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World Toilet Day: शौचालय,सफाई का गहरा नाता,जानिए इस दिन की अहमियत

वर्ल्ड टॉयलेट डे की अहमियत क्यों हैं 

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भारत
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मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के बाद देश भर में शौचालयों के निर्माण में तेजी आई है. भारत में खुले में शौच बंद कराने के लिए सरकार जोर-शोर से अभियान चला रही है. विकासशील देशों में वर्ल्ड एजेंसियां भी टॉयलेट निर्माण पर जोर दे रही हैं.

टॉयलेट के प्रति जागरुकता के लिए विश्व शौचालय संगठन ने 2001 में वर्ल्ड टॉयलेट डे की शुरुआत की. 12 साल बाद 2013 में दुनिया में स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस दिन को संयुक्त राष्ट्र के आधिकारिक दिवसों की सूची में शामिल किया. इस बार इस दिवस की थीम है, ‘ह्वेन नेचर काल्स’.

टॉयलेट (TOILET) शब्द कहां से आया?

टॉयलेट (TOILET) शब्द फ्रेंच भाषा के Toilette शब्द से बना है, जिसका मतलब होता है कपड़ा या रेपर. शुरुआत में इस शब्द का इस्तेमाल एक ऐसे कपड़े के लिए किया जाता था, जो ऊपर से ओढ़ा जा सके. बाद में इसका इस्तेमाल ड्रेसिंग टेबल को कवर करने वाले कपड़े के तौर पर किया जाने लगा. फिर ये शब्द शौचालय के लिए चलन में आया.

वर्ल्ड टॉयलेट डे की अहमियत क्यों हैं 
यूरोपीयन पब्लिक टॉयलेट, 1370 BC (फोटो: सुलभ इंटरनेशनल)
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भारत में टॉयलेट की शुरुआत

सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हड़प्पा सभ्यता के समय व्यवस्थित टॉयलेट के नमूने मिले हैं. ये 2500 BC (बिफोर क्राइस्ट) के समय की बात है. हड़प्पा सभ्यता के नगर लोथल में हर घर में पानी से संचालित होने वाले टॉयलेट हुआ करते थे.

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हड़प्पा सभ्यता, 2500 BC (फोटो: सुलभ इंटरनेशनल)

ईंट और चिकनी मिट्टी से बने इन टायलेट में मेनहोल और चैंबर हुआ करता था, जहां जाकर मल इकठ्ठा होता था. लेकिन इस सभ्यता के खत्म होने के बाद से ही टॉयलेट की ये शैली भी खत्म हो गई.

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इसी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में व्यवस्थित शौचालय (घुसलखानों) का निर्माण सबसे पहले मुगल बादशाहों ने सन 1556 में करवाना शुरू किया. लेकिन ये टॉयलेट सिर्फ अमीरों के लिए ही हुआ करते थे. मुगलकाल में ही कुछ जगहों पर पब्लिक टॉयलेट की पहल भी शुरू की गई, लेकिन वो सफल नहीं हो सकी.

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मुगल काल (फोटो: सुलभ इंटरनेशनल)
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1878 में आया पहला बिल

देश में धीरे-धीरे टॉयलेट की जरूरत लोगों को समझ में आने लगी. भारत में पहला स्वच्छता बिल 1878 में लागू किया गया, जिसके तहत भारत की तत्कालीन राजधानी कोलकाता के झुग्गी बस्तियों में टॉयलेट बनाना जरूरी कर दिया गया था. इसके बाद साल 1993 में दूसरा एक्ट पारित हुआ. इसके मुताबिक ड्राई लैट्रिन बनाना और इसे हाथों से साफ कराना अपराध माना गया.

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ट्रेनों में टॉयलेट की शुरुआत की कहानी दिलचस्प है !

साल 1909 तक भारत के ट्रेनों में टॉयलेट्स नहीं हुआ करता था. यात्री गाड़ी रुकने के दौरान ही खुले में शौच के लिए जाया करते थे. ऐसे में कई बार ट्रेन भी छूट जाया करती थी.

एक बार पश्चिम बंगाल से ओखिल चंद्र सेन नाम के एक शख्स सफर कर रहा थे. वो शौच के लिए बाहर निकले और गार्ड की सीटी सुनने के बाद खुद को संभाल नहीं सके और गिर पड़े.
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ओखिल चंद्र सेन की चिट्ठी (फोटो: Quora )

ओखिल ने चिट्ठी लिखकर इस बात की सूचना रेलवे ऑफिस को दी. मजेदार तरीके से लिखी गई इस चिट्ठी में टॉयलेट न होने के कारण परेशानियों का जिक्र था. इसके बाद से ही ट्रेन में टॉयलेट की सुविधा दी जाने लगी. ये चिट्ठी अब भी रेलवे म्यूजियम दिल्ली में रखी गई है.

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हालात अब भी सुधरे नहीं

साल 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद स्वच्छता और घर-घर में टॉयलेट बनवाने पर खासा जोर दिया गया. इसके बाद देश में टॉयलेट की संख्या तो बढ़ी, लेकिन हालात में बहुत ज्यादा सुधार आया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता है. भारत सरकार की स्वच्छता स्थिति रिपोर्ट के मुताबिक:

  • देश के ग्रामीण इलाकों के अब भी 52.1 फीसदी लोग खुले में शौच करते हैं.
  • झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में हालात सबसे ज्यादा खराब हैं.
  • शहरी क्षेत्रों में भी करीब 7.5 फीसदी लोग खुले में शौच करते हैं.
  • ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौच करने वाले 55.4 फीसदी परिवार हैं. शहरी क्षेत्रों में ये आंकड़ा 8.9 फीसदी का है.
  • देश में 42.5 फीसदी ग्रामीण घरों में 87.9 फीसदी शहरी घरों के टॉयलेट में ही पानी की सुविधा है.

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