपनी करीब 4500 कर्मचारियों को उनके मौजूदा काम से हटाकर दूसरे काम सौंप रही है. (देखें ग्राफिक्स)

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बैंकों में भी कस्टमर्स की मदद के लिए रोबोट रखने की शुरुआत हो गई है. सिटी यूनियन बैंक की रोबोट ‘लक्ष्मी’ और एचडीएफसी बैंक की रोबोट ‘इरा’ इसके उदाहरण हैं. साफ है कि जब कंपनियों का जोर उत्पादकता बढ़ाने और लागत में कमी करने पर होगा, तो नई भर्तियां उन्हीं कैंडीडेट्स की हो सकेगी, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग या इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी चीजों को जानते-समझते होंगे. पहले से ही नए रोजगार की कमी से जूझ रहे भारत जैसे देश में ये चुनौती और भी गंभीर होगी.

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